29 जुलाई 2020 को भारत सरकार ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ‘ को मंजूरी दे दी है । इसके पहले 26 जनवरी 2019 से 31 अक्टूबर 2019 तक एक लम्बी परामर्श प्रक्रिया भी चलाई गई । जिसमें शिक्षा सरोकारों से जुड़े लोगों से परामर्श मांगे गये थे । जिसका पता शिक्षा सरोकारों से जुड़ी अधिकांश आम जनता को चला ही नहीं, और न ही आम जनता को बताने व उससे परामर्श लेने का कोई प्रयास ही किया गया ; फिर भी सरकारी दावों अनुसार यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया से गुजरते हुए अपने इस स्वरूप में सबके सामने आयी है ।
जब से यह शिक्षा नीति घोषित हुई है तबसे लगातार अधिकांश शिक्षाविदों , अखबारों , पत्र – पत्रिकाओं , रेडियो , टेलीविजन . सोशल नेटवर्क आदि प्रचार माध्यमों ने मोदी सरकार के द्वारा लागू की जा रही नई शिक्षा नीति का समर्थन करते हुए शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व उपलब्धि बताया है । कुछ राजनीतिक दलों ने भी किन्तु – परन्तु के साथ इसकी जरूरत को सही ठहराया तो वहीं कांग्रेस व खासकर वामपंथी दलों ने इसकी आलोचनायें की है । जिसमें इन्होंने इस शिक्षा नीति को भाजपा – आर.एस.एस . का एजेण्डा बताते हुए इसे बेकार व बकवास तक कहा है । लेकिन इस शिक्षा नीति के समर्थकों एवं आलोचकों दोनों ने इसे मोदी सरकार की ही नीति बताया है । इससे आम लोगों को यह एहसास हुआ है, और कराया भी गया है कि यह शिक्षा नीति समाज के शैक्षिक विकास के लिए है । देश की , आम जनता की जरूरतों के अनुसार है ।
भारतीय विद्वान डॉ.के. कस्तूरीरंजन की अध्यक्षता वाली बड़े विद्वानों की अध्यक्षता एवं बड़े विद्वानों एवं विशेषज्ञों से बनी समिति की रिपोर्टों के आधार पर तैयार करके यह नीति सरकार लागू कर रही है । तथा इसमें किसी बाहरी दखल का कोई हस्तक्षेप नहीं है । वैसे अगर यह बात मान भी लिया जाय जोकि तथ्यात्मक रूप से गलत व भ्रामक तो है ही, तो भी यह सवाल पैदा होता है कि हमारा समाज दो परस्पर विरोधी वर्गो में बंटा हुआ है , जिसमें एक और मजदूर, किसान व टूटता हुआ मध्यम वर्ग है, तो दूसरी ओर पूजीपति वर्ग व उसका समर्थक व चढ़ता हुआ मध्यम वर्ग है, जिनके हित परस्पर विरोधी है । ऐसे में यह शिक्षा नीति दो परस्पर विरोधी वर्गो की जरूरतो, हितों को एक साथ कैसे पूरा कर सकती है ? अगर सभी वर्गों की जरूरत नहीं पूरा कर सकती, तो यह किस वर्ग की जरूरतों को पूरा करेगी ? क्या यह मजदूरों – किसानों की जरूरतों को पूरा करेगी या पूजीवांन वर्गों की, या दोनों वर्गों की ? साथ ही क्या यह मजदूरो – किसानों की जरूरतों को ध्यान में रखकर बनाई गई है या पूंंजीवान वर्गों की या दोनों वर्गों की ?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 पर चर्चा करते हुए इन सभी प्रश्नों पर देना बहुत जरूरी है । इन्हें ही ध्यान में रखते हुए इस विषय पर चर्चा की गई है । लेकिन इससे पहले प्रचारों अनुसार फैलायी गयी यह आम धारणा कि यह शिक्षा नीति मोदी सरकार द्वारा डा.के. कस्तूरीरंजन की अध्यक्षता वाली विद्वान – विशेषज्ञों की समिति की रिपोर्ट के आधार पर आम जनता की जरुरतोंनुसार समाज के शैशिक उन्नयन हेतु बनायी गयी है । इस पर चर्चा करना जरूरी है । कारण ? यह धारणा नितान्त भ्रामक व अधुरी है । कैसे ?
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के परिचय में ही यह उल्लेख है कि यह शिक्षा नीति “भारत द्वारा 2015 में अपनाये गये सतत् विकास एजेंडा 2030 के “लक्ष्य—4 ( SDG – 4 ) में परिलक्षित , वैश्विक शिक्षा विकास एजेण्डा के अनुसार विश्व में 2030 तक सभी के लिये समावेशी व समान गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन पर्यन्त शिक्षा के अवसरों को बढ़वा दिये जाने का लक्ष्य है। ( रा.शि.नीति पृष्ठ -3 )
इससे यह साबित होता है कि यह शिक्षा नीति सतत् विकास एजेन्डा 2030 के अनुसार है । इस पर यह प्रश्न खड़ा होता है कि यह सतत् विकास एजेंन्डा किसका है ? और भारत जैसे देशों को क्यों भेजा गया है ? तथा भारत द्वारा किसके हित में अपनाया गया है ? पाठक यही पर ध्यान दें । वह यह कि यह सतत विकास एजेंण्डा 2030 संयुक्त राष्ट संघ ( यू.एन.ओ.)का एजेंडा है । जिसे यू.एन.ओ. के निर्देशानुसार ही दुनिया के सभी देशों अर्थात सभी सदस्य देशों को 2030 तक लागू करना है । इन्हीं निर्देशों एजेण्डे अनुसार भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 बनाई गई है । न कि देश की जनता की जरूरतोनुसार बनायी गयी है ।
वैसे इतनी बात तो सच है कि चुंकि सरकार मोदी जी की है तो वही इस शिक्षा नीति को यू.एन.ओ. के निर्देशानुसार बनाई है और लागू भी कर रही है । तो भी इसे राष्ट्रीय शिक्षा नौति कहा जा रहा है । पाठक खुद सोचे कि जिस यू.एन.ओ. पर आज भी पांच देशों का ही वर्चस्व है उसके निर्देशानुसार लागू शिक्षा नीति को क्या राष्ट्रीय शिक्षा नीति कहा जा सकता है ?
इस पर आम तौर पर यह कहा जाता है कि जब संयुक्त राष्ट्र संघ यू.एन.ओ.का सदस्य भारत भी है जैसेकि दुनिया के तमाम देश है । और यू. एन.ओ. ने ही पूरी दुनिया के लिए सतत विकाश लक्ष्य तय किये है जिसका लक्ष्य—4 – शिक्षा से जुड़ा है । तो इसके निर्देशानुसार शिक्षा नीति बनाकर लागू करने में हर्ज ही क्या है ? तों पाठक ध्यान दें !
सामान्यतः तो इसमें कोई हर्ज प्रतीत नहीं होता है लेकिन अगर (यू.एन.ओ.) उदेश्य, चरित्र व इनकी बनावट को घ्यान से देखा जाय तो आप पायेंंगें कि हर्ज ही हर्ज है । यह ध्यान देने योग्य है, संयुक्त राष्ट संघ की स्थापना 24 अक्टूबर सन् 1945 में मुख्यत: अमेरीका, इंग्लैंड फ्रांस आदि साम्राज्यवादी देशों ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व में शान्ति कायम रखने हेतु बनाया था । उन्हीं साम्राज्यवादीयों का एवं रुस व चीन का आज तक इस पर वर्चस्व है ।
इन्ही पांच देशों को वीटो का अधिकार हासिल है । यही देश विशेषाधिकार सम्पन्न है । रूप में इन्ही के निर्णय अन्तिम निर्णय होते है। जबकि 193 देश इसके मात्र सदस्य हैं । भारत भी शुरू से ही इसका सदस्य रहा है । अब आप खुद सोचे कि 1945 में भारत इंग्लैंड का उपनिवेश था , . गुलाम था, स्वतंत्र था ही नहीं । तो इसकी सदस्यता का क्या मतलब ? वैसे आज भी जब भारत को संप्रभुता संपन्न कहा जाता है तो भी यू.एन.ओ. में इसका निर्णायक मत नही होता है । इसकी पुष्टि हमारे प्रधानमंत्री मोदी जी के द्वारा यू.एन.ओ. मे निर्णय लेने के अधिकार की निरन्तर मांग करने से होती है । तो ऐसे में क्या यू.एन.ओ. द्वारा भेजी गायी शिक्षा नीति सभी देशों पर समान रूप से लागू होगी ? ये संभव है ? नहीं । कारण ?
कारण ? मैं अगली भाग ( 2) में प्रस्तुत करुगा धन्यवाद
(वरुण दूबे गाजीपुर)