रवि अरोड़ा
पंजाबी होने के नाते मैं विभाजन की दुखभरी कहानियां सुनने सुनते बड़ा हुआ हूं. मुल्क के बंटवारे में लाखों लोग मारे गए और लाखों ही विस्थापित हुए. पार्टिशन की एक एक कहानी भीतर तक हिला देने वाली है. सुनाते हुए मेरे बुजुर्ग रो दिया करते थे.
शायद यही कारण है कि फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स’ को देखकर रोने वालों की मनस्थिति मैं भली भांति समझ सकता हूं.
दरअसल हम हिंदुस्तानी हैं ही मन से इतने कोमल कि दूसरे के दुख में भी अपने दुःख जैसे गमगीन हो उठते हैं. तभी तो हमारी इन्हीं कोमल भावनाओं का राजनीतिक लोग फायदा उठाते हैं और हमारे दुःख को भी पॉलिटिकल टिशू पेपर की तरह इस्तेमाल करते हैं!
ऐसा पहले भी होता था मगर अब यह षड्यंत्र कुछ और बड़ा हो चला है.
समाज पर फिल्मों के गहरे असर को भुनाने के लिए नफरत के सौदागरों ने अपनी दुकानो में फिल्मी सौदे भी रख लिए हैं.
ऐसे ही एक सौदे का नाम है- ‘कश्मीर फाइल्स’.
चलिए नेताओं का तो काम ही दिमागों में बारूद भरना है, मगर जनता जनार्दन को क्या हुआ है ? वह कश्मीर का सच क्यों नहीं जानना चाहती ? उसकी रुचि यह पता लगाने में क्यों नहीं है कि कश्मीरी पंडितों के दर्द के असली खलनायक कौन हैं और कौन हैं जो समाधान नहीं, सिर्फ समस्या की बात करके नफरत को जिंदा रखना चाहते हैं ?
किसकी आईटी सेल से ऐसे मैसेज रोज तैयार हो रहे हैं जो हमसे मनवा कर ही छोड़ना चाहते हैं कि कश्मीर फाइल्स हमारा भूत नहीं भविष्य है ?
आखिर सिनेमा घरों में ‘जयश्रीराम’ और ‘हर हर महादेव’ के नारों का मंतव्य क्या हो सकता है ?
कोई क्यों नहीं पूछ रहा कि अब तो धारा 370 हट चुकी है, अब क्या देरी है कश्मीरी पंडितों को वापिस उनके घर भेजने में ?
कमाल है! फिल्म देख कर लौटे लोग गांधी और नेहरू को तो मां बहन की गालियां दे रहे हैं, मगर उनका गिरेबान नहीं पकड़ रहे जिनके कार्यकाल में यह भीषण नरसंहार हुआ ?
सबको पता है कि फिल्में पूरा सच नहीं बतातीं, शायद इसलिए ही इस फिल्म ने नहीं बताया कि पंडितों को भगाने वाले स्थानीय मुसलमान कम और पाकिस्तानी आतंकवादी अधिक थे. कश्मीर में पंडितों से कई गुना अधिक सिख और मुसलमान मारे गए और आज भी मारे जा रहे हैं! मगर अफसोस इन तथ्यों की कोई बात ही नहीं कर रहा.
नफरत की हवाओं को आंधी में तब्दील करने पर ही सारा जोर है.
भगवा परचम वाले तमाम राज्यों में इस फिल्म को टैक्स फ्री करने की होड़ लगी है और स्वयं मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री इस फिल्म का प्रमोशन कर रहे हैं.
पुलिस वालों को छुट्टी देकर मुफ्त फिल्म दिखाई जा रही है.
बेहद वहशियाना सीन होने के बावजूद सेंसर बोर्ड खुशी खुशी इस घातक फिल्म को रिलीज करवा रहा है!
क्या पूरे कुएं में ही भांग घोलने से कम पर नहीं मानेंगे ये लोग ?
*पता नहीं क्यों, मगर अब कभी कभी निराशा होती है.
लगता है कि देश में कोई बड़ा खतरनाक खेल खेलने की तैयारी कर ली गई है.
कदम कदम पर एक कौम को टारगेट करने के तमाम हथकंडे अपनाए जा रहे हैं.
*ताज़ा चुनावी जीत ने खुराफाती दिमागों में नफरत का डोज और बढ़ा दिया है, मगर कमाल है, जिन्हे विरोध करना चाहिए वे न केवल हताश बैठे हैं बल्कि नफरत के सौदागरों के मिशन को ही आगे बढ़ा रहे हैं ?
मांग की जा रही है कि फलां फाइल्स पर भी फिल्म बनाओ और फलां मामले पर भी सच सामने लाओ.
पता नहीं कैसी कैसी फाइल्स का जिक्र हो रहा है.
कोई कह रहा है गुजरात दंगों पर फिल्म बनाओ तो 84 के दंगों का सच उजागर करने की बात कर रहा है.
आखिर कौन कौन सी फाइल के नाम पर जहर की फसलें हम बोएंगे ? और पता नहीं झूठी और प्रोपेगेंडा वाली इन फ़िल्मों से जनता का क्या भला होगा ?
चलिए माना कि फिल्म सच्ची भी बन जायेगी मगर क्या लाभ होगा उस सच को जान कर ?
स्याह फाइलों से भरा पड़ा है हमारा इतिहास, किस किस को नंगा करोगे ?
कभी धर्म के नाम पर कभी जाति के नाम पर और कभी अमीर गरीब के नाम पर हुए हजारों साल के अन्याय को उजागर कर जख्म कुरेदने से क्या इलाज हो जायेगा ?
मरहम का काम क्या चाकू से होगा ?