आलेख : राजेंद्र शर्मा
मणिपुर को जलते हुए, इन पंक्तियों के लिखे जाने तक चालीस दिन हो चुके हैं। पर गंभीर हिंसा का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है। मरने वालों की संख्या सौ से ऊपर निकल चुकी है। विशाल संख्या में गांवों, गिरजाघरों, अन्य ईसाई संस्थाओं, मंदिरों आदि को आगजनी तथा तोड़-फोड़ का निशाना बनाया गया है और सरकारी तथा निजी संपत्तियों का बहुत भारी नुकसान हुआ है। खुद सरकारी आंकड़ों के अनुसार, हिंसा के चलते इस छोटे से राज्य में 50,698 लोग अपने घरों से विस्थापित होकर, 349 राहत शिविरों में शरण लेने पर मजबूर हुए हैं। इसके बावजूद, हर रोज नये हमलों तथा मौतों की खबरें आ रही हैं। दूसरी ओर, राज्य के कुकी, नगा तथा अन्य आदिवासी समुदायों से जुड़े लोग इस दौरान राजधानी दिल्ली में जंतर-मंतर पर बार-बार प्रदर्शन करते रहे हैं और राज्य में आदिवासी अल्पसंख्यकों के खिलाफ और भाजपा की राज्य सरकार के संरक्षण में, हत्यारे हमलों व आदिवासी गांवों के जलाए जाने से लेकर, जनसंहार तक के आरोप लगाते रहे हैं।
3 मई को मणिपुर में हिंसा का जैसा विस्फोट हुआ था, उसकी भयावहता की तस्वीरों ने पूरे देश को हिला दिया था। सोशल मीडिया में वायरल हुई तस्वीरों में बाकायदा युद्घ जैसा दृश्य नजर आता था, जिसमें बाकायदा सेना द्वारा प्रयोग किए जाने वाले हथियारों का प्रयोग किया जा रहा था। ये तस्वीरें मणिपुर ही नहीं, पूरे उत्तर-पूर्व में, भाजपा के बढ़ते पैमाने पर सत्ता पर काबिज होने के साथ, पहले काफी अर्से तक अशांत रहे इस क्षेत्र में, नरेंद्र मोदी के राज में, विभाजनों के कम होने और तमाम विभिन्नताओं व टकरावों के इतिहास के बावजूद, एकीकरण के बढ़ने की बड़े जतन और भारी प्रचार से बनाई गई छवि को ध्वस्त करती थीं। इसके बावजूद, वर्तमान सरकार के नंबर वन ही नहीं, नंबर टू ने भी, जिनके पास देश के गृहमंत्री की भी जिम्मेदारी है, कर्नाटक में अपने चुनाव प्रचार को प्राथमिकता देते हुए, मणिपुर की तरफ ध्यान ही नहीं दिया।
बहरहाल, शुरूआत में अगर बहुत से लोगों ने इसे हालात को संभालने के लिए, अपनी पार्टी की राज्य सरकार तथा उसके दूसरे कार्यकाल के लिए चुने गए मुख्यमंत्री बीरेन सिंह पर ही भरोसा करने और खुद कर्नाटक का चुनाव जीतते पर ही पूरा ध्यान लगाने की, राजनीतिक गैर-जिम्मेदारी का ही मामला माना भी होगा, तो उनकी भी यह गलतफहमी तब दूर हो गई, जब कर्नाटक के चुनाव और उसके नतीजे आने के बाद भी कई हफ्ते तक और वास्तव में हिंसा फूटने का एक महीना पूरा होने तक, केंद्रीय गृहमंत्री को मणिपुर का दौरा करने की फुर्सत नहीं हुई। यह तब था, जबकि मणिपुर के आदिवासी अल्पसंख्यक देश की राजधानी में बार-बार प्रदर्शन कर, अपने साथ ज्यादतियों की सच्चाई, केंद्र सरकार के संज्ञान में ला रहे थे। यह किसी अनदेखी या चूक का नहीं, सोची-समझी चुप्पी का मामला था। चुप्पी का सार यह है कि बहुसंख्यकों को अल्पसंख्यकों को पक्का सबक सिखाने के लिए, कुछ समय तक हिंसा की छूट होगी। गुजरात में 2002 में तीन दिन की छूट दी गई थी और मणिपुर का नंबर आते-आते इस छूट की जरूरत महीने भर तक पहुंच गई है।
और महीने भर बाद, जब अमित शाह ने इम्फाल का दो दिन का दौरा किया और सभी से शांति की अपील करने के अलावा हिंसा के कारणों की न्यायिक जांच कराने तथा हिंसा के छ: प्रमुख प्रकरणों की छानबीन के लिए एसआईटी का गठन करने का ऐलान किया, तो उससे हालात में कोई बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ा लगता है। हां! इतना जरूर हुआ कि शाह के दौरे के साथ, पुलिस व अन्य रक्षा बलों से छीने गए हथियारों का समर्पण किए जाने की अपील किया जाना शुरू हुआ और इसके साथ ही हथियारों की तलाश में छापामारी का जो सिलसिला शुरू हुआ, उसमें कुछ सौ हथियार जरूर रक्षा बलों के पास लौट आए।
लेकिन, कुल मिलाकर शाह का यह दौरा भाजपायी मुख्यमंत्री के नेतृत्व में प्रशासन पर जनता का और खासतौर पर आदिवासी अल्पसंख्यकों का भरोसा जमाने में नाकाम रहा, जो मुख्यमंत्री तथा पुलिस व अन्य रक्षा बलों पर बहुसंख्यक मैतेई समुदाय से जुड़े अतिवादियों को संरक्षण देने के आरोप लगाते रहे हैं। और ये आरोप निराधार भी नहीं हैं, जिसका सबूत मुख्यमंत्री का कुकी आदिवासियों को ‘आतंकवादी’ से लेकर ‘विदेशी म्यांमारवासी’ तक करार देना है। हैरानी की बात नहीं है कि शाह के दौरे के हफ्ते भर बाद भी, हिंसा की बड़ी वारदातें बदस्तूर जारी हैं, बल्कि मुख्यत: पहाड़ी इलाकों में रहने वाले कुकी व अन्य आदिवासी अब इसकी शिकायतें कर रहे हैं कि हथियार जमा करने के नाम पर इकतरफा तरीके से उन्हें निरस्त्र किया जा रहा है और उनके लाइसेंसी हथियार भी जब्त किए जा रहे हैं, जबकि जंगल में रहने इन आदिवासियों के लिए ये हथियार बहुत ही जरूरी हैं।?
जाहिर है कि हिंसा का यह विस्फोट भी कोई एकाएक ही नहीं हो गया है। वास्तव में मणिपुर, उत्तर-पूर्व के अन्य ज्यादातर राज्यों की ही तरह, विभिन्न जातीयताओं-इथनिक समूहों का गढ़ रहा है। इन समूहों के बीच भी संवाद का कम और विवाद का रिश्ता ही ज्यादा रहा है। फिर भी, 1980 के दशक में जब पूरे मणिपुर को अशांत क्षेत्र घोषित कर, उस पर अफस्पा लगाया गया था, उस दौर में मणिपुर में बसे विभिन्न समुदायों के बीच ज्यादा तीखा टकराव नहीं था। उल्टे उनका सामूहिक विरोध, देश की केंद्रीय सत्ता से ही था। बहरहाल, 2017 के विधानसभाई चुनाव में, कांग्रेस से कम सीटें पाने के बावजूद जब जोड़-तोड़ और खरीद-फरोख्त से भाजपा की सरकार बन गई, उसके बाद से असम को छोड़कर उत्तर-पूर्व के इस अकेले राज्य में, जहां बहुसंख्यक मैतेई समुदाय है जिसे हिंदुत्व की दुहाई से प्रभावित किया जा सकता था, राष्ट्रीय मुख्यधारा के नाम पर, मैतेई समुदाय का हिंदूकरण और एकीकरण के नाम पर, मुख्यत: पहाड़ी इलाकों में बसे कुकी, नगा व अन्य आदिवासी समुदायों के परंपरागत विरोध को तीखा करने के लिए सैन्यीकरण तेज कर दिया गया।
इस क्रम में एक ओर तो बहुसंख्यक मैतेई समुदाय के लिए और खासतौर पर उसके धर्म तथा संस्कृति के लिए, ईसाई और वास्तव में गैर-ईसाई भी आदिवासियों को ‘खतरा’ बताकर, मैतेई युवाओं को बजरंग दल आदि के तुल्य उग्र, हमलावर संगठनों में संगठित किया जा रहा था और दूसरी ओर, घाटी में बसे अपेक्षाकृत संपन्न व बेहतर सुविधाएं पा रहे मैतेई समुदाय के मध्य वर्ग को, जिसके पक्ष में तरक्की के अवसरों के असंतुलन को भाजपा के राज ने और भी तेजी से बढ़ाया था, यह समझाया जा रहा था कि राज्य में जमीनों के नियंत्रण का संतुलन उनके प्रति अन्यायपूर्ण है और उनकी आगे तरक्की के लिए इस संतुलन को बदलना जरूरी है।
याद रहे कि इम्फाल घाटी के राज्य कुल भूभाग के लगभग 10 फीसद में, मैतेई समुदाय से जुड़ी राज्य की 52 फीसद से ज्यादा आबादी बसी हुई है, जबकि करीब 40 फीसद कुकी, नगा व अन्य जनजातियों की आबादी पहाड़ियों पर जिस वन क्षेत्र में रहती है, उसमें राज्य के भूभाग का 90 फीसद हिस्सा आता है। और चूंकि 1960 का भू-राजस्व कानून, वादी के भी गैर-आदिवासियों के, पर्वतीय इलाके की आदिवासियों की जमीनें लेने पर रोक लगाता है, घाटी में बसे बहुसंख्यक समुदाय को इस स्थिति के खिलाफ गोलबंद करना तब तो और भी आसान था, जब यह गोलबंदी विकास/ निवेश की जरूरत की लफ्फाजी की आड़ में की जा रही हो। भाजपा, विकास के नाम पर जमीनों की बिक्री बाहर वालों के लिए खुलवाने का ऐसा ही खेल उत्तरी भारत में हिमाचल तथा उत्तराखंड जैसे राज्यों में भी खेल चुकी है, जिसके परिणाम सत्यानाशी हुए हैं और अब जम्मू-कश्मीर में खेल रही है।
इसी की पृष्ठभूमि में, जब मणिपुर हाईकोर्ट ने बहुसंख्यकों के आग्रहों को ही प्रतिबिम्बित करते हुए, 24 अप्रैल को राज्य सरकार को एक प्रकार से इसका निर्देश ही दे दिया कि मैतेई समुदाय को अनूसूचित जनजाति का दर्जा देने के लिए केंद्र सरकार को सिफारिश भेजे, तो लगातार बढ़ाए जा रहे तनावों और जाहिर है कि दोनों ओर से उग्र से उग्रतर होती गोलबंदियों ने, अचानक तनाव को विस्फोटक बिंदु तक पहुंचा दिया। यहां से हाईकोर्ट के निर्देश के खिलाफ 3 मई की विशाल विरोध रैली और रैली पर दूसरी ओर से हुए हमलों और फिर जवाबी हमलों तक का रास्ता ज्यादा लंबा नहीं था। जाहिर है कि बहुसंख्यक उग्र दस्तों द्वारा बड़े पैमाने पर पुलिस व रक्षा बलों के शस्त्रागारों के लूटे जाने ने, मैतेई प्रधान सरकार के प्रति आदिवासियों के अविश्वास को और बढ़ा दिया। वास्तव में इसमें कुछ न कुछ हिस्सा, भाजपा की केंद्र सरकार के प्रति अविश्वास का भी था, जिसने अल्पसंख्यकों को बचाने के लिए अपने मुख्यमंत्री पर अंकुश लगाने की कोई कोशिश नहीं की थी। उल्टे उन्हें इसकी भी आशंका रही होगी कि भाजपा की केंद्र सरकार, अनुसूचित जाति के रूप में उन्हें हासिल संरक्षणों को छीनने के लिए, मैतेई समुदाय के पक्ष में ही फैसला करेगी।
बेशक, सुप्रीम कोर्ट ने मणिपुर हाईकोर्ट के निर्णय को सख्ती से खारिज कर के, आदिवासी अल्पसंख्यकों की आशंकाओं को कुछ कम किया है और उन्हें इसका भरोसा दिलाया है कि वर्तमान भारतीय व्यवस्था में उनकी बात भी कहीं सुनी जाएगी। लेकिन, इसके बावजूद कि आदिवासी अल्पसंख्यकों के अविश्वास के केंद्र में भाजपायी मुख्यमंत्री तथा उनका पुलिस व रक्षा बल है, मोदी-शाह की केंद्र सरकार उन्हें न्याय का भरोसा नहीं दिला पाई है। इसी का सबूत है कि दिल्ली में लौटने के बाद अमित शाह ने जिस शांति समिति का गठन करने की घोषणा की है, उसकी अध्यक्षता राज्यपाल अनुसुइया उइके को सौंपे जाने के बावजूद, कुकी समुदाय के ज्यादा प्रतिनिधियों ने उसमें मुख्यमंत्री बीरेन सिंह और उसके समर्थकों के रहते हुए, शामिल होने से इंकार ही कर दिया है। उनकी नजरों में सबसे ज्यादा आपत्तिजनक इस कमेटी में कोआर्डिनेशन कमेटी ऑन मणिपुर इंटिग्रिटी (सीओसीओएमआई) को स्थान दिया जाना है, जिसने कूकियों के खिलाफ युद्घ की-सी घोषणा ही कर रखी है।
इन हालात में मणिपुर में जल्द शांति लौटने के तो कोई आसार नहीं है। उल्टे खतरा इसका है कि मोदी-शाह की सरकार, अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने बजाय, उनके दमन और बहुसंख्यक समुदाय के अनुमोदन के रास्ते, सैन्य बल के जरिए ही वहां शांति दिखाने की कोशिश कर सकती है, जैसा कि तीन साल से ज्यादा से जम्मू-कश्मीर में कर रही है। यह कोशिश तो मणिपुर में भी खास कामयाब तो शायद ही हो, पर इस राज्य में विभिन्न इथनिक ग्रुपों के बीच के पुराने झगड़ों को फिर से उग्र करने और उनके बीच की खाई को और चौड़ा करने का काम जरूर कर सकती है। किसी ने सही कहा है —असली टुकड़े-टुकड़े गैंग तो आज देश में सत्ता में बैठा हुआ है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक पत्रिका ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)