संसद के इस बार के बजट सत्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सदन में नेहरू जी का नाम लिया और इस ओर ध्यान दिलवाया कि वे ऐसा कर रहे हैं। उन्होंने नेहरूजी को लेकर गलतबयानी भी की। लेकिन ये आजादी के 75 साल वाला भारत है, जहां आजादी का अमृतकाल मनाया जा रहा है, और उन लोगों का तिरस्कार जारी है, जिनकी वजह से आजादी का अमृत चखने मिला। इस अमृत में सांप्रदायिकता, घृणा और कट्टरता का जहर मिला दिया गया है। इस जहर के प्रभाव में आने से अब बहुत से लोगों को तकलीफ भी नहीं होती कि देश के महापुरुषों का अपमान सत्ता के स्वार्थ के लिए क्यों हो रहा है। अपने पुरखों के अनादर से क्या हम देश की नींव को कमजोर कर रहे हैं, इस बात पर भी चिंता की कोई लहर नहीं दिखती। मगर अब सिंगापुर की संसद में वहां के प्रधानमंत्री ने कुछ ऐसा कहा है कि जो भारत में लोकतंत्र की समझ विकसित करने के लिए भी प्रासंगिक है। खास बात ये है कि सिंगापुर के प्रधानमंत्री ली सीन लूंग ने भारत के पहले प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू का नाम अपने भाषण में लिया और पूरे आदर के साथ लिया।
सिंगापुर में पिछले कुछ समय से वर्कर्स पार्टी के एक सांसद द्वारा संसद में झूठ बोलने का मामला गर्माया हुआ था। इस पर बहस के दौरान ‘देश में लोकतंत्र को कैसे काम करना चाहिए ‘ इस विषय पर प्रधानमंत्री ली सीन लूंग ने कहा कि अधिकतर देश उच्च आदर्शों और महान मूल्यों के आधार पर स्थापित होते हैं और अपनी यात्रा शुरू करते हैं। हालांकि, अक्सर संस्थापक नेताओं और अग्रणी पीढ़ी से इतर, दशकों और पीढ़ियों में धीरे-धीरे चीजें बदलती हैं। उन्होंने कहा, ”स्वतंत्रता के लिए लड़ने और जीतने वाले नेता अक्सर जबरदस्त साहस, महान संस्कृति और उत्कृष्ट क्षमता वाले असाधारण व्यक्ति होते हैं। वे जनता और राष्ट्रों के नेताओं के रूप में उभरे भी। डेविड बेन-गुरियन, जवाहर लाल नेहरू ऐसे ही नेता हैं। ‘ ‘ अपने भाषण में प्रधानमंत्री ली ने कहा कि ‘हमारा लोकतंत्र परिपक्व हो सकता है, गहरा हो सकता है और अधिक लचीला हो सकता है, क्योंकि शासित और शासी दोनों सही मानदंडों और मूल्यों को गले लगाते हैं और व्यक्त करते हैं। सिंगापुर फलता-फूलता रहता है। लेकिन अगर हम खुद को यहां मानकों को ढीला करने दें, एक झूठ को नज़रअंदाज़ कर दें, बस इस बार-पुण्य चक्र डगमगाएगा और विफल होने लगेगा। ‘
ये बातें उन्होंने सिंगापुर के संदर्भ में कही हैं, लेकिन यही पैमाना भारत पर भी खरा उतरता है। फर्क इतना ही है कि हम लोकतंत्र के मानकों को ढीला होने दे रहे हैं और एक ही नहीं, सैकड़ों झूठ नजरंदाज कर रहे हैं। इसलिए हमारे राजनैतिक ही नहीं, सामाजिक जीवन में भी मूल्यों का ह्रास स्पष्ट परिलक्षित हो रहा है। सरकार करोड़ों रुपए खर्च कर बापू की डेढ़ सौवीं जयंती मना सकती है, लेकिन राष्ट्रपिता के अपमान को, उनके हत्यारे को महिमामंडित करने वालों पर सख्ती नहीं बरत सकती है। गोडसे को महान बताने वाली प्रज्ञा ठाकुर को भाजपा ने टिकट दिया, सांसद बनाया। गोडसे का मंदिर बनाकर पूजा की तैयारी देश में हो चुकी है। अब तक ये काम वयस्कों की ओर से हो रहे थे, अब नाबालिगों को भी इसमें भागीदार बनाया जा रहा है। इस 14 फरवरी को गुजरात के वलसाड जिले में स्कूली छात्रों के लिए ‘मेरा आदर्श नाथूराम गोडसे ‘ विषय पर भाषण प्रतियोगिता आयोजित की गई। गुजरात सरकार के युवा सेवा एवं सांस्कृतिक गतिविधि विभाग के तत्वावधान में जिलास्तरीय बाल प्रतिभा शोध स्पर्धा के तहत यह प्रतियोगिता कुसुम विद्यालय में हुई, जिसमें लगभग 25 सरकारी और निजी स्कूलों के कक्षा पांच से आठवीं तक की आयुवर्ग के छात्रों ने भाग लिया। कुसुम विद्यालय के एक छात्र ने इस भाषण प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था और पुरस्कार भी जीता था। लेकिन सोशल मीडिया पर प्रतियोगिता के विषय की व्यापक निंदा हुई। जिसके बाद सरकार ने ‘युवा विकास अधिकारी को निलंबित कर दिया, इसके साथ ही कार्यक्रम के आयोजकों ने इस प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार जीतने वाले छात्र को ट्रॉफी वापस करने के निर्देश दिए। खबर है कि जिस छात्र को पुरस्कार लौटाने के लिए कहा गया है, उसने गमगीन होते हुए कहा, ‘मैंने इसके लिए बहुत मेहनत की थी और मेरे शिक्षकों को भी मुझ पर विश्वास था। यह ठीक नहीं है। ‘
12-14 साल के बच्चे के लिए जीता हुआ पुरस्कार लौटाने पर दुखी होना स्वाभाविक है। लेकिन उस बच्चे को किस ओर पुरस्कार जीतने के लिए प्रेरित किया गया, यह चिंता की बात है। नाथूराम गोडसे को आदर्श बताने के लिए महात्मा गांधी को गलत ठहराया ही गया होगा और इसके लिए इतिहास को कितने गलत तरीके से उसे पढ़ाया गया होगा, यह और अधिक चिंताजनक है। इस बच्चे की तरह इस वक्त देश के करोड़ों बच्चों और युवाओं को इसी नफरत के लिए तैयार किया जा रहा है। सोच समझकर, योजनाबद्ध तरीके से भारत की संस्कृति, उदारता भरी विरासत और इतिहास के लिए जहर बोया जा रहा है। जिसके दुर्गंध भरे फल अभी से नजर आने लगे हैं। 14 फरवरी को ही बिहार के मोतिहारी में बापू की आदमकद मूर्ति को तोड़ दिया गया, केवल मूर्ति के पैर बचे रह गए। पुलिस का कहना है कि आरोपी ने ये काम नशे की हालत में किया। मगर इस दलील से अपराध को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। बिहार में शराबबंदी है, फिर भी कोई नशा करके सार्वजनिक स्थल पर लगी मूर्ति को तोड़ दे, यह भी शर्मिंदगी का ही विषय है। मोतिहारी के बाद अब पूर्वी चंपारण के तुरकौलिया में गांधीजी की मूर्ति पर शराब के रैपर और नाक से माथे तक सिंदूर लगाने का मामला सामने आया है। तुरकौलिया में महात्मा गांधी चार अगस्त 1917 को आए थे और ये वही जगह है, जहां ब्रिटिश हुकूमत के दौरान नील की खेती करने वाले किसानों को नीम के पेड़ से बांधकर पीटा जाता था।
चंपारण में अंग्रेजों के खिलाफ सत्याग्रह के दम पर गरीब किसानों के हक में गांधीजी खड़े हुए थे। उनके इस आत्मबल से आजादी की लड़ाई को भी नयी ताकत और दिशा मिली थी। गांधीजी का नैतिक साहस आज भी अन्याय के खिलाफ लड़ने का माद्दा देता है। लेकिन शायद हुक्मरान नहीं चाहते कि जनता गांधीजी के विचारों से ताकत पाए और हक की आवाज उठाए। इसलिए गांधी प्रतिमाओं के खंडन और गोडसे के महिमामंडन को बढ़ावा दिया जा रहा है। नेहरू-गांधी के अपमान से शासकों का फायदा हो सकता है, मगर जनता खूब घाटे में जा रही है, ये बात जल्द समझ लेनी चाहिए।
सर्वमित्रा सुरजन