सवाल सामान्य वितरण की है

दैनिक समाचार

द्वारा : सुब्रतो चटर्जी

भारत की जी डी पी 30 ट्रिलियन हो जाए या 300 ट्रिलियन, इससे भारतीय लोगों की ग़रीबी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. सवाल धन का नहीं है, धन के आनुपातिक वितरण का है.

शोशे बाज़ी के इस युग में, कोई क्रिमिनल पृष्ठभूमि का हिंदू हृदय सम्राट हो या कोई धंधेबाज़, बेईमान, घृणित व्यापारी हो, सपने दिखाने से कोई बाज नहीं आता.

कोई ये नहीं पूछ रहा है कि जिस समय देश का औद्योगिक विकास नकारात्मक है, बेरोज़गारी पिछले चालीस सालों में सबसे ज़्यादा है, 2016 में हुए नोटबंदी के बाद अब तक क़रीब 30 करोड़ लोगों को ग़रीबी रेखा के नीचे धकेल दिया जा चुका हो, असंगठित क्षेत्र बर्बाद है, सरकारी कंपनियों को, सरकारी खर्च चलाने के लिए औने पौने भाव में बेचा जा रहा है, चोर उद्योगपतियों को टैक्स में छूट दे कर उसकी भरपाई जनता से पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों को बढ़ा कर वसूल किया जा रहा है, बैंक डूब रहे हैं, विदेशी निवेश शून्य है और, सबसे बड़ी बात- सामाजिक सौहार्द ख़त्म होने की वजह से कोई पूँजीगत निवेश नहीं कर रहा है, ऐसे दौर में, किन रास्तों पर चल कर देश 2.48 ट्रिलियन की इकोनोमी से महज़ 28 सालों में 30 ट्रिलियन की इकोनोमी बन जाएगी?

मालूम हो कि ऐसा होने पर हम चीन को पीछे छोड़ कर दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएँगे. इसके लिए वार्षिक वृद्धि दर 20% के आस पास होनी चाहिए, जबकि अगर पिछले साल के ऋणात्मक वृद्धि दर से तुलना की जाए, तो रिज़र्व बैंक के 8.2% वृद्धि दर के अनुमान के मुताबिक़ हम इस साल माइनस 8% के आस पास हैं, क्योंकि पिछले साल यह माइनस 24% था!

अब अंग्रेज़ी अख़बारों के सुर बदलने लगे हैं. पिछले कुछ दिनों से टाईम्स ऑफ़ इंडिया में कई लेख प्रकाशित हुए जिनमें मोदी सरकार के दलाल, बुद्धिजीवी सरकार से मुफ़्त योजनाओं पर खर्च कम करने की सलाह दे रहे हैं. ये दलाल सरकार पर ये दवाब भी बना रहे हैं कि केंद्र सरकार राज्य सरकारों पर मुफ़्त की योजनाओं पर खर्च कम करने के लिए दवाब बनाएँ.

दलालों को अब ये सुझाव देते हुए पढ़ रहा हूँ कि सरकार को मुफ़्त योजनाओं पर खर्च कम कर रोज़गार उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास करना चाहिए.

सारे सुझाव पढ़ने और सुनने में बहुत अच्छे हैं, लेकिन सवाल कुछ और है….सवाल ये है कि नोटबंदी जैसे क्रिमिनल फ़ैसले से बर्बाद हुए MSME और Construction जैसे क्षेत्रों को रातोंरात पुनर्जीवित किया जा सकता है? विशेष कर ऐसे समय में, जब सरकार की नीति कुछेक मित्रों के हाथों पूँजी के प्रवाह को देश की क़ीमत पर करना हो ? जवाब है, नहीं, ये असंभव है.

Trickle down economy पचास साल पहले अमरीका जैसे सशक्त अर्थव्यवस्था में भी फेल कर चुका है, भारत तो ख़ैर भिखारी है उसकी तुलना में.

चलिए, एक मिनट के लिए मान भी लिया कि मोदी सरकार ने policy reversal के ज़रिए, देश के धन को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुँचने की कोशिश में लग जाती है, तो भी क्या इस सरकार के लिए पीछे लौटने का कोई रास्ता बचा है?

मूर्खों, कुपढ़ लोगों और नीति आयोग जैसे रीढ़ हीन advisors के भरोसे चलती दुनिया की भ्रष्टतम सरकार के बूते की बात नहीं है.

मोदी सरकार सिर्फ़ दो मुद्दों पर चुनाव जीतती है, एक सांप्रदायिक घृणा और दूसरा लाभार्थी वर्ग!

पॉलिसी रिवर्सल के लिए दोनों को त्याग करना होगा.

यही वह राजनीतिक क़ीमत है जिसे चुकाने के लिए भाजपा बिल्कुल तैयार नहीं है.

ऐसे में ये धुर दक्षिण पंथी सरकारी दलाल ऐसे सुझाव क्यों दे रहे हैं? कारण स्पष्ट है- Vertical marketing की सीमाएँ.

सिकुड़ते उपभोक्ता वर्ग और घटती क्रय शक्ति की भरपाई, जहां तक क़ीमतों को बढ़ा कर की जा सकती हैं, वहाँ तक की जा चुकी है.

महंगाई दर दोहरे अंक को पार कर गई है. अब पेट्रोल और डीज़ल की क़ीमतों को और बढ़ाने की संभावना नहीं बची है. Recession की आहट सुनाई दे रही है.

स्पष्ट है कि पतनशील पूँजीवादी व्यवस्था अपने अंतर्विरोधों का शिकार हो रही है.

श्रीलंका कोई अपवाद नहीं है, नियम बनता जा रहा है.

इसलिए, “आ अब लौट चलें” का गाना बज रहा है.

बहुत देर हो चुकी है. इस सरकार के रहते कुछ नहीं हो सकता है.

चलते चलते अदानी जी को एक सलाह: 30 ट्रिलियन तो नहीं, लेकिन अगर आपके जैसे बेईमान धंधेबाज़ों की संपत्ति और व्यापार का राष्ट्रीयकरण कर देश का धन देश को लौटा दिया जाए, तो शायद हम 2024 तक 3 ट्रिलियन की इकोनोमी बन जाएँ.

आप तैयार हैं झोला उठाने के लिए मोदी जी के साथ?

अगर नहीं तो अपना गंदा मुँह बंद रखिए.

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