ऋषभ दुबे
मैं हर कहानी को पर्दे पर उतारने का समर्थक हूँ. यदि कहानी ब्रूटल है, तो उसे वैसा ही दिखाया जाना चाहिए.
जब टैरंटीनो और गैस्पर नोए, फ़िक्शन में इतने क्रूर दृश्य दिखा सकते हैं, तो रियल स्टोरीज़ पर आधारित फ़िल्मों में ऐसी सिनेमेटोग्राफ़ी से क्या गुरेज़ करना?
और वैसे भी, तमाम क्रूर कहानियाँ, पूरी नग्नता के साथ पहले भी सिनेमा के ज़रिए दुनिया को सुनाई और दिखाई जाती रही हैं.
रोमन पोलांसकी की “दि पियानिस्ट” ऐसी ही एक फ़िल्म है..
जलीयांवाला बाग़ हत्याकांड की क्रूरता को पूरी ऑथेंटिसिटी के साथ, शूजीत सरकार की “सरदार ऊधम” में फ़िल्माया गया है.
मगर आख़िर ऐसा क्या है कि पोलांसकी की “दि पियानिस्ट” देखने के बाद, आप जर्मनी के ग़ैर यहूदीयों के प्रति हिंसा के भाव से नहीं भरते? और शूजीत सरकार की “सरदार ऊधम” देखने के बाद आपको हर अंग्रेज़ अपना दुश्मन नज़र नहीं आने लगता?
पर, “दि कश्मीर फ़ाइल्स” देखने के बाद मुसलमान आपको बर्बर और आतंकी नज़र आता है. ऐसा क्यों?
मुझे इस “क्यों” का जवाब अनुप्रास अलंकार से सुसज्जित इस पंक्ति में नज़र आता है –
“कहानी को कहने का ढंग” !
अच्छे फ़िल्म मेकर्स अपनी बात कहने के ढंग पर ध्यान देते हैं. कहानी से पूरी ईमानदारी करते हुए, अपनी ज़िम्मेदारी नहीं भूलते.
चलिए मैं बात साफ़ करता हूँ –
जैसे लिंकन ने डेमोक्रेसी की एक यूनिवर्सल डेफ़िनिशन दी है – “औफ़ दि पीपल, बाई दि पीपल एंड फ़ॉर दि पीपल”; वैसी ही कोई परिभाषा विवेक अग्निहोत्री की फ़िल्मों के लिए भी गढ़ी जा सकती है…मसलन –
“एक विशेष वर्ग द्वारा, एक विशेष वर्ग के लिए और एक विशेष वर्ग के ख़िलाफ़”..
आप ख़ुद सोचिए कि पूरी 170 मिनट की फ़िल्म में, किसी लिबरल मुस्लिम कैरेक्टर की आधे मिनट की भी स्क्रीन प्रेज़ेन्स नहीं है! लिट्रली निल!
मुस्लिम औरतों से ले कर, मस्जिद के ईमाम तक, सब के सब विलन क़रार दिए गए हैं, मगर उस कम्यूनिटी से एक शख़्स को भी व्हाइट शेड में दिखाने की कोशिश नहीं की!
आप कहेंगे कि जब कोई वाइट शेड में था ही नहीं तो दिखा कैसे देते? मैं कहूँगा कि बकवास बंद करिए…
क्यूँकि उसी exodus के वक़्त, कश्मीर के मुस्लिम पोलिटिकल फ़िगर्स से लेकर इस्लामिक धर्मगुरुओं की हत्या, इस आरोप का जवाब है कि “लोग उन पीड़ित कश्मीरी पंडितों के लिए बोल रहे थे, आतंकवाद के ख़िलाफ़ खड़े हुए थे!
मगर उन्हें स्क्रीन पर दिखा कर शायद आपका नैरेटिव माइल्ड हो जाता; और वही तो नहीं होने देना था….
क्यूँकि ख़ून जितना खौले उतना बेहतर, गाली जितनी भद्दी निकले उतनी अच्छी…नारा जितना तेज़ गूंजे उतना बढ़िया….वोट जितना पड़ें…..है ना?
फ़िल्म बढ़ती जाती है और एक के बाद एक प्रॉपगैंडा सामने आता जाता है :
“सेकुलर अस्ल में सिकुलर हैं, यानी बीमार हैं!”
“संघवाद से आज़ादी, मनुवाद से आज़ादी…जैसे नारे लगाना देश से ग़द्दारी करना है.”
“कश्मीर में औरतों और लोगों के साथ जो भी ग़लत होता है, वो वहाँ के मिलिटेंट्स, फ़ौज की वर्दी पहनकर करते हैं, ताकि फ़ौज को निशाना बनाया जा सके!”
“मुसलमान आपका कितना भी ख़ास क्यों ना हो, मगर वक़्त आने पर वो अपना मज़हब ही चुनेगा.”… वग़ैरह..वग़ैरह..वग़ैरह.
मगर इस सब के बावजूद, मैं आपसे कहूँगा कि इस फ़िल्म को थीएटर में जा कर देखिए, ताकि आप फ़िल्म के साथ साथ फ़िल्म का असर भी देख सकें!
ताकि आप अपनी रो के पीछे बैठे लोगों से कोंग्रेस को, माँ बहन की गालियाँ देते सुन पाएँ और ख़ुद ये बताने में डर महसूस करें कि “तब केंद्र में congress नहीं जनता दल की सरकार थी!”
ताकि आप बेमतलब में जय श्री राम के नारे से हॉल गूँजता देख सकें.
ताकि निर्देशक द्वारा एक तस्वीर को एक झूठे और बेहूदे ढंग से पेश होते हुए देखें और बगल वाले शख़्स से उस तस्वीर में मौजूद औरत के लिए “रखैल…” जैसे जुमले सुन सकें!
ताकि फ़िल्म ख़त्म होने के बाद बाहर निकलती औरतों को ये कहते पाएँ कि “कुछ बातें ऐसी होती हैं जो खुल के बोल भी नहीं सकते!”
और मर्दों को ये बड़बड़ाते सुनें कि “हिंदुओं का एक होना बहुत ज़रूरी है वरना ये साले हमें भी काट देंगे!”
फ़िल्म इन्हीं लोगों के लिए बनाई गयी है, और जो लोग न्यूट्रल हैं, उन्हें इन जैसा बनाने के लिए!
(ये फ़िल्म पर मेरा पर्सनल व्यू है. आपकी राय अलग हो सकती है.. अगर ये पढ़ के तकलीफ़ हुई हो तो अनफ़्रैंड या ब्लॉक कर के आगे बढ़ें)
बाक़ी, मोहब्बत ज़िंदाबाद! ❤️
Wrishabh Dubey