सामाजिक सुधार में ज्योतिबा फुले का योगदान

दैनिक समाचार

कार्ल मार्क्स ने जब अपनी दास कैपिटल भी नहीं लिखी थी उससे पहले ज्योतिबा फुले जी ने ‘गुलामगिरी ‘और ‘किसान का कोड़ा ‘ जैसे ग्रन्थ लिख के शुद्रों और अछूतों के इतिहास का निर्माण कर दिया था ।

आधुनिक भारत के नवनिर्माण के लिए बहुत सुधारवादी आंदोलन हुए जिसमें सामाजिक और धार्मिक दो धाराए प्रमुख थी । धार्मिक कुरीतियो के सुधारवादी आंदोलनों के अग्रिम राजा राममोहन राय माने गए जो बंगाल से हिन्दू धर्म सुधारवादी आंदोलन के मुखिया माने गए , तो दूसरी तरफ शुद्र दलितों और स्त्रियों के अनुत्तरित सवालो को हल को लेके उठी जिसके नायक थे ज्योतिबा फुले ।
राजा राममोहन की सुधारवादी धारा आधुनिक शिक्षा, धार्मिक सुधार, और सामजिक कुरीतियो को लेके चली जबकि फुले की धारा हजारो सालो से दबे कुचले शुद्र , दलितों, स्त्रियों के न्याय के लिए खड़ी हुई जो ब्रह्मणवादी शोषणकारी शक्तियो को चुनौती दे रही थी ।
भूमिका दोनों धारा के नायको की महत्वपूर्ण है पर इतिहासकारो ने राजा राममोहन राय को सवर्ण होने के नाते उन्हें और उनके ब्रह्म समाज को इतिहास में बढ़ चढ़ का जगह दी जबकि महात्मा फुले को शुद्र होने के कारण इतिहास से मिटा दिया गया ।

ज्योतिबा फुले ही थे जिन्होंने शुद्र , दलितों और स्त्रियों को शिक्षा का महत्व समझाया और उनके लिए देश का पहला आधुनिक विद्यालय खोला। सवर्णों और कट्टर मुसलमानो के भारी विरोध पर भी उनके द्वारा संचालित प्रथम कन्या विद्यालय से ही पढ़ के देश की पहली मुस्लिम शिक्षिका फातिमा बेगम बनी।
फुले ने ‘ गुलामगिरी’ लिख के और उसके माध्यम से दलित मुक्ति का घोषणा पत्र तैयार किया और उसे उन्होंने अमेरिकी अश्वेत जनता को समर्पित किया , जो हाल ही में अमेरिकी समाज गुलामी प्रथा जैसी अमानवीय प्रथा से मुक्त हुआ था ।

फुले उस षड्यंत्र को समझ गए थे जिसके सहारे शोषक शक्तियां हजारो सालो से शुद्रो दलितों का शोषण किये हुए थी , वह थी अशिक्षा ।इसलिए उन्होंने पहले शिक्षा के दरवाजे ही शुद्र दलितों और स्त्रियों के लिए खोले।

ज्योतिबा फुले जी का जन्म 1827 में पूना हुआ, बचपन से जवानी तक फुले ने भारतीय समाज में शुद्र , दलित , स्त्रियों की दुर्दशा देखि और जाति का दंश झेला । इससे उनके विचारो को और गंभीरता और ठोसता का आधार मिला।, इसलिए महात्मा फुले ने ‘ मूल निवासी’ नाम की सर्वप्रथम एक नई अवधारणा को सबके सामने रखा जो शुद्र दलितों को साथ लेके चलती थी । यही विचारधारा मार्क्स ने ” सर्वहारा’ नाम से चिन्हित और विश्लेषित किया है । उनके समयकालीन विचारको और सुधारको में और फुले में स्पष्ठ अंतर था , फुले के आलावा कोई भी सवर्ण चिंतक धार्मिक, सामाजिक, वर्गीय, नस्लीय, की तर्कपूर्ण विवेचना नहीं कर पाया ।

आज विडम्बना यह है कि माली समाज ही फुले जी से अनभिज्ञ है, गली में एक माली जाति का व्यक्ति रहता है फुले के बारे में पूछने पर वह उल्टा पूछता है कि ‘ यह कौन है’ । हां उसे सभी काल्पनिक देवी देवताओं के नाम जरूर याद है और उनके प्रति श्रद्धा भाव भी। बताइये जो समाज अपने ही महापुरुषों को नही जानता ऐसे समाज का क्या हो सकता है ?

आज फुले जी की जयंती पर उन्हें कोटि कोटि नमन…

  • संजय

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