राजसत्ता और इसका आधुनिक स्वरूप ( भारत के संदर्भ में ) भाग (1)

दैनिक समाचार

राजसत्ता और इसका आधुनिक स्वरूप ( भारत के संदर्भ में ) भाग (1)


राज सत्ता एक ऐसी ताकत है जो हमेशा से नहीं थी . न ही समाज के बाहर से पैदा हुई, और न ही कोई दैवीय रचना है, बल्कि समाज के विकास क्रम की एक अवस्था में, समाज में ही पैदा हुई । यह अवस्था है . आदिम समाज से मनुष्य का विकास करके दास युग में प्रवेश करना, जब मानव जीवन उपयोगी चीजों को पैदा करने के लिए आवश्यक साधनों को पैदा करना, और उसका इस्तेमाल करना सीख लिया । मनुष्य ने लकड़ी व पत्थर के साधन ( हथियार ) बनाये । जिससे उत्पादन इतना बड़ा कि अब एक आदमी स्वंय अपने लिए और दूसरे के लिए पैदा करने लगा । यह कान सबसे पहले मनुष्य को तब करना पड़ा जब गर्भवती स्त्री उत्पादन करने के योग्य नहीं रह जाती, अपनी ऐसी परिस्थितियों जब खाने – पीने की वस्तुओं का आभव हो जाता रहा, तब उसे खाने – पीने . पहनने – ओढ़ने की वस्तुओं को इकटा करना पड़ता रहा ।

ऐसे ही दौर में मनुष्य का धुक्कड़ जंगली जीवन ठहराव
की स्थिति में भी आया होगा, तबतक आदमी घर बनाना और खेती करना भी सीख लिया था । यही वह अवस्था है । जब मनुष्य को बचे हुए उत्पादन के नियंत्रण की तथा पैदावार के साधनों के रख रखाव , रक्षा सुरक्षा व प्रबंधन की आवश्यकता पड़ी । तब , उस समाज ने अपने ही एक हिस्सा को पूरे समाज के लिए रक्षा सुरक्षा करने व बचे हुए उत्पादन का प्रबंधन करने का जिम्मा सौंप दिया । समाज का यही हिस्सा आगे चलकर राजसत्ता के रूप में विकसित हुआ ।

समाज का जैसे – जैसे विकास होता गया वैसे – वैसे यह राजसत्ता उत्पादन के साधनों के मालिकों के हाथ में और ज्यादा सशक्त होकर पूरे समाज पर शासन करने लगी । जब उत्पादन करने वाला उत्पादन से वंचित दास अपने दास – मालिक के विरुद्ध विद्रोह करता रहा तब सारे दास मालिक और उनकी राजसत्ता ( पुलिस . फौज , जेल आदि ) उन्हें दबाती रही . विरोधों को कुचलती रही । जिस समाज ने अपनी आवश्यकता लिए इसे पैदा किया था उसी समाज पर शासन करने लगी, और समाज से ऊपर हो गई ।

जैसे – जैसे उत्पादन के साधनों औजारों का विकास हुआ मानव श्रम ने पशुओं का इस्तेमाल कर अपने श्रम की उत्पादकता को और बढ़ा लिया । लोहे के औजारों के विकास ने खेती का और ज्यादा विकास किया त्यौ – त्यौ दस्तकारी का और उसी के साथ खेती का और विकास हुआ । उत्पादन बढ़ने से उसके व्यापार की आवश्यकता से व्यापारी वर्ग पैदा हुआ जो किसानों की पैदावार व दस्तकारों की पैदावार की अदला – बदली करता , क्रय – विक्रय करने लगा ।

तब उत्पादन के साधनों के मालिक जमींदार , सामंत , राजे , नवाबें थे, और वही पुलिस फौज रखते थे , जो दूसरे बाहरी देशों के आक्रमणों से रक्षा सुरक्षा के साथ आन्तरिक युद्धों हमलों यानी विरोधी वर्गों किसानों व दस्तकारों के विरोधों को भी दबाते कुचलते रहे थे । लिहाजा , उस व्यवस्था के भीतर उपजे विरोधों के चलते व्यापारियों उद्योगपतियों व बुद्धिजीवियों ने सबको स्वतंत्रता , बराबरी व बंन्धुत्व देने के नाम पर अपने साथ मजदूरों , किसानों को एकजुट करके निरंकुश राजशाही व सामंतशाही का राजकाज पश्चिमी यूरोप में उखाड़ फेंका, और उसकी जगह अपना पूंजीवादी राज्य व व्यवस्था कायम कर लिया । मेहनतकश वर्गों , किसानों मदूरों की कुर्बानियों से जो जनतंत्र आया उसमें सामंतवाद के मुकाबले अधिकार व जनतंत्र तो मिला लेकिन पूंजीपति वर्ग के मुकाबले मजदूरों को कोई अधिकार व जनतंत्र नहीं मिला बल्कि समाज का बहुसंख्यक मजदूर किसान शोषण , उत्पीड़न , गरीबी अबराबरी व दासता झेलता आ रहा है । आज जब यह कहा जाता है कि वर्तमान युग जनतंत्र का युग है , इसमें सबको बराबरी की अधिकार है . राजसत्ता जनता की है । तब यह धोखाधड़ी है । राजसत्ता सबकी नहीं हो सकती , समूची जनता की नहीं हो सकती । इतिहास इस बात का प्रमाण है कि उत्पादन के साधनों के मालिक वर्गों का ही समूचे उत्पादन व विनिमय पर नियंत्रण व मालिकाना होता है , वही वर्ग राजसत्ता का उपयोग अपना नियंत्रण व मालिकाना उत्पादक वर्गों पर बनाते रखने के लिए करता है ।

राजसत्ता एक दमन की मशीनरी है यानी अपने विरोधी वर्गों जैसे दासों , नूदासों , किसानों व मजदूरों के विरोधों व संघर्षों को दबाने व कुचलने का तथा शोषक वर्गों के हाथ में शोषण का हथियार है परन्तु मजदूर वर्ग जब राजसत्ता को अपने हाथ में ले लेगा ; यह मजदूर नहीं रह जाता : राजसत्ता की मदद से तमाम वर्गो व वर्ग भेदों को मिटा देगा ; तब राजसत्ता भी विलुप्त हो जायेगी ।

मार्क्सवाद – लेनिनवाद का राजसत्ता के बारे में यह सटीक विश्लेषण आज भी प्रासंगिक है । जैसे दुनियों में वैसे ही भारत में भी राजसत्ता का विकास हुआ है । भारत में इसका वर्तमान स्वरूप क्या है ? इसका चरित्र गुण क्या है ? हम चर्चा को इस विषय पर ही संकेन्द्रित कर रहे हैं । शासक वर्ग में दो परस्पर संबंधित हिस्से आते हैं , एक है- आर्थिक इकाई के रूप में समस्त उत्पादन के साधनों का मालिक पूँजीपतिवर्ग और दूसरा है- राजनीतिक व सैन्य इकाई के रूप में राजसत्ता । इस राजसत्ता के तीन अंग है ।
एक है , संसद व संसदीय सरकार
दूसरा है , कार्यपालिका और
तीसरा है , न्यायपालिका ।

जनता द्वारा चुनी हुई संसदीय सरकारे हर चुनाव बाद बदलती रहती है, क्योंकि हर चुनी हुई पार्टी अथवा पार्टियां नई सरकार बनाती है, लेकिन हर नई सरकार को पहले से चले आये संवैधानिक प्राविधानो , नियमों , कानूनों और नीतियों के अनुसार ही अपने संसदीय काम करने पड़ते हैं । अतः संसदीय सरकार में पार्टियों का बदलाव सत्ता में बदलाव का द्योतक नहीं होता, और न ही सरकार चलाने में किन्ही नियमों में बदलाव का । पार्टी चाहे कोई चुन कर आये, उसे सत्ता सरकार के पहले से बने हुए नियमों और कानूनों के अनुसार ही अपना काम करना पड़ता है ।

इन्हीं कार्यो में एक है ऐसी नीतियों , नियम कानून बनाना जो मजदूरों के लिए शोषणकारी और पूजीपतियों के लिए लाभकारी हो । जैसे आजकल देश के विकास के नाम पर बड़े – बड़े राजमार्ग बनाना , मजदूरों के कल्याण उत्थान के नाम पर श्रम कानूनों में सुधार संशोधन करके काम के घण्टे बढाना , वेतन , मजूरी कम देना आदि और औद्योगिक व्यापारिक नगर व केन्द्र बनाना व बसाना , जन साधारण से वर्षों से टैक्स व पेनाल्टी वसूल कर आर्थिक संकटों में फांसे औद्योगिक व्यापारिक एवं बैंकिंग पूंजीपत्तियों की मदद करना, लेकिन कृषि विकास व किसानों को दी जाने वाली छूट सहुलियतें काटना घटाना ।

इसके न्यायपालिका और कार्यपालिका दो अंग ऐसे है जिनके चयन या चुनाव में आम जनता से कोई सरोकार नहीं होता . सरोकार के नाम पर इतना ही होता है कि कभी – कभार जनसाधारण के लड़के पढ़ते – लिखते चयनित होकर उसमें उच्च पदो तक पंहुच जाते है , लेकिन उनकी ट्रेनिंगे एवं कानूनी व नैतिक खांचे से बना माहौल उन्हें जनसाधारण से यहाँ तक कि अपने ही सगे सम्बन्धियों व रिश्तेदारों से अलग थलग कर देता है, परन्तु ज्यादातर चयनित अफसर अधिकारी , प्रशासक , नौकरशाह उच्च ओहदेदार संभ्रान्त व धनाढ्य वर्गों से आते है । जिनकी उच्चतावादी नौकरशाहाना प्रवृत्तियों व उनके वैसे ही काम – धाम , न्याय , नैतिकता पोर – पोर से शासक वर्गों की पक्षधर एवं जनसाधारण गरीब शोषित वर्गों की विरोधी होती है ।

इसलिए इस तंत्र में चयनित होकर पहुचां हर व्यक्ति ब्रिटिश काल से अफसरशाहाना सानिध्य व ट्रेनिंग से ट्रेंड होकर जनविरोधी बनता रहा है , व बनता जाता है। ( इसी कारण तब काला अंग्रेज कहलाता था ) ।
इसका कारण ? इस तंत्र की पैदाइस व इसके विकास के इतिहास में निहित है ।

वर्तमान संसदीय सत्ता सरकार , कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का जन्म व विकास हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राज में हुआ । उस समय नौकरशाह एवं उच्च अधिकारी पुलिस , फौज के कमांडर अंग्रेज हुआ करते थे , इनका विकास व विस्तार कम्पनी राज फैलने के साथ – साथ हुआ था । इनका प्रमुख काम था , ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापारिक कारोबार को पूरे हिन्दुस्तान में फैलाना , मालगुजारी व टैक्स कर वसूलना , किसानों व दस्तकारों की लूट – पाट , दमन , उत्पीड़न करना और कम्पनी का खजाना भरना , साथ ही हिन्दुस्तान को लूटने व स्वयं धनाढ्य बनकर इंग्लैंड लौटने की अपनी इच्छापूर्ति करना । हिन्दुस्तान की ऐसी लूट – पाट की दौलत से ब्रिटिश राज पूरी दुनिया में फेलता व विकसित होता गया था । जिनके विरुद्ध हिन्दुस्तानी 1857 में और उससे पहले और बाद में 1947 तक बार – बार युद्ध लड़ते रहे थे । 1857-58 के स्वतंत्रता संग्राम एवं उसके बाद के स्वतंत्रता संग्रामों के परिणाम स्वरूप अंग्रेज शासक बार – बार राजनीतिक सुधार व समझौते 1947 तक करते रहे थे ।

फलस्वरूप (1) सरकारी नौकरियों में शासन-प्रशासन के उच्च पदों पर हिन्दुस्तानी सुशिक्षित व संभ्रांत तबके को पढ़ने का अवसर मिला । ( 2 ) हिन्दुस्तानी पूंजीपतियों व व्यापारियों को हिन्दुस्तान में उद्योग व्यापार खोलने व चलाने में हिस्सेदारियों मिलीं । साथ ही ( 3 ) राजनीतिक दलों कांग्रेस व मुस्लिम को केन्द्रीय व प्रांन्तीय विधान मण्डलों में चुन – चुनवा कर पहुचने के अधिकार व स्वतंत्रतायें मिलीं । अंग्रेजों द्वारा हिन्दुस्तान पर शासन करने हेतु उनकी बनाई कार्यपालिका व न्यायपालिका में हिन्दुस्तानियों को जज , कलेक्टर अफसर अधिकारी आदि बनने के अधिकार और वैसे ही गर्वनर कौंसिल से लेकर प्रांतीय कौंसिलो में जनप्रतिनिधि बन कर बैठने, बहस करने के अधिकार मिले थे ।

अब अगले भाग (2) में धन्यवाद

ओमप्रकाश सिंह (आजमगढ

राज सत्ता एक ऐसी ताकत है जो हमेशा से नहीं थी . न ही समाज के बाहर से पैदा हुई, और न ही कोई दैवीय रचना है, बल्कि समाज के विकास क्रम की एक अवस्था में, समाज में ही पैदा हुई । यह अवस्था है . आदिम समाज से मनुष्य का विकास करके दास युग में प्रवेश करना, जब मानव जीवन उपयोगी चीजों को पैदा करने के लिए आवश्यक साधनों को पैदा करना, और उसका इस्तेमाल करना सीख लिया । मनुष्य ने लकड़ी व पत्थर के साधन ( हथियार ) बनाये । जिससे उत्पादन इतना बड़ा कि अब एक आदमी स्वंय अपने लिए और दूसरे के लिए पैदा करने लगा । यह कान सबसे पहले मनुष्य को तब करना पड़ा जब गर्भवती स्त्री उत्पादन करने के योग्य नहीं रह जाती, अपनी ऐसी परिस्थितियों जब खाने – पीने की वस्तुओं का आभव हो जाता रहा, तब उसे खाने – पीने . पहनने – ओढ़ने की वस्तुओं को इकटा करना पड़ता रहा ।

ऐसे ही दौर में मनुष्य का धुक्कड़ जंगली जीवन ठहराव
की स्थिति में भी आया होगा, तबतक आदमी घर बनाना और खेती करना भी सीख लिया था । यही वह अवस्था है । जब मनुष्य को बचे हुए उत्पादन के नियंत्रण की तथा पैदावार के साधनों के रख रखाव , रक्षा सुरक्षा व प्रबंधन की आवश्यकता पड़ी । तब , उस समाज ने अपने ही एक हिस्सा को पूरे समाज के लिए रक्षा सुरक्षा करने व बचे हुए उत्पादन का प्रबंधन करने का जिम्मा सौंप दिया । समाज का यही हिस्सा आगे चलकर राजसत्ता के रूप में विकसित हुआ ।

समाज का जैसे – जैसे विकास होता गया वैसे – वैसे यह राजसत्ता उत्पादन के साधनों के मालिकों के हाथ में और ज्यादा सशक्त होकर पूरे समाज पर शासन करने लगी । जब उत्पादन करने वाला उत्पादन से वंचित दास अपने दास – मालिक के विरुद्ध विद्रोह करता रहा तब सारे दास मालिक और उनकी राजसत्ता ( पुलिस . फौज , जेल आदि ) उन्हें दबाती रही . विरोधों को कुचलती रही । जिस समाज ने अपनी आवश्यकता लिए इसे पैदा किया था उसी समाज पर शासन करने लगी, और समाज से ऊपर हो गई ।

जैसे – जैसे उत्पादन के साधनों औजारों का विकास हुआ मानव श्रम ने पशुओं का इस्तेमाल कर अपने श्रम की उत्पादकता को और बढ़ा लिया । लोहे के औजारों के विकास ने खेती का और ज्यादा विकास किया त्यौ – त्यौ दस्तकारी का और उसी के साथ खेती का और विकास हुआ । उत्पादन बढ़ने से उसके व्यापार की आवश्यकता से व्यापारी वर्ग पैदा हुआ जो किसानों की पैदावार व दस्तकारों की पैदावार की अदला – बदली करता , क्रय – विक्रय करने लगा ।

तब उत्पादन के साधनों के मालिक जमींदार , सामंत , राजे , नवाबें थे, और वही पुलिस फौज रखते थे , जो दूसरे बाहरी देशों के आक्रमणों से रक्षा सुरक्षा के साथ आन्तरिक युद्धों हमलों यानी विरोधी वर्गों किसानों व दस्तकारों के विरोधों को भी दबाते कुचलते रहे थे । लिहाजा , उस व्यवस्था के भीतर उपजे विरोधों के चलते व्यापारियों उद्योगपतियों व बुद्धिजीवियों ने सबको स्वतंत्रता , बराबरी व बंन्धुत्व देने के नाम पर अपने साथ मजदूरों , किसानों को एकजुट करके निरंकुश राजशाही व सामंतशाही का राजकाज पश्चिमी यूरोप में उखाड़ फेंका, और उसकी जगह अपना पूंजीवादी राज्य व व्यवस्था कायम कर लिया । मेहनतकश वर्गों , किसानों मदूरों की कुर्बानियों से जो जनतंत्र आया उसमें सामंतवाद के मुकाबले अधिकार व जनतंत्र तो मिला लेकिन पूंजीपति वर्ग के मुकाबले मजदूरों को कोई अधिकार व जनतंत्र नहीं मिला बल्कि समाज का बहुसंख्यक मजदूर किसान शोषण , उत्पीड़न , गरीबी अबराबरी व दासता झेलता आ रहा है । आज जब यह कहा जाता है कि वर्तमान युग जनतंत्र का युग है , इसमें सबको बराबरी की अधिकार है . राजसत्ता जनता की है । तब यह धोखाधड़ी है । राजसत्ता सबकी नहीं हो सकती , समूची जनता की नहीं हो सकती । इतिहास इस बात का प्रमाण है कि उत्पादन के साधनों के मालिक वर्गों का ही समूचे उत्पादन व विनिमय पर नियंत्रण व मालिकाना होता है , वही वर्ग राजसत्ता का उपयोग अपना नियंत्रण व मालिकाना उत्पादक वर्गों पर बनाते रखने के लिए करता है ।

राजसत्ता एक दमन की मशीनरी है यानी अपने विरोधी वर्गों जैसे दासों , नूदासों , किसानों व मजदूरों के विरोधों व संघर्षों को दबाने व कुचलने का तथा शोषक वर्गों के हाथ में शोषण का हथियार है परन्तु मजदूर वर्ग जब राजसत्ता को अपने हाथ में ले लेगा ; यह मजदूर नहीं रह जाता : राजसत्ता की मदद से तमाम वर्गो व वर्ग भेदों को मिटा देगा ; तब राजसत्ता भी विलुप्त हो जायेगी ।

मार्क्सवाद – लेनिनवाद का राजसत्ता के बारे में यह सटीक विश्लेषण आज भी प्रासंगिक है । जैसे दुनियों में वैसे ही भारत में भी राजसत्ता का विकास हुआ है । भारत में इसका वर्तमान स्वरूप क्या है ? इसका चरित्र गुण क्या है ? हम चर्चा को इस विषय पर ही संकेन्द्रित कर रहे हैं । शासक वर्ग में दो परस्पर संबंधित हिस्से आते हैं , एक है- आर्थिक इकाई के रूप में समस्त उत्पादन के साधनों का मालिक पूँजीपतिवर्ग और दूसरा है- राजनीतिक व सैन्य इकाई के रूप में राजसत्ता । इस राजसत्ता के तीन अंग है ।
एक है , संसद व संसदीय सरकार
दूसरा है , कार्यपालिका और
तीसरा है , न्यायपालिका ।

जनता द्वारा चुनी हुई संसदीय सरकारे हर चुनाव बाद बदलती रहती है, क्योंकि हर चुनी हुई पार्टी अथवा पार्टियां नई सरकार बनाती है, लेकिन हर नई सरकार को पहले से चले आये संवैधानिक प्राविधानो , नियमों , कानूनों और नीतियों के अनुसार ही अपने संसदीय काम करने पड़ते हैं । अतः संसदीय सरकार में पार्टियों का बदलाव सत्ता में बदलाव का द्योतक नहीं होता, और न ही सरकार चलाने में किन्ही नियमों में बदलाव का । पार्टी चाहे कोई चुन कर आये, उसे सत्ता सरकार के पहले से बने हुए नियमों और कानूनों के अनुसार ही अपना काम करना पड़ता है ।

इन्हीं कार्यो में एक है ऐसी नीतियों , नियम कानून बनाना जो मजदूरों के लिए शोषणकारी और पूजीपतियों के लिए लाभकारी हो । जैसे आजकल देश के विकास के नाम पर बड़े – बड़े राजमार्ग बनाना , मजदूरों के कल्याण उत्थान के नाम पर श्रम कानूनों में सुधार संशोधन करके काम के घण्टे बढाना , वेतन , मजूरी कम देना आदि और औद्योगिक व्यापारिक नगर व केन्द्र बनाना व बसाना , जन साधारण से वर्षों से टैक्स व पेनाल्टी वसूल कर आर्थिक संकटों में फांसे औद्योगिक व्यापारिक एवं बैंकिंग पूंजीपत्तियों की मदद करना, लेकिन कृषि विकास व किसानों को दी जाने वाली छूट सहुलियतें काटना घटाना ।

इसके न्यायपालिका और कार्यपालिका दो अंग ऐसे है जिनके चयन या चुनाव में आम जनता से कोई सरोकार नहीं होता . सरोकार के नाम पर इतना ही होता है कि कभी – कभार जनसाधारण के लड़के पढ़ते – लिखते चयनित होकर उसमें उच्च पदो तक पंहुच जाते है , लेकिन उनकी ट्रेनिंगे एवं कानूनी व नैतिक खांचे से बना माहौल उन्हें जनसाधारण से यहाँ तक कि अपने ही सगे सम्बन्धियों व रिश्तेदारों से अलग थलग कर देता है, परन्तु ज्यादातर चयनित अफसर अधिकारी , प्रशासक , नौकरशाह उच्च ओहदेदार संभ्रान्त व धनाढ्य वर्गों से आते है । जिनकी उच्चतावादी नौकरशाहाना प्रवृत्तियों व उनके वैसे ही काम – धाम , न्याय , नैतिकता पोर – पोर से शासक वर्गों की पक्षधर एवं जनसाधारण गरीब शोषित वर्गों की विरोधी होती है ।

इसलिए इस तंत्र में चयनित होकर पहुचां हर व्यक्ति ब्रिटिश काल से अफसरशाहाना सानिध्य व ट्रेनिंग से ट्रेंड होकर जनविरोधी बनता रहा है , व बनता जाता है। ( इसी कारण तब काला अंग्रेज कहलाता था ) ।
इसका कारण ? इस तंत्र की पैदाइस व इसके विकास के इतिहास में निहित है ।

वर्तमान संसदीय सत्ता सरकार , कार्यपालिका एवं न्यायपालिका का जन्म व विकास हिन्दुस्तान में ब्रिटिश राज में हुआ । उस समय नौकरशाह एवं उच्च अधिकारी पुलिस , फौज के कमांडर अंग्रेज हुआ करते थे , इनका विकास व विस्तार कम्पनी राज फैलने के साथ – साथ हुआ था । इनका प्रमुख काम था , ईस्ट इंडिया कम्पनी के व्यापारिक कारोबार को पूरे हिन्दुस्तान में फैलाना , मालगुजारी व टैक्स कर वसूलना , किसानों व दस्तकारों की लूट – पाट , दमन , उत्पीड़न करना और कम्पनी का खजाना भरना , साथ ही हिन्दुस्तान को लूटने व स्वयं धनाढ्य बनकर इंग्लैंड लौटने की अपनी इच्छापूर्ति करना । हिन्दुस्तान की ऐसी लूट – पाट की दौलत से ब्रिटिश राज पूरी दुनिया में फेलता व विकसित होता गया था । जिनके विरुद्ध हिन्दुस्तानी 1857 में और उससे पहले और बाद में 1947 तक बार – बार युद्ध लड़ते रहे थे । 1857-58 के स्वतंत्रता संग्राम एवं उसके बाद के स्वतंत्रता संग्रामों के परिणाम स्वरूप अंग्रेज शासक बार – बार राजनीतिक सुधार व समझौते 1947 तक करते रहे थे ।

फलस्वरूप (1) सरकारी नौकरियों में शासन-प्रशासन के उच्च पदों पर हिन्दुस्तानी सुशिक्षित व संभ्रांत तबके को पढ़ने का अवसर मिला । ( 2 ) हिन्दुस्तानी पूंजीपतियों व व्यापारियों को हिन्दुस्तान में उद्योग व्यापार खोलने व चलाने में हिस्सेदारियों मिलीं । साथ ही ( 3 ) राजनीतिक दलों कांग्रेस व मुस्लिम को केन्द्रीय व प्रांन्तीय विधान मण्डलों में चुन – चुनवा कर पहुचने के अधिकार व स्वतंत्रतायें मिलीं । अंग्रेजों द्वारा हिन्दुस्तान पर शासन करने हेतु उनकी बनाई कार्यपालिका व न्यायपालिका में हिन्दुस्तानियों को जज , कलेक्टर अफसर अधिकारी आदि बनने के अधिकार और वैसे ही गर्वनर कौंसिल से लेकर प्रांतीय कौंसिलो में जनप्रतिनिधि बन कर बैठने, बहस करने के अधिकार मिले थे ।

अब अगले भाग (2) में धन्यवाद

ओमप्रकाश सिंह (आजमगढ

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