● मैं/हम सही और तुम/वे गलत से आमतौर पर निकलते हैं : शास्त्रार्थ, वाक्युद्ध, बहस, polemics. और, सामान्य परिणाम है : मनमुटाव।
ऊँच-नीच वाले समाज में एक ही सामाजिक समूह के सदस्यों के हितों में आमतौर पर शत्रुता वाले सम्बन्ध नहीं होते। इसलिये “मैं इक्कीस और तू उन्नीस” वाले वाक्युद्ध सामान्यतः अधिक घातक नहीं होते।
परन्तु … परन्तु शोषण वाले समाज में विभिन्न सामाजिक समूहों में सम्बन्ध अधिक पेचीदा लगते हैं। इनमें शत्रुता वाले हितों के टकराव भी होते हैं। ऐसे में किसी-किसी बहस में वाक्युद्ध भौतिक शक्ति वाले युद्ध, शस्त्रों वाली मारकाट तक पहुँचते रहे हैं।
लेकिन, इधर बहुत तेजी से ऐसे परिवर्तन भी हो रहे हैं कि इस विभाजित समाज में प्रत्येक सामाजिक समूह की विशेषता, विशेष हित धुँधले पड़ रहे हैं। और, ऐसे हित सामाजिक पटल पर सामने आ रहे हैं जो पूरी मानव प्रजाति के लिये अधिक से अधिक महत्वपूर्ण बनते जा रहे हैं।
ऐसे में :
“शास्त्रार्थ नेति। वाक्युद्ध नहीं। बहस से तौबा। Polemics: No.” के प्रयास कैसे रहेंगे?
और, बातचीत के केन्द्र में विभिन्न अनुभवों व विचारों तथा उनके आंकलनों-अनुमानों-उन्हें जैसा-जैसा पढा है-उनकी readings को रखना कैसा रहेगा? आदान-प्रदान के, conversational interactions के अवसर बढाने पर ध्यान देना आज और भी उचित लगता है।
— 21 मई 2022
मजदूर समाचार द्वारा प्रसारित