आदिम मनुष्य ने साँप से डरना और घृणा करना सीखा, आधुनिक मनुष्य ने वही काम जीवाणुओं के साथ किया।
साँप विषैला है, काट लेगा, जिससे मैं मर जाऊँगा— साधारण सोच है। संसार के अधिसंख्य साँप ज़हरीले नहीं होते, उनके कारण चूहों की आबादी हद में रहती है और संसार को खाने के लिए अन्न मिलता है— यह ज्ञान है। अब इस ज्ञान को जीवाणुओं पर एप्लाय करिए और सोचिए कि हमें जीवाणुओं के बारे में किसने बताया? कैसे हम जीवाणुओं से डरना और घृणा करना सीख गये?
देह एक भवन है, जिसमें आत्मा रहती है— यह आर्ष कथन है। विज्ञान भी देह को भवन ही कहता है, जिसमें जीवाणु रहते हैं। हममें खाते, हममें पीते, वे हममें जन्मते-मरते वे तबसे चले रहे हैं, जबसे जटिल जीवन इस पृथ्वी पर पनपा है!
बुराई का प्रसार अच्छाई से पहले होता है, यह सत्य है। बुरी ख़बरें ज़्यादा और गहरी पैठ बनाती हैं। बाज़ार ने इस बैक्टीरिया-कुख्याति को बाद में भुनाया, पहले यह बात समाज में फैली कि ढेरों रोग हमें जीवाणुओं के कारण होते हैं। हैजा, प्लेग, दस्त, न्यूमोनिया, टेटनस… सभी के पीछे कोई-न-कोई जीवाणु-प्रजाति खड़ी मिलेगी आपको। हमारी अतिस्वच्छता की सनक ने, हमारी हायजीन चाहती बेलगाम हिंसा ने बेहिसाब जीवाणु मारे। बुरों के चक्कर में हमने अच्छों को भी मिटा डाला। नतीजन एलर्जियों से लेकर कैंसरों तक, तमाम रोगों की संख्या बढ़ने लगी। यह विवेकहीन जीवाणु-हिंसा ही थी, जिसका हमें यह प्रतिफल मिला।
लेकिन इस सच के बावजूद यह अर्धसत्य ही है। ऊपर जिन रोगों के नाम लिये गये, ये उपकारों के मुक़ाबले कुछ नहीं, जो जीवाणु क़दम-क़दम पर हमारे ऊपर करते हैं।
हम जब धरती पर नहीं थे, तब भी जीवाणु यहाँ थे। हम जब नहीं होंगे , तब भी जीवाणु यहाँ होंगे। वे हमसे पहले से पृथ्वी पर रहते आ रहे हैं, हमारे बाद भी रहेंगे। कोई आश्चर्य नहीं जब नासा व अन्य एजेंसियाँ अन्य ग्रहों पर जीवन की बात करती हैं, जो उनके ध्यान में अजीब-ओ-ग़रीब बड़ी आँखों वाले और हरी देह वाले विचित्र प्राणी नहीं होते, ये एककोशिकीय जीवाणु ही होते हैं।
हमारी त्वचा पर, मुँह में, आँतों में, प्रजननांगों में जीवाणुओं का बोलबाला है। और यह भी कि भाँति-भाँति के जीवाणुओं के बीच एक क़िस्म का सन्तुलन स्वस्थ व्यक्ति होता है। बच्चा पैदा होता है, उसके मुँह व आँतों में जीवाणुओं की संख्या बढ़ने लगती है। इनमें से अधिकांश हमारे मित्र हैं। ये आँतों में एक स्वस्थ मायक्रोबायोम स्थापित करते हैं। अच्छे जीवाणुओं के ऐसे देश, जहाँ बुरे जीवाणु अल्पसंख्या में होने के कारण पनप ही नहीं पाते। खरबों-खरब इन जीवाणुओं के कारण हमारी आँतें ही स्वस्थ नहीं रहतीं, हमारे अन्य अंग भी उनके प्रभाव से रोगमुक्त रहा करते हैं।
हम-आप रोज़ ब्रश करते हैं, जीवाणुओं के लिए यह प्रलय से कम नहीं। हम नहाते हैं, उनके कुनबे-के-कुनबे साफ़ हो जाते हैं। एक एंटीबायटिक की गोली पेट में जाना किसी भी प्रथम या द्वितीय विश्वयुद्ध से बड़ी मारामारी मचा देता है। फिर हम दही खाते हैं। पानी पीते हैं। जहाँ-तहाँ हाथों से छूते हुए उन्हें मुँह तक ले जाते हैं। किसी प्रिय को चूमते हैं। साँस लेते हैं। इन सब से हमारे भीतर जीवाणु-सृष्टि फिर से पुष्पित-पल्ल्वित होने लगती है।
टूथपेस्ट-टॉयलेटक्लीनर-पेण्ट, जीवाणुओं के विषय में इन सब से इतर भी ढेरों वैज्ञानिक सत्य हैं। उन्हें समझिए। जीवाणु न हों तो हम-आप प्रोटीन खा नहीं सकते , जीवाणु न हों तो साँस तक ले नहीं सकते।
एक गहरी साँस भीतर खींचिए फेफड़ों में। आप 21 फ़ीसदी ऑक्सीजन ले गये अन्दर, याद करिए उस आदिपृथ्वी को, जब यह ऑक्सीजनहीन थी। तब समुद्रों में जलस्थानों में हरी आबादी पनपी थी जीवाणुओं की। वे आज भी हैं , हम उन्हें सायनोबैक्टीरिया कहते हैं। वे ऑक्सीजन छोड़ते हैं हवा में, वही हमें साँस में मिलती है। दाल, पनीर, मांस या अण्डा प्रोटीन से कैसे भर गये? प्रोटीन तो नाइट्रोजन से युक्त कार्बनिक रसायन हैं। हवा की नाइट्रोजन प्रोटीनों को कैसे बनाने लगी? उत्तर फिर जीवाणु हैं। वे जो मिट्टी में रहते हैं, नाइट्रोजन को उसकी आवारगी से मुक्त कर उसे ‘फ़िक्स’ करते हैं और फिर इसी नाइट्रोजन-फिक्सेशन से प्रोटीन बनते हैं, जिन्हें पौधे-जानवर-हम-आप भीतर लेते हैं।
जीवाणुओं की तुलना नाली के कीड़ों से मत कीजिए। यों नाली के कीड़ों के भी अच्छे प्रभाव बताये जा सकते हैं। जीवाणु इस पृथ्वी पर हमारे जीने की वजह हैं। वे हमारे सबसे बूढ़े पुरखे हैं और हमारे सबसे नवीन शिशु भी होंगे।
किसी अन्य में यह योग्यता ही नहीं कि वह आदि और अन्त, दोनों की भूमिका निभा सके। जीवाणु निभाएँगे।
*साभार- डाक्टर स्कंद शुक्ला