पंजाब में वोट पड़ गए। क्या होगा किसी को नहीं पता। 10 मार्च ही बताएगी। मगर इस पंजाब चुनाव ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को निपटा दिया।
राजनीति भी अजीब शय है। जिस दांव से आप आते हैं, उसी दांव से चित भी हो जाते हैं। केजरीवाल 2013 में इसी तरह सब पर कीचड़ उछालकर दिल्ली में सत्ता पाने में सफल हुए थे। “सब मिले हुए हैं जी!” उनका प्रिय डायलग हुआ करता था। हर एक के खिलाफ झूठा प्रचार, अफवाहें, चरित्रहनन। किसी को नहीं छोड़ा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी नहीं। 9 साल उनकी सरकार को और 8 साल उस समय की उनकी सहयोगी भाजपा को हो रहे हैं। मगर आज तक मनमोहन सिंह और सोनिया पर एक मामला नहीं बना पाए। मगर उस समय पूरी अन्ना टीम इस तरह प्रचार कर रही थी कि बस लोकपाल बना और यह सब अंदर। मगर न लोकपाल बना और अंदर करना तो बहुत बड़ी बात किसी के खिलाफ एक जांच तक बिठाने की हिम्मत नहीं कर पाए। क्यों? क्योंकि जो आरोप लगे थे वे सब राजनीति से प्रेरित थे और मिथ्या थे।
वक्त ने करवट ली। जो कभी साथ बैठकर कांग्रेस के खिलाफ योजनाएं बनाते थे कि आज कौन सा आरोप लगाया जाए, कौन सी अफवाह फैलाई जाए, कौन सी कहानी ज्यादा चलेगी? मीडिया के अपने दोस्तों से पूछते थे कि किसके खिलाफ अन्ना से बुलवा दें? क्या चलाना है आज? वे ही आपस में एक दूसरे से भिड़ गए।
और जैसा कि जासूसी उपन्यासों में बताया जाता है कि जब गेंग के सदस्य आपस में एक दूसरे से लड़ते हैं तो वह सबसे खराब और गिरी हुई श्रेणी की लड़ाई होती है। ये लोग शायद जासूसी उपन्यास पढ़ते भी बहुत हैं। उसी तरह के आरोप, षडयंत्र, महाराष्ट्र से एक व्यक्ति को लाकर दिल्ली में दूसरा गांधी बताकर भूख हड़ताल पर बिठाने के सारे काम इन लोगों ने वैसे ही किए। और फिर जब उपन्यास का एंटी क्लाइमैक्स आया तो इनमें से ही एक कुमार विश्वास ने दूसरे जो सबसे ज्यादा सफल हो गए थे केजरीवाल पर देशद्रोह से लेकर देश तोड़ने के सब आरोप लगा दिए।
ठीक वही दांव मारा जो इन दोनों और बाकी सबने मिलकर कांग्रेस पर मारा था। कांग्रेस की सरकार पहले दिल्ली में और फिर यूपीए की केन्द्र में चली गई। मगर यहां तो पंजाब में केजरीवाल केवल हसीन सपने ही देखते रह गए और चुनाव से ठीक पहले कुमार विश्वास ने न केवल उनकी पंजाब की हवा बिगाड़ दी बल्कि दिल्ली में भी उनकी गद्दी हिला दी।
पता नहीं कुमार विश्वास का आरोप कि केजरीवाल पंजाब को एक अलग देश बनाकर उसके पहले प्रधानमंत्री बनने की योजना बना रहे थे कितना सही है। मगर जैसा कि उपर लिखा कि यह जासूसी उपन्यासों पर विश्वास करने वाले लोग कुछ भी सोच सकते हैं। विश्वसनीयता न केजरीवाल की है और न कुमार विश्वास की।
मगर इन लोगों ने जो सबसे खराब काम किया कि झूठ की चटपटी बातों का जनता को नशा चढ़ा दिया। मीडिया ने इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। इसलिए आज जब कुमार विश्वास ने कहा कि भेड़िया, भेड़िया तो बहुत लोगों ने यकीन कर लिया। और नतीजा यह हुआ कि केजरीवाल की पतंग गिरना शुरू हो गई।
खुद केजरीवाल, कुमार विश्वास के आरोपों का सख्ती से जवाब नहीं दे पाए। ऐसे ही कमजोर सा प्रतिवाद किया। गंभीर आरोप को मजाक बनाने की कोशिश करते हुए कहा कि मैं तो स्वीट आतंकवादी हूं। और सबसे आश्चर्यजनक कि उनकी पार्टी में कोई मजबूती से उनके साथ खड़ा नहीं दिखा। तीन में से दो जो राज्यसभा सदस्य बनाए हैं उनका तो नाम भी किसी को याद नहीं रहता। उनका बोलना तो किसी ने सुना ही नहीं। मगर बाकी भी कोई ऐसे गंभीर और साथ में बेहूदा आरोपों के जवाब में सामने नहीं आया।
यहां यह बात याद रखना चाहिए कि टिट फार टेट ( जैसे को तैसा) देश के बड़े परिदृश्य और आम जनता के व्यापक हितों को देखते हुए कोई अच्छी नीति नहीं है। ये व्यक्तिगत मामलों की व्यवहारिक नीति हो सकती है मगर बड़ी सोच, बड़े काम करने वालों के लिए यह एक नकारात्मक लाइन ही है।
कुमार विश्वास क्या कर रहे हैं? वही जो अरविन्द केजरीवाल और इस गुट के बाकी सारे लोग 2011 से कर रहे थे। किसी पर भी कोई भी आरोप लगा दो और फिर उससे भी ज्यादा से जोर से जवाब मांगो। केजरीवाल ने वन टू वन (दो लोगों की आपसी बातचीत) में क्या कहा। किसी को नहीं मालूम। हो भी नहीं सकता। मगर दोनों में से एक व्यक्ति कह रहा है कि यह कहा। और आज नहीं। बहुत पहले। कितने? पांच साल पहले। भाई जब इतनी खतरनाक बात थी तुमने तब क्यों नहीं बताई? राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़ा कोई मुद्दा, जानकारी छुपाना भी अपराध है। नैतिकता की तो हम बात ही नहीं कर रहे। इन लोगों से नैतिकता की उम्मीद करना अपने आप में मजाक है। मगर पंजाब तोड़ने जैसी खतरनाक बात आपसे कोई कर रहा है। और आप पांच साल चुप रहे! इसी पंजाब को बनाए रखने के लिए इन्दिरा गांधी ने अपनी जान कुर्बान कर दी। देश की सुरक्षा से जुड़ी सूचना छुपाना बड़ा अपराध है। हम यहां और तकनीकी बातॆ में जा ही नहीं रहे कि अगर खालिस्तान बना रहे थे तो वहां एक हिन्दू (केजरीवाल) को प्रधानमंत्री कैसे बना लेंगे?
यहां राजनीति के आदर्श नियम बताना उद्देश्य नहीं हैं। बस यह बता रहे हैं कि इन लोगों की राजनीति क्या है? गांधी जी ने साधनों की बात क्यों की थी? इन लोगों की भाषा क्या है? चिंटू, बौना और भी न जाने क्या क्या? हम तो सुनते नहीं हैं। अन्ना हजारे इनके गुरु शरद पवार जैसे बड़े नेता के गाल में चांटा मारने पर क्या कहते हैं? एक गाल पर क्यों? दूसरे पर क्यों नहीं मारा? मनमोहन सिंह जैसे सज्जन और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री के लिए चोर चोर के नार लगाना। 2011 के बाद देश की राजनीति में सभ्यता, परस्पर सम्मान, लिहाज सब खत्म कर दिए। आप और भाजपा के नेताओं ने होड़ करके एक से एक क्रूर, असभ्य शब्दों का इस्तेमाल किया। यहां तक की अभी आसाम के मुख्यमंत्री हिमंताबिस्वा सरमा मां की गाली तक उतर आए।
नतीजा आज एक सबसे बड़ा वाला खुद अपने बनाए जाल में ही फंस गया। दूसरे भी इसी तरह फंसेंगे। आडवानी को किसी और ने नहीं मारा। खुद उनके साथ के लोगों, शिष्यों ने यह दुर्दशा की। अभी दो तीन महीने बाद ही राष्ट्रपति के चुनाव हैं। आडवानी अभी भी ललचाई निगाहों से उधर देख रहे हैं। झूठ, नफरत, विभाजन की राजनीति की शुरूआत उन्होंने ही की थी। अपने ही लोगों में यह योग्यता काम नहीं आई। और बहुत अपमानित ढंग से किनारे कर दिए गए।
नफरत की राजनीति का यह यह अनिवार्य परिणाम है। एक नफरती को दूसरा बड़ा नफरती निपटा देता है। आज कुमार विश्वास को बड़ा समर्थन मिल गया। कांग्रेस और भाजपा दोनों का। केन्द्र सरकार ने वाय केटेगरी की सुरक्षा दे दी। मगर यह सब नकली जिरह बख्तर हैं। असली रक्षा कवच होता है आपके विचार। सत्य की ताकत।
हुई मुद्दत की गालिब मर गया पर याद आता है! गांधी नेहरू की प्रो पिपुल (जन हितकारी) राजनीति। पचहत्तर साल हो रहे हैं। पांच पीढ़ियां बदल गईं, मगर गांधी को आज भी गाली देना पड़ती है। प्रतिमा तोड़ना पड़ती है। नेहरू की तारीफ वहां की संसद में सिंगापुर के प्रधानमंत्री करते हैं।
यह प्रेम की, सत्य की और आम लोगों के लिए की गई राजनीति का मीठा फल है। दूसरी तरफ छल प्रपंच की राजनीति कांटे ही कांटे पैदा करती है। शुरू में जब भले लोगों को लग जाता है तो बिखेरने वाले बहुत खुश होते हैं। मगर कुछ समय बाद खुद ही चारों तरफ से अपने उगाए हुए कांटों से घिर जाते हैं। आज केजरीवाल ऐसे ही कांटों से घिर गए हैं। आगे दूसरे भी नहीं बच पाएंगे।
पंजाब में वोट पड़ गए। क्या होगा किसी को नहीं पता। 10 मार्च ही बताएगी। मगर इस पंजाब चुनाव ने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को निपटा दिया।
राजनीति भी अजीब शय है। जिस दांव से आप आते हैं, उसी दांव से चित भी हो जाते हैं। केजरीवाल 2013 में इसी तरह सब पर कीचड़ उछालकर दिल्ली में सत्ता पाने में सफल हुए थे। “सब मिले हुए हैं जी!” उनका प्रिय डायलग हुआ करता था। हर एक के खिलाफ झूठा प्रचार, अफवाहें, चरित्रहनन। किसी को नहीं छोड़ा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी नहीं। 9 साल उनकी सरकार को और 8 साल उस समय की उनकी सहयोगी भाजपा को हो रहे हैं। मगर आज तक मनमोहन सिंह और सोनिया पर एक मामला नहीं बना पाए। मगर उस समय पूरी अन्ना टीम इस तरह प्रचार कर रही थी कि बस लोकपाल बना और यह सब अंदर। मगर न लोकपाल बना और अंदर करना तो बहुत बड़ी बात किसी के खिलाफ एक जांच तक बिठाने की हिम्मत नहीं कर पाए। क्यों? क्योंकि जो आरोप लगे थे वे सब राजनीति से प्रेरित थे और मिथ्या थे।
वक्त ने करवट ली। जो कभी साथ बैठकर कांग्रेस के खिलाफ योजनाएं बनाते थे कि आज कौन सा आरोप लगाया जाए, कौन सी अफवाह फैलाई जाए, कौन सी कहानी ज्यादा चलेगी? मीडिया के अपने दोस्तों से पूछते थे कि किसके खिलाफ अन्ना से बुलवा दें? क्या चलाना है आज? वे ही आपस में एक दूसरे से भिड़ गए।
और जैसा कि जासूसी उपन्यासों में बताया जाता है कि जब गेंग के सदस्य आपस में एक दूसरे से लड़ते हैं तो वह सबसे खराब और गिरी हुई श्रेणी की लड़ाई होती है। ये लोग शायद जासूसी उपन्यास पढ़ते भी बहुत हैं। उसी तरह के आरोप, षडयंत्र, महाराष्ट्र से एक व्यक्ति को लाकर दिल्ली में दूसरा गांधी बताकर भूख हड़ताल पर बिठाने के सारे काम इन लोगों ने वैसे ही किए। और फिर जब उपन्यास का एंटी क्लाइमैक्स आया तो इनमें से ही एक कुमार विश्वास ने दूसरे जो सबसे ज्यादा सफल हो गए थे केजरीवाल पर देशद्रोह से लेकर देश तोड़ने के सब आरोप लगा दिए।
ठीक वही दांव मारा जो इन दोनों और बाकी सबने मिलकर कांग्रेस पर मारा था। कांग्रेस की सरकार पहले दिल्ली में और फिर यूपीए की केन्द्र में चली गई। मगर यहां तो पंजाब में केजरीवाल केवल हसीन सपने ही देखते रह गए और चुनाव से ठीक पहले कुमार विश्वास ने न केवल उनकी पंजाब की हवा बिगाड़ दी बल्कि दिल्ली में भी उनकी गद्दी हिला दी।
पता नहीं कुमार विश्वास का आरोप कि केजरीवाल पंजाब को एक अलग देश बनाकर उसके पहले प्रधानमंत्री बनने की योजना बना रहे थे कितना सही है। मगर जैसा कि उपर लिखा कि यह जासूसी उपन्यासों पर विश्वास करने वाले लोग कुछ भी सोच सकते हैं। विश्वसनीयता न केजरीवाल की है और न कुमार विश्वास की।
मगर इन लोगों ने जो सबसे खराब काम किया कि झूठ की चटपटी बातों का जनता को नशा चढ़ा दिया। मीडिया ने इसमें बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया। इसलिए आज जब कुमार विश्वास ने कहा कि भेड़िया, भेड़िया तो बहुत लोगों ने यकीन कर लिया। और नतीजा यह हुआ कि केजरीवाल की पतंग गिरना शुरू हो गई।
खुद केजरीवाल, कुमार विश्वास के आरोपों का सख्ती से जवाब नहीं दे पाए। ऐसे ही कमजोर सा प्रतिवाद किया। गंभीर आरोप को मजाक बनाने की कोशिश करते हुए कहा कि मैं तो स्वीट आतंकवादी हूं। और सबसे आश्चर्यजनक कि उनकी पार्टी में कोई मजबूती से उनके साथ खड़ा नहीं दिखा। तीन में से दो जो राज्यसभा सदस्य बनाए हैं उनका तो नाम भी किसी को याद नहीं रहता। उनका बोलना तो किसी ने सुना ही नहीं। मगर बाकी भी कोई ऐसे गंभीर और साथ में बेहूदा आरोपों के जवाब में सामने नहीं आया।
यहां यह बात याद रखना चाहिए कि टिट फार टेट ( जैसे को तैसा) देश के बड़े परिदृश्य और आम जनता के व्यापक हितों को देखते हुए कोई अच्छी नीति नहीं है। ये व्यक्तिगत मामलों की व्यवहारिक नीति हो सकती है मगर बड़ी सोच, बड़े काम करने वालों के लिए यह एक नकारात्मक लाइन ही है।
कुमार विश्वास क्या कर रहे हैं? वही जो अरविन्द केजरीवाल और इस गुट के बाकी सारे लोग 2011 से कर रहे थे। किसी पर भी कोई भी आरोप लगा दो और फिर उससे भी ज्यादा से जोर से जवाब मांगो। केजरीवाल ने वन टू वन (दो लोगों की आपसी बातचीत) में क्या कहा। किसी को नहीं मालूम। हो भी नहीं सकता। मगर दोनों में से एक व्यक्ति कह रहा है कि यह कहा। और आज नहीं। बहुत पहले। कितने? पांच साल पहले। भाई जब इतनी खतरनाक बात थी तुमने तब क्यों नहीं बताई? राष्ट्र की सुरक्षा से जुड़ा कोई मुद्दा, जानकारी छुपाना भी अपराध है। नैतिकता की तो हम बात ही नहीं कर रहे। इन लोगों से नैतिकता की उम्मीद करना अपने आप में मजाक है। मगर पंजाब तोड़ने जैसी खतरनाक बात आपसे कोई कर रहा है। और आप पांच साल चुप रहे! इसी पंजाब को बनाए रखने के लिए इन्दिरा गांधी ने अपनी जान कुर्बान कर दी। देश की सुरक्षा से जुड़ी सूचना छुपाना बड़ा अपराध है। हम यहां और तकनीकी बातॆ में जा ही नहीं रहे कि अगर खालिस्तान बना रहे थे तो वहां एक हिन्दू (केजरीवाल) को प्रधानमंत्री कैसे बना लेंगे?
यहां राजनीति के आदर्श नियम बताना उद्देश्य नहीं हैं। बस यह बता रहे हैं कि इन लोगों की राजनीति क्या है? गांधी जी ने साधनों की बात क्यों की थी? इन लोगों की भाषा क्या है? चिंटू, बौना और भी न जाने क्या क्या? हम तो सुनते नहीं हैं। अन्ना हजारे इनके गुरु शरद पवार जैसे बड़े नेता के गाल में चांटा मारने पर क्या कहते हैं? एक गाल पर क्यों? दूसरे पर क्यों नहीं मारा? मनमोहन सिंह जैसे सज्जन और अन्तरराष्ट्रीय ख्याति के अर्थशास्त्री के लिए चोर चोर के नार लगाना। 2011 के बाद देश की राजनीति में सभ्यता, परस्पर सम्मान, लिहाज सब खत्म कर दिए। आप और भाजपा के नेताओं ने होड़ करके एक से एक क्रूर, असभ्य शब्दों का इस्तेमाल किया। यहां तक की अभी आसाम के मुख्यमंत्री हिमंताबिस्वा सरमा मां की गाली तक उतर आए।
नतीजा आज एक सबसे बड़ा वाला खुद अपने बनाए जाल में ही फंस गया। दूसरे भी इसी तरह फंसेंगे। आडवानी को किसी और ने नहीं मारा। खुद उनके साथ के लोगों, शिष्यों ने यह दुर्दशा की। अभी दो तीन महीने बाद ही राष्ट्रपति के चुनाव हैं। आडवानी अभी भी ललचाई निगाहों से उधर देख रहे हैं। झूठ, नफरत, विभाजन की राजनीति की शुरूआत उन्होंने ही की थी। अपने ही लोगों में यह योग्यता काम नहीं आई। और बहुत अपमानित ढंग से किनारे कर दिए गए।
नफरत की राजनीति का यह यह अनिवार्य परिणाम है। एक नफरती को दूसरा बड़ा नफरती निपटा देता है। आज कुमार विश्वास को बड़ा समर्थन मिल गया। कांग्रेस और भाजपा दोनों का। केन्द्र सरकार ने वाय केटेगरी की सुरक्षा दे दी। मगर यह सब नकली जिरह बख्तर हैं। असली रक्षा कवच होता है आपके विचार। सत्य की ताकत।
हुई मुद्दत की गालिब मर गया पर याद आता है! गांधी नेहरू की प्रो पिपुल (जन हितकारी) राजनीति। पचहत्तर साल हो रहे हैं। पांच पीढ़ियां बदल गईं, मगर गांधी को आज भी गाली देना पड़ती है। प्रतिमा तोड़ना पड़ती है। नेहरू की तारीफ वहां की संसद में सिंगापुर के प्रधानमंत्री करते हैं।
यह प्रेम की, सत्य की और आम लोगों के लिए की गई राजनीति का मीठा फल है। दूसरी तरफ छल प्रपंच की राजनीति कांटे ही कांटे पैदा करती है। शुरू में जब भले लोगों को लग जाता है तो बिखेरने वाले बहुत खुश होते हैं। मगर कुछ समय बाद खुद ही चारों तरफ से अपने उगाए हुए कांटों से घिर जाते हैं। आज केजरीवाल ऐसे ही कांटों से घिर गए हैं। आगे दूसरे भी नहीं बच पाएंगे।