भारत को गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा की अपनी क्षमता बढ़ाने, कार्बन की प्रबलता कम करके 2070 तक कार्बन तटस्थता हासिल करने की जरूरत है जिससे सीओपी 26 घोषणाओं को पूरा करने में मदद मिल पाए

दैनिक समाचार

भारत को प्रधानमंत्री द्वारा सीओपी 26 की घोषणाओं को पूरा करने के लिए कई दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। इनमें गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा की क्षमता बढ़ाना, कार्बन की प्रबलता में कमी लाना, 2030 तक नवीकरणीय ऊर्जा के माध्यम से ऊर्जा की आधी जरूरत को पूरा करना, कार्बन उत्सर्जन को कम करना और 2070 तक निवल शून्य उत्सर्जन प्राप्त करना शामिल है। विज्ञान और प्रौद्योगिकी (डीएसटी) विभाग, भारत सरकार के वरिष्ठ सलाहकार डॉ. अखिलेश गुप्ता ने ’जलवायु परिवर्तन: चुनौतियां और प्रतिक्रिया (वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों के लिए)’ पर आयोजित ऑनलाइन प्रशिक्षण कार्यक्रम के उद्घाटन सत्र के दौरान इन तथ्यों पर प्रकाश डाला।

सेंटर फॉर डिजास्टर मैनेजमेंट (सीडीएम), लाल बहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन (एलबीएसएनएए), मसूरी में 5 दिवसीय ऑनलाइन प्रशिक्षण कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा है जिसमें वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकीविदों और देशभर से केंद्र एवं राज्य सरकारों के संगठन से जलवायु परिवर्तन और इससे जुड़े क्षेत्रों में अभिरुचि रखने वाले रिसोर्स पर्सन अर्थात क्षेत्र विशेष के जानकार हिस्सा ले रहे हैं। डीएसटी के सहयोग से इस कार्यक्रम का आयोजन 20- 24 दिसंबर 2021 के दौरान किया जा रहा है।

डॉ. गुप्ता ने बताया, ’’इलेक्ट्रिक वाहन और हरित हाइड्रोजन ऊर्जा को लेकर की गई कुछ प्रमुख पहलों से 2030 तक अर्थव्यवस्था की कार्बन प्रबलता घटाकर 45 प्रतिशत तक लाना संभव है। भारत की 50 फीसदी ऊर्जा आवश्यकता की पूर्ति 2030 तक अक्षय ऊर्जा के माध्यम से की जा सकती है क्योंकि भारत ने पहले ही नवीकरणीय ऊर्जा का 40 प्रतिशत हिस्सा हासिल कर लिया है। वर्ष 2030 तक एक अरब टन कार्बन उत्सर्जन को कम करना चुनौतीपूर्ण है क्योंकि इसके लिए भारत को अपने कार्बन उत्सर्जन में करीब 22 फीसदी की कटौती करनी होगी। देश के लिए सबसे बड़ी चुनौती 2070 तक कार्बन तटस्थता हासिल करना है, जिसके लिए अक्षय ऊर्जा उत्पादन को कई गुना बढ़ाना होगा। इसके अलावा, कोयले का उपयोग काफी घटाना होगा और सभी क्षेत्रों में कच्चे तेल की खपत को 2050 तक चरम स्थिति पर ले जाना होगा और 2050 और 2070 के बीच इसमें निरंतर कमी करने की आवश्यकता होगी।’’

डॉ. गुप्ता ने इस बात का जिक्र किया कि शहरीकरण नया वैश्विक बदलाव है जो जारी है। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि शहरों के क्लस्टरों में भूतल का तापमान वैश्विक परिवर्तन की तुलना में 3-4 डिग्री सेल्सियस अधिक हो सकता है। उन्होंने कहा, ’’वर्षा की तीव्रता और आवृत्ति शहरी क्लस्टरों में सामान्य वर्षा पैटर्न से पूरी तरह अलग हो सकती है।’’ उन्होंने बताया कि हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि महानगरों में वर्षा की तीव्रता जनसंख्या घनत्व से निकटता से जुड़ी हुई है। उन्होंने जोर देकर कहा कि वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैस सांद्रता में वृद्धि और स्थानीय स्तर पर भूमि उपयोग और भूमि कवर परिवर्तन का संयुक्त प्रभाव शहरों में जलवायु परिवर्तन को प्रभावित करने वाले प्रमुख मानवजनित कारक हैं।

उन्होंने बताया, “डीएसटी के जलवायु परिवतर्न कार्यक्रम के तहत अगले 5 वर्षों के लिए हिमनद विज्ञान, जलवायु प्रतिरूपण, शहरी जलवायु, घटना की चरम स्थिति, और हिमालयी पारिस्थितिकी का अध्ययन चिन्हित प्राथमिकता वाले क्षेत्र हैं।’’

डॉ. गुप्ता ने बताया कि जलवायु परिवर्तन की संवेदनशीलता के अनुसार डीएसटी द्वारा की गई राज्यों की रैंकिंग में 8 सबसे संवेदनशील राज्यों में झारखंड, मिजोरम, ओडिशा, छत्तीसगढ़, असम, बिहार, अरुणाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल, सभी पूर्वी क्षेत्र में हैं और किसी स्थान की संवदेनशीलता के साथ गरीबी और निम्न एचडीआई यानी मानव विकास सूचकांक के बीच सीधा संबंध है।

उन्होंने जलवायु-प्रेरित जोखिम सूचकांक की पहचान के लिए संवेदनशीलता मूल्यांकन के अलावा जिला स्तर पर जलवायु परिवर्तन जोखिम मूल्यांकन की आवश्यकता पर भी जोर दिया। उन्होंने कहा, “यह जोखिम मूल्यांकन अनुकूलन रणनीतियों के विकास और आपदा प्रबंधन में भी मदद करेगा।’’

डॉ. पंकज कुमार सिंह, एसोसिएट प्रोफेसर, सीडीएम, एलबीएसएनएए भी उद्घाटन सत्र के दौरान उपस्थित थे जिसमें जलवायु परिवर्तन के विभिन्न पहलुओं से जुड़े वैज्ञानिकों, प्रौद्योगिकीविदों और विशेषज्ञों ने हिस्सा लिया।

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