वर्तमान में शायद ही कोई ऐसा क्षत्रिय या ब्राह्मण होगा जो अपने घर का टायलेट खुद न साफ करता हो?
सुबह सवेरे हर रोज दाढ़ी भी अपने आप से ही बनानी पड़ती है, कितने लोगों के घर हर रोज नाई आता है?
जूतों पर खुद ही पालिश करना भी मजबूरी बन चुका है!
कपड़े भी हर रोज खुद ही वाशिंग मशीन से धुलने पड़ते हैं (बड़ी चादरें और ड्राइक्लीन वाले कपडों को छोड़कर)!
घर की साफ सफाई से लेकर खेत की बुआई और कटाई करने के लिए भी अब बंधुआ मजदूर कहाँ मिलते हैं?
एक जमाना था (मात्र चालीस-पचास साल पहले की ही बातें हैं) जब गांव में हररोज नाई अपनी छोटी सी लोहे की संदूक लेकर घर घर पहुंच कर दाढ़ी बनाया करता था, आदमी यदि सेविंग न कराएं तो गाय और भैंस के ही बाल कटवा लिया करता था।
मतलब पूरे साल तक पूरे परिवार के बाल काटने और दाढी बनाने का जिम्मा नाई और उसके परिजनों का !
कुम्हार की भी यही भूमिका थी घर की जरूरत के सभी बर्तन घड़े,करुवे और अनाज रखने के बड़े मटके तथा शादी या किसी अन्य समारोह पर कुल्हड़ और अन्य मिट्टी के बर्तनो की पूर्ति करना कुम्हार की ही जिम्मेदारी होती थी। कुछ ऐसा ही हाल धोबी का भी था एक गधा या घोड़ा लेकर आता था जिस पर मौहल्ले भर के कपड़े लदे होते थे( अधिकतर लोग खेतिहर किसान और मजदूर थे तो वें अधिक कपड़े पहनते भी नहीं थे, कहीं रिश्तेदारी में जाना हो या शादी विवाह में जाते समय ही पूरा तन ढकने की परंपरा सी थी!)
जुलाहा यानि कोरी, तेली,मोची और लोहार या बढई सभी का अपना अपना काम बंटा हुआ था,सभी बड़ी तल्लीनता और प्रेम से अपना काम करते थे और खुश रहते थे(खुश न भी रहें तो किसी का क्या बिगाड़ लेते,काम नहीं करते तो भूखों मरते)!
क्योंकि पैसे तो नकद किसी को भी नहीं मिलते थे!
चमार और भंगी का हाल सबसे बुरा था, दिनभर खेत खलिहान में काम करें और सुबह शाम आठ-आठ दस-दस पशुओं का चारा करना और गोबर व मूत्र साफ करना।
रात में भी बहुत से लोग घर नहीं जाकर बल्कि अपने सेठ साहूकार के यहीं रहने की जरूरत थी ताकि वक्त जरूरत पर लठैत का काम करके चौकीदारी भी कर सकें।
हालात ऐसे थे(उस समय के अधिकांश लोग अनुभव रखते होंगे) कि बहुत से लोग शादी भी नहीं करते थे।
क्योंकि पैसा तो था ही नहीं मिलता कहां से?( चांदी या तांबे और पीतल के सिक्के चलन में थे, परन्तु पैसे का लेनदेन न के बराबर था)
गेंहू या धान आदि फसल कटने पर परिवार के गुजारे भर के लिए अनाज मिल जाता था (केवल गुजारे भर के लिए ही, क्योंकि अधिक दिया जाता तो लोग निष्ठा और ईमानदारी से काम क्यों करते?)
सेठ, साहूकार और जमींदारों का एक रुतबा था,जिधर से भी निकल जाएं लोगों के हाथ रामराम सेठ जी, जय रामजी की मालिक की आवाजें संभवतः उनको किसी राजा महाराजाओं वाली छवि से कम महसूस नहीं होती होगी!
देखते ही देखते कलयुग आया।
वास्तव में कलयुग की शुरुआत अंग्रेजों से आजादी मिलने और संविधान बनने के बाद ही हुई होगी! क्योंकि जो बच्चे अपने माता पिता के साथ जमींदार के घर मेहनत मजदूरी और अपना पैतृक धंधा करने को ही अपना मुकद्दर मान लेते थे वैसे भी पैतृक धंधा सीखने और करने में किसी पढ़ाई लिखाई की जरूरत तो होती नहीं थी!
लेकिन वक्त बदला और सब कामगार व मजदूर अपने बच्चों को स्कूल भेजने लगे थे।
दस से पंद्रह साल गुजरे कि बच्चे पढ़ लिखकर साहूकारों और जमींदारों एवं ठाकुर साहब के घर काम करना बंद करके शहऱो की ओर पलायन करने लगे!
किसी को क्लर्क की नौकरी मिली तो किसी को चपरासी की।
यह इंदिरा गांधी के शासन काल का दौर था पंचवर्षीय योजनाओं के मूर्तरूप में आने तथा साहूकारी प्रथा को खत्म करके राष्ट्रीयकरण करने से औद्योगिकीकरण की भी तेजी से शुरुआत हो चुकी थी।
इसलिए रुपये पैसे का चलन भी तेजी से बढ़ा, क्योंकि लोहे या अन्य फैक्ट्रियों में काम करने वालों को फैक्ट्री का मालिक फैक्ट्री में लोहे या अन्य वस्तुओ से बनने वाले सामान तो मजदूरी में दे नहीं सकता था। जैसे साहूकार या जमींदार खाद्यान्न दिया करते थे!
हालांकि फैक्ट्रियां भी उन जमींदारों या सेठ साहूकारो की ही बनना तय थी क्योंकि वो ही पढ़ें लिखे और संपन्न थे इसलिए बैंकों से लोन लेने में रसूख भी काम आए और अपनी प्रतिष्ठा भी!
धीरे-२ गांव में वह प्रचलन खत्म होता गया, क्योंकि सिर पर मैला ढोने की परंपरा नयी पीढ़ी के युवाओं ने बंद कर दिया था और पुराने लोग कब तक करते?
यह कोई अधिक प्राचीन काल की बातें नहीं बल्कि पचास पचपन साल पहली ही बातें हैं।
समस्या तो बहुत बड़ी थी क्योंकि देखते ही देखते जमींदार और साहूकारो की वह छवि धूमिल होने लगी, लोग खेत में मजदूरी करने का पैसा मांगने लगे।
हालांकि उनकी भी मजबूरी थी क्योंकि शहर या गांव में पढने पर किताब कापी और फीस सभी कुछ के लिए पैसा देना पड़ता था।
हालांकि स्कूलो में बहुत लगभग अस्सी के दशक तक भी घर से आटा चावल दाल और तेल लाकर अध्यापकों को देने की परंपरा रही( होती भी क्यों ना, क्योंकि अधिकांश अध्यापक भी ब्राह्मण ही हुआ करते थे)
मुफ्त का खाने की आदत किसी भी हो जल्दी जाती कहां है?
अब जमींदार और साहूकारो तथा मजदुरो के मध्य एक शीतयुद्ध जैसा चल रहा था, मजदूरों की आवश्यकताए बढ़ती जा रही थी मगर वर्षों से चली आ रही है परंपरा को खत्म होता देखकर और मजदूरी करने के बदले पैसे मांगने पर ठाकुर साहब द्वारा आनाकानी की जाने लगी तथा ज्यादा गुस्सा आया तो मजदूरी तो दी नहीं ऊपर से खूब धुनाई भी करा दी।
धीरे धीरे गांव के सभी शिल्पकार और मजदूर लोगो ने शहरों की ओर पलायन करना शुरू दिया। हालांकि अपनी मातृभूमि को छोड़ना किसको अच्छा लगता है,मगर बच्चो की शिक्षा पूरी करने तथा अन्य आवश्यकताओ की पूर्ति करने हेतु गांव छोड़ना मजबूरी भी थी।
आज भी रेलवे लाइऩो के किनारे बनी झुग्गी झोपड़ियों तथा फ्लाई ओवर पुलो के नीचे बसने वाले कोई शरणार्थी या बंग्लादेशी भगौड़े नहीं बल्कि गांव छोड़कर आने वाले मजबूर लोग यानि मजदूर ही है।
इतना बड़ा बदलाव???
खेती कैसे हो? क्योंकि आधुनिक मशीनों के अभाव में केवल एकमात्र ट्रेक्टर के बल पर(वो भी सबकज पास नहीं)!
घर के पशुओं का चारा और गोबर व मलमूत्र साफ करने वाले कहां से लाएं?
बड़े बड़े दलान, चौपाल और पशुशाला (घेर) की सफाई कैसे हो?
क्योंकि अब उन मजदूरों के बच्चे पढ़ लिखकर डाक्टर, इंजीनियर,वकील और अध्यापक आदि बनने लगे थे!
यहां तक भी गनीमत थी और यह कहा जाता था कि भाग्य पूर्व जन्मों के कर्मों के आधार पर लिखा जाता है।
परन्तु इन मजदूरों और तेली,धोबी व चमार के बच्चे डीएम और कलेक्टर व एसपी बनने लगे तो अब स्वामित्व और स्वाभिमान भी खतरे में आने लगा।
क्योंकि उस जमींदार और ठाकुर साहब के बच्चे जिनकी कभी गांव में एक हवेली हुआ करती थी(पक्का मकान भी हवेली ही कहा जाता था क्योंकि अधिकांश घर मिट्टी और फूंस आदि से बनी झोपड़ी ही हुआ करते थे)
उनके बच्चे उस बंधुआ मजदूर के बच्चे के अधीनस्थ कार्य करने और आदेश मानने को मजबूर थे!
इसलिए बहुत चिंतन और विचार करने पर परिणाम आया कि शिक्षा ही इस सारी समस्या का मूल कारण है।
न तो शिक्षा मिलेगी और न ही हमारे टुकड़ों पर पलने वाले इन मजदूरों के बच्चे पढ़ लिखकर उच्चाधिकारी बनेंगे।
इसलिए उन सभी सरकारी स्कूलों की हालत खस्ता की जाने लगी,जिनसे शिक्षा ग्रहण करके लाल बहादुर शास्त्री,चौधरी चरणसिंह, मुलायमसिंह और लालू यादव जैसी शख्सियत समाज को मिली!
देखते ही देखते सरकारी अस्पतालों की हालत भी खस्ताहाल होती गयी और लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ाने से कतराने लगे तथा सरकारी अस्पतालों में इलाज करवाने से बचने लगे।
यह सब अचानक नहीं हुआ बल्कि योजनाबद्ध तरीके से किया जा रहा है।
अब सरकारी विभागों में भी भ्रष्टाचार और घोटाले तथा रिश्वतखोरी को बढ़ावा देकर, उनको बदनाम व बर्बाद करने मे कोई भी कसर बाकी नहीं छोड़ी है।
मौजूदा सरकार भी कोई चमत्कार या अप्रत्याशित घटना नहीं है बल्कि कार्ययोजना को सुनियोजित तरीके से बनाई गयी रणनीति का ही हिस्सा है।
इसके लिए आरक्षण खत्म करना होगा, शिक्षा खत्म करनी होगी और रोजगार धंधे भी खत्म करने होंगे।
इसलिए सरकारी विभागों को बेचकर निजीकरण करना अनिवार्य है क्योंकि सरकारी विभाग, सरकारी स्कूल, कालेज और अस्पताल न होंगे तो पहली बात तो इतनी मंहगी शिक्षा अपने बच्चों को हरकोई नहीं दिलवा सकेगा। शिक्षा भी दिलवा दी,तो किसी बनिए की फैक्ट्री में दस से बीस हजार रुपए की नौकरी ही मिलेगी! वो भी जब चाहे निकालकर बाहर कर दें!
सबसे खास बात आरक्षण खत्म करना नहीं पड़ेगा बल्कि सरकारी विभागों का निजीकरण होने के बाद खुद व खुद खत्म हो जाएगा।
यानि कि देश फिर से पचास साठ साल पहली स्थिति में पहुंचेगा तभी रामराज्य आ सकेगा, जब फिर से ठाकुरों और सेठ साहूकारो के खेत में काम करने वाले बंधुआ मजदूरों और घर व पशुशालाओं या फैक्ट्रियो में काम मांगने वालों की लंबी लंबी कतारें लगी होंगी वो दस से बीस हजार रुपए की नौकरी के लिए।
आपके पास जो जमापूंजी है वो बढ़ती मंहगाई और बेरोजगारी के चलते कितने दिन साथ निभाएंगी?
कुछ शिक्षा में तो कुछ चिकित्सा मे,बाकी बच्चो को धंधा पानी कराने में खर्च हो जाएगी।
कोई छोटी मोटी दुश्मन करके भी आप आजीविका नहीं चला सकोगे क्योंकि जीएसटी,आयकर तथा आनलाइन ट्रांजक्शन जैसे तमाम तामझाम को व्यवस्थित कऱने के लिए एक सीए और वकील की तनख्वाह का बोझ हरकोई कैसे उठा सकेगा?
साथ ही आनलाइन शापिंग वालों के साथ कम्पटीशन?
यानि कि रामराज्य आना तय है इसलिए मौजूदा सरकार का सत्ता में बना रहना बहुत अनिवार्य है।
यही कारण है कि बढ़ती मंहगाई और बेरोजगारी को सहकर भी सवर्ण समाज मन ही मन बहुत प्रसन्न हैं क्योंकि उसे ऊपर लिखी गयी हकीकत से अवगत करा दिया गया है।
उनको हर हालत और हर कीमत में अपने खोये हुए वो बंधुआ मजदूर और गुलाम चाहिए, भले ही उसके लिए कुछ भी कुर्बानी क्यों न देनी पड़े।