करतार सिंह सराभा

दैनिक समाचार
भगत सिंह जिन्हें अपना गुरु मानते थे, और उनकी फ़ोटो अंतिम दिनों तक अपनी ज़ेब में रखकर घूमा करते थे, ऐसे महान क्रांतिकारी  करतार सिंह सराभा का जन्म 24 मई 1896 को पंजाब के लुधियाना जिले के सराभा गांव में  हुआ था. जब करतार 8 साल के थे, तभी उनके पिता जी का निधन हो गया.  दादा बदन सिंह ने इनका पालन पोषण किया.
  करतार की शुरुआती पढ़ाई गांव के एक स्कूल में हुई, बाद में उसे उड़ीसा में अपने चाचा के पास जाना पड़ा। उड़ीसा उन दिनों बंगाल प्रांत का हिस्सा था, जो राजनीतिक रूप से अधिक सचेत था। वहां के माहौल में सराभा ने स्कूली शिक्षा के साथ अन्य ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढ़ना भी शुरू किया। दसवीं कक्षा पास करने के उपरांत उसके परिवार ने उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए उसे अमेरिका भेजने का निर्णय लिया और 1 जनवरी 1912को सराभा ने अमेरिका की धरती पर पांव रखा। उस समय उसकी आयु पंद्रह वर्ष से कुछ महीने ही अधिक थी। सराभा गांव का रुलिया सिंह 1908 में ही अमेरिका पहुंच गया थे, और अमेरिका-प्रवास के प्रारंभिक दिनों में सराभा अपने गांव के रुलिया सिंह के पास ही रहे।
       1912 में करतार सैन फ्रांसिस्को पहुंचे और बर्कले के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में दाखिला ले लिया. पढ़ाई के दौरान करतार ने खेतों और मिलों में काम भी किया. भारतीय मजदूर कम रेट पर काम करने को तैयार थे, इसलिए लोकल जनता में भारतीयों को नफरत की निगाह से देखा जाता था. इस नफरत में नस्लभेद का पुट भी शामिल था. भारतीयों के प्रति होने वाली हिंसक घटनाओं के कारण करतार में राजनैतिक चेतना जगी। एक बार लाला हरदयाल सैन फ्रांसिस्को में सभा को संबोधित कर रहे थे. सभा के बाद एक 16 साल का नौजवान उनसे मिला और उसने संगठन में जुड़ने की इच्छा जाहिर की, इस नौजवान का नाम करतार सिंह सराभा था।
  इससे पहले वो मानते थे कि ये व्यक्ति के ऊपर है कि वो अपनी परस्थितियों से ऊपर उठे. लेकिन अमेरिका में रहकर उन्हें अहसास हुआ कि किसी समस्या का कारण जब व्यक्तिगत नहीं, तो हल व्यक्तिगत कैसे हो सकता है. इसके लिए सामाजिक चेतना का विस्तार आवश्यक है.
करतार इन्हीं सवालों से जूझ रहे थे, जब उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई और वो ‘हिंदुस्तान एसोसिएशन ऑफ द पैसिफ़िक कोस्ट’ के सदस्य बन गए. इस संगठन का मकसद था अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह. तलवार से पहले कलम को हथियार बनाया गया. संगठन के विचारों को दुनियाभर में फैलाने के लिए एक पत्रिका निकाली गई. इसका नाम था ‘गदर पत्रिका’।

एक नवंबर 1913 को गदर का पहला प्रकाशन उर्दू भाषा में छपा. पत्रिका के विस्तार और जनता को जागरूक करने के लिए जरूरी था, कि इसे अलग-अलग भाषाओं में छापा जाए. बाद में गदर को गुरुमुखी, गुजराती, बंगाली, नेपाली और पश्तो भाषा में भी छापा गया.
करतार सिंह ने गदर के पंजाबी संस्करण के लिए जिम्मेदारी उठाई. वे अपनी पढ़ाई छोड़कर गदर पत्रिका के प्रचार-प्रसार में लग गए. ग़दर पत्रिका इतनी लोकप्रिय हुई कि इसके लिए नई पार्टी बनाई गई, जिसका नाम ‘गदर पार्टी’ रखा गया।
1914 में प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ. जिसमें ब्रिटेन भी शामिल था. उसी साल अगस्त में गदर पत्रिका में एक संदेश छपा, ‘योद्धाओं! वो मौका आ गया है, जिसका इंतजार तुम कर रहे थे’।


ये दुनियाभर के भारतीयों के लिए बुलावा था. करतार और गदर पार्टी के अन्य नेता पूरे अमेरिका और कनाडा में घूम-घूम कर भारतीयों को इकट्ठा करने लगे. उनसे कहा गया कि वो अपना काम धंधा निपटा कर भारत लौटने की तैयारी करें. अक्टूबर के अंत तक अमेरिका और कनाडा से आठ जहाज भारत की ओर निकले. करतार सिंह भी लंका के रास्ते भारत पहुंचे।
भारत में गदर आंदोलन
अंग्रेजों को इसकी खबर लगी तो अधिकतर क्रांतिकारियों को भारत पहुंचने से पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया. करतार सिंह ने कोलंबो में कदम रखा और वहां से कलकत्ता पहुंचे. जहां इनकी मुलाकात रासबिहारी बोस से हुई. दोनों में मिलकर पूरे बंगाल और उत्तर भारत के क्रांतिकारियों को इकट्ठा करना शुरू किया. पार्टी के प्रचार के लिए उन्होंने हथियार इकट्ठे किए, बम बनाए और फौज में भी आजादी का प्रचार किया.


प्लान बनाया गया कि 1857 की तर्ज़ पर सैनिक विद्रोह शुरू किया जाएगा. 21 फरवरी 1915 से अंबाला कैंट से विद्रोह शुरू होना था. लेकिन इससे एक हफ्ते पहले यानी 15 फरवरी को ही अंग्रेजों को इसकी भनक लग गई. विद्रोह की ताऱीख बदली गई, लेकिन इस बार भी मुखबिर ने सूचना अंग्रेजों तक पहुंचा दी. इसके बाद अंग्रेजों ने गदर पार्टी के लोगों को पकड़ना शुरु किया. करतार सिंह और उनके साथी पकड़े गए. इन सब के खिलाफ राजद्रोह और कत्ल का मुकदमा चलाया गया.
अदालत में पेश हुए तो जज ने उन्हें मौक़ा दिया कि वो अपने तेवर नरम रखें. लेकिन करतार किसी क़ीमत पर अपने सिद्धांतो से समझौता करने को राज़ी नहीं थे. कोर्ट में जब करतार सिंह के केस की आखिरी सुनवाई हो रही थी. तब उन्होंने पूछा,
‘मुझे क्या सजा होगी? उम्रकैद या फांसी?
इससे पहले कि सामने से जवाब आता, ख़ुद ही बोल पड़े,
“मैं चाहता हूं कि मुझे फांसी मिले और मैं एक बार फिर जन्म लूं. जब तक भारत स्वतंत्र नहीं होता, तब तक मैं जन्म लेता रहूंगा. ये मेरी आखिरी ख्वाहिश है.”
फांसी की सजा हुई तो घर वाले मिलने आए. इनमें वो दादा भी थे, जिन्होंने बचपन में पिता का साया उठ जाने पर पालपोस कर उन्हें बड़ा किया था.
दादा ने पोते से मिलते ही सवाल किया,
‘बेटा रिश्तेदार तुझे बेवकूफ बता रहे हैं. ऐसा करने की क्या जरूरत थी तुझे? आखिर क्या कमी थी तेरे पास ?
तब करतार ने जवाब दिया,
‘उनमें कोई हैजा से मर जाएगा, कोई मलेरिया से कोई प्लेग से. लेकिन मुझे ये मौत देश की खातिर मिलेगी. ऐसी किस्मत उनकी कहां है।
फांसी की सजा सुनने के बावज़ूद सूरत और सीरत में कोई बदलाव ना आया. सजा के ऐलान से फांसी के दिन तक 6 किलो वजन बढ़ा चुके थे. ग़दर के गीत गाते और हमेशा मुस्कुराते रहते थे. 16 नवंबर 1915 को करतार सिंह सराभा को उनके 6 साथियों के साथ लाहौर जेल में फांसी दी गई।
करतार का राजनैतिक जीवन सिर्फ़ 3 साल चला,लेकिन उनका भारत में आज़ादी के आंदोलन में बड़ा योगदान रहा, ग़दर पार्टी के नेता जब भारत में चंदा जमा कर रहे थे, तब नन्हे भगत सिंह के घर उनका जाना हुआ, भगत सिंह के पिताजी ने पार्टी को चंदा दिय।. तब भगत सिंह ने पहली बार करतार सिंह सराभा का नाम सुना, एक शम्मा बुझी, लेकिन दूसरी चिंगारी जला गई।
एहतिशाम अख़्तर साहब का एक शेर ज़िंदा हुआ,
‘शहर के अंधेरे को इक चराग़ काफ़ी है, सौ चराग़ जलते हैं इक चराग़ जलने से।

करतार सिंह अपनी कविता में लिखते हैं—-
अगर कोई पूछे कि हम कौन हैं
तो उन्हे बताना
हम बागी हैं
हमारा कर्तव्य है
जुल्म का खात्मा
हमारा पेशा है, गदर
यही हमारी नमाज़ है
यही हमारी संध्या है
यही हमारी पूजा है
और यही हमारा धर्म, हमारा काम है
केवल यही हमारा खुदा है
और यही हमारा इकलौता राम भी है।

            महान क्रान्तिकारी करतार सिंह सराभा जिन्होंने किशोरावस्था में केवल उन्नीस वर्ष की आयु में ही हँसते-हँसते देश के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया, उनके शौर्य एवं बलिदान की गाथा आज भी हमें प्रेरणा देती है, और देती रहेगी, वे हमारे ख्यालों में/विचारों में हमेशा जीवित रहेंगे।

महान क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा अमर रहें।

-शैलेश बोहरे एडवोकेट
स्रोत/सहयोग-गूगल।

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