व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा
अब बोलें क्या कहते हैं, भगवाइयों को कमपढ़ से लेकर अनपढ़ तक कहने वाले। पूरे नौ साल हो गए। मोदी के पांच साल भुगतने के बाद भी, पब्लिक ने पांच साल का जो एक्सटेंशन दिया, वह भी पूरा होने के करीब पहुंच गया। मगर मजाल है, भाई लोगों ने मोदी जी की डिग्री दिखाने की मांग को हफ्ता-पंद्रह दिन का भी रैस्ट दिया हो। उल्टे मोदी जी तो मोदी जी, स्मृति ईरानी से लेकर, निशिकांत दुबे तक, मोदी जी के आस-पास वालों की भी डिग्रियों पर सवाल ही सवाल उठाए हैं। भाई लोग तो यह मानकर चलते हैं कि भगवाइयों की डिग्री है, तो नकली नहीं भी हो, तो भी जरूर व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी वाली होगी; पर कॉलेज-यूनिवर्सिटी के पढ़े-लिखे वाली असली डिग्री तो हो ही नहीं सकती। सचमुच लिखा-पढ़ा इतना, इतना बंददिमाग कैसे हो सकता है!
पर आंखों के सामने जीता-जागता सबूत हाजिर है, अब क्या कहेंगे भगवाइयों की डिग्रियों को ही फेक मानने वाले। राहुल गांधी ने अमरीका में जो मोहब्बत की दुकान लगाई, भगवाइयों ने उस पर बकायदा लिखकर अपना आब्जेक्शन दर्ज कराया है। कोई फ्रिंज टाइप के भगवाइयों ने नहीं, देश के अलग-अलग हिस्सों से भगवा पार्टी के तीन-तीन सांसदों ने, बाकायदा सामूहिक चिट्ठी आब्जेक्शन दर्ज कराया है। और चिट्ठी भी कोई पिक्चर कार्ड वाली नहीं, एसएमएस टाइप की भी नहीं; पूरे नौ पेज की चिट्ठी लिखी है और विदेश में जाकर ‘‘मोहब्बत’’ की जरूरत बताकर, विश्व गुरु भारत को शर्मिंदा करने के लिए आब्जेक्शन दर्ज कराया है। इतना भारी दिमागी काम तो कोई असली डिग्रीधारी ही कर सकता है।
फिर यह कोई अपवाद भी नहीं है। उल्टे, सार्टिफिकेट भले ही नहीं दिखाएं, पर मोदी जी के चेलों में चिट्ठी लिखकर दिखाने के जरिए अपना पढ़ा-लिखा साबित करने की, होड़ ही लग गयी लगती है।
सुना है कि खड़गे साहब ने बालासोर हादसे के बाद रेलवे की समस्याओं को लेकर मोदी जी को जो चिट्ठी लिखी थी, उसका भी जवाब मोदी जी के चार-चार सांसदों ने सामूहिक चिट्ठी लिखकर दिया है। मोदी जी ने घुमा-फिराकर अपनी डिग्री दिखाने का भी एक और मौका भले ही हाथ से जाने दिया हो, पर एक ही चिट्ठी में उनके चार-चार सांसदों ने तो अपने पढ़े-लिखे होने का सबूत दे ही दिया है। अब विपक्ष वाले करते रहें इस पर कांय-कांय कि खड़गे साहब ने चिट्ठी तो पीएम जी को लिखी थी, सामूहिक चिट्ठी से ही सही, कोई और जवाब क्यों दे रहा है?
अब मोदी जी तो विपक्ष वालों को मुंह लगाने से रहे और वह तो गले भी दूसरे देशों के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों वगैरह को ही लगाते हैं, खासतौर पर गोरों को। अब मोदी जी डिग्री सच्ची साबित हो या नहीं, विपक्ष वालों को चिट्ठीयां तो उनके प्यादों की ही मिलेंगी। एक पंथ दो काज। जवाब का जवाब और भगवा पार्टी में कई डिग्रियां सच्ची होने का इनडाइरेक्ट सबूत भी।
और चूंकि भाजपाई सचमुच पढ़े लिखे हैं, उनकी डिग्रियां तक असली हो सकती हैं, न देश में और विदेश में, वो मोहब्बत-वोहब्बत की किसी दुकान के चकमे में कहां आने वाले थे। उन्होंने तो अपनी पैनी जासूसी नजर से, लव के अकाल के मारे इस देश में जब ‘‘लव जेहाद’’ खोज निकाला और नौ साल से हरेक चुनाव में उसको जमकर दुह रहे हैं, तो विदेशी धरती पर मोहब्बत की दुकान भला उन्हें कैसे धोखा दे सकती थी। भाइयों ने विपक्षियों के कपड़ों से फौरन पहचान लिया –कोई मोहब्बत-वोहब्बत की दुकान नहीं; यह तो नफरत की दुकान है। बल्कि दुकान भी नहीं, नफरात का मॉल है, पूरा मॉल। एक दुकान में कहां नफरत की इतनी वैराइटी मिलती है! मोदी जी से नफरत। अडानी जी से नफरत। भगवाई पार्टी से नफरत। नागपुरी विचार से नफरत। सावरकर जी की वीरता से नफरत। हेडगेवार जी की ब्रिटिश राज को नाराज करने से नफरत से भी नफरत। गोलवालकर के हिटलर-प्रेम से नफरत। गोडसे से तो गोडसे से, उसको देशभक्त मानने वालों से भी नफरत। और तो और, तब इंग्लेंड के ताज से और अब अमरीका के राज से भी नफरत। मनु से नफरत, मनुस्मृति से नफरत। भारत की, हिंदुओं की, ब्राह्मणों की, सर्वश्रेष्ठता से नफरत। मोदी जी के नये हवाई जहाज से, मोदी जी की नयी संसद से, मोदी जी की मन की बात से, मोदी की पल-पल बदलती पोशाक से, मोदी के टेलीप्रॉम्पटर तक से नफरत। और तो और फेक न्यूज और मोदी जी के आइटी सेल तक से नफरत। और उस पर दावा ये कि भगवाइयों ने ही नफरत का बाजार खोल रखा है और ये तो मोहब्बत की दुकान लगा रहे हैं!
बेचारे भगवाई तो ले-देकर मुसलमानों से, ईसाइयों से, कम्युनिस्टों से और कभी-कभार दलितों भर से नफरत करते हैं और हां, नेहरू-वेहरू से भी तथा और पीछे इतिहास में मुगलों वगैरह से। बाकी सब से तो वो मोहब्बत ही करते हैं। इन सेकुलरवालों के चक्कर में अब तक नफरत झेलते रहे गोडसे से लेकर सावरकर तक से मोहब्बत। बल्कि उन पर तो इल्जाम ही अंगरेजों से तब मोहब्बत करने का है, जब पूरा देश अंगरेजों से नफरत में पागल हो गया था और यह भूल चला था कि हम तो वसुधैव कुटुम्बकम वाले हैं। और हां उस सेंगोल से भी मोहब्बत, जिसे नेहरू जी ने अलमारी में बंद करा के, म्यूजियम में डलवा दिया था। वाकई कलियुग है। जो खुद नफरत का मॉल सजाए बैठे हैं, असली मोहब्बत करने वालों को नफरत का सौदागर बता रहे हैं। कुछ याद आया; आडवाणी जी से जब ये नफरत करते थे, उस जमाने में असली धर्मनिरपेक्षों को ये छद्म-धर्मनिरपेक्ष, सांप्रदायिक कहा करते थे; ठीक वैसे ही।
सो भगवाइयों ने झट पकड़ लिया — यह तो नया लव जेहाद है। ऊपर-ऊपर से मोहब्बत, भीतर से जेहाद। खुला एलान कर दिया है — मोहब्बत की ऐसी दुकान खुलने नहीं देंगे और खुल भी जाए तो चलने नहीं देंगे। जवाब में इतनी नफरत फैलाएंगे, इतनी नफरत फैलाएंगे, कि नफरत की बाढ़ में मोहब्बत की दुकान ही बह जाएगी। ना रहेगा मोहब्बत का नाम और न होगा कोई लव जेहाद, न नया, न पुराना। जो बचेगा, वही नया इंडिया होगा।
(इस व्यंग्य स्तंभ के लेखक वरिष्ठ पत्रकार और ‘लोक लहर’ के संपादक हैं।)