व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा
देखा, देखा, कैसे सत्यपाल मलिक दिल्ली में पुलिस थाने में पहुंच गए। वह भी तब, जबकि पुलिस ने न तो उन्हें पकड़ा था और न बुलाया था। पुलिस ने सिर्फ उनको समर्थन देने पहुंचे खाप पंचायतियों को बिना परमीशन के मलिक के घर पर जमा होने के लिए, थाने ले जाकर बैठाया था। मलिक साहब खुद ही, अपनी मर्जी से उनके साथ-साथ चलकर थाने पहुंच गए, अपनी मर्जी से उनके साथ कई घंटे बैठे रहे और फिर उनके साथ अपनी मर्जी से थाने से उठकर चले भी गए। उन्हें न कोई थाने लाया था, न किसी ने थाने में पकडक़र बैठाया था, फिर थाने से भगाने का तो सवाल ही कहां उठता है। फिर भी वह अपनी मर्जी से थाने पहुंचे, जब तक जी किया वहां बैठे और फिर उठकर चले गए।
जब पुलिस के किसी भी तरह के हाथ के बिना, कभी गवर्नर रहे सत्यपाल मलिक तक अपनी मर्जी से थाने पहुंच सकते हैं, तो नरोडा गाम में 2002 में मारे गए ग्यारह मामूली मुसलमानों के लिए, किसी मारने वाले का होना क्यों जरूरी है? तब 67 के 67 लोगों के अदालत के बरी करने पर, इसका शोर क्यों मचाया जा रहा है कि क्या ग्यारह अपने आप मर गए। ग्यारह मुसलमानों को मारने वाला कोई भी नहीं था। नो वन किल्ड इलैवन इन नरोडा गाम! ना बाबू बजरंगी, ना माया कोडनानी और न कोई और। सच पूछिए तो यह इस तरह का अकेला मामला भी नहीं है। इससे पहले, नरोडा के गुलबर्ग सोसाइटी के मामले में भी तो ऐसा ही हुआ था। मेरठ की बगल में मलियाना के मामले में भी।
मरना और मारना, दो अलग-अलग चीजें हैं। वो जमाने लद गए जब हर मरने वाले के मरने में किसी मारने वाले का हाथ होता था। और मरने वाले के मरने में हाथ होने के चक्कर में, मारने वाले को सजा वगैरह भी होती थी। पर वे सब पुराने जमाने की बातें हैं। तुष्टीकरण वाले जमाने की। अब मोदी जी के अमृतकाल वाले नये इंडिया में, पश्चिम वाले विदेशी न्याय के पीछे भागने वाली वैसी मानसिक गुलामी कहां। अब तो मरने वाले और मारने वाले, दोनों एक-दूसरे से आजाद हैं। मरने वाले मरते रहते हैं, जबकि मारने वाला कोई नहीं होता। मारने वाले भी मारते रहते हैं, पर मरने वाला दिखाई ही नहीं देता है। पर मोदी जी के विरोधी इसे प्राब्लम क्यों बनाने की कोशिश कर रहे हैं? यह भी अगर प्राब्लम है तो, भारत के आत्मनिर्भरता का एक और मोर्चा फतेह करने का मामला क्या होगा?
फिर मोदी विरोधियों को मोदी जी का विरोध करना है, यह बात तो समझ में आती है। आखिरकार, मोदी जी डैमोक्रेसी के बादशाह हैं, कोई तानाशाह थोड़े ही हैं। विरोधी, उनका विरोध तो करेंगे ही। लेकिन, मोदी जी के विरोध के चक्कर में न्यायपालिका के फैसले पर सवाल क्यों उठाए जा रहे हैं? विरोधी क्या न्यायपालिका का भी फैसला नहीं मानेंगे? योगी जी की पुलिस एन्काउंटर से फैसला करे, तो भी गलत। मोदी जी के गुजरात की न्यायपालिका फैसला करे, तो भी गलत। फिर विरोधी सही किसे मानेंगे? बीबीसी की डॉक्यूमेंटरी में जो दिखाया गया है उसे? ये तो सरासर एंटीनेशनलता हुई। अमृतकाल का ये अपमान, नहीं सहेगा भारत महान!
और अगर विपक्ष वालों की ही बात हम मान लें कि हर मारे जाने वाले के पीछे, कोई मारने वाला होना जरूरी है, तो कोई मारने वाला नहीं होने को क्या इसका भी सबूत नहीं माना जाना चाहिए कि कोई नहीं मरा था? जी हां! न नरोडा गाम में, न नरोडा में, न मलियाना में, न और कहीं, न 2002 में और न उससे पहले। न किसी ने मारा था और न कोई मारा गया था। मरने-मारने की बातें, अटल जी की राजधर्म के पालन की सलाह, सब अफवाहें थीं। सब भारतविरोधी दुष्प्रचार था; षडयंत्र था, भारत को कमजोर करने का। अमृतकाल है, भाई अमृतकाल है। अमृतपाल नहीं, अमृतकाल।
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)