आज चंद्रशेखर आजाद का सहादत दिवस है। शत् शत् नमन

दैनिक समाचार
Chandra Shekhar Azad Jayanti 2021: Some inspirational statements related to Chandrashekhar  Azad

चंद्रशेखर आजाद का जन्म मध्य प्रदेश के अलीराजपुर जिले के भाबरा नामक स्थान पर 23 जुलाई 1906 में हुआ था। 1919 में हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड ने चन्द्रशेखर को झकझोर कर रख दिया था । 1920 में 14 वर्ष की आयु में चंद्रशेखर आजाद गांधी जी के असहयोग आंदोलन से जुड़े । 14 साल की ही उम्र में वह गिरफ्तार हुए और जज के समक्ष प्रस्तुत किए गए। जज के सामने पेश होने पर जज ने जब चन्द्रशेखर से उनका परिचय पूछा तो चन्द्रशेखर ने जवाब में कहा- मेरा नाम आजाद है, मेरे पिता का नाम स्वतंत्रता है और मेरा निवास स्थान जेल है। चन्द्रशेखर को 15 कोड़ों की सजा सुनाई गई। हर कोड़े पर चन्द्रशेखर ने दर्द से कराहने के बजाए वन्दे मातरम और भारत माता की जय के नारे लगाए। इसके बाद से लोग चन्द्रशेखर तिवारी को चंद्रशेखर आजाद के नाम से पुकारने लगे थे। चंद्रशेखर आजाद कहते थे कि ‘दुश्मन की गोलियों का, हम सामना करेंगे, आजाद ही रहे हैं, आजाद ही रहेंगे’ । उनके इस नारे को एक वक्त था कि हर युवा रोज दोहराता था । वो जिस शान से मंच से बोलते थे, हजारों युवा उनके साथ जान लुटाने को तैयार हो जाता था।

1922 में चौरी चौरा की घटना के बाद गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आज़ाद का भी कांग्रेस से मोहभंग हो गया । जिसके बाद राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल योगेशचन्द्र चटर्जी ने 1924 में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (HRA) का गठन किया । चन्द्रशेखर आजाद भी इस दल में शामिल हो गए । अंग्रेजो द्वारा की जा रही क्रूरतम दमनात्मक कार्रवाइयों के बीच, हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के संस्थापक राम प्रसाद बिस्मिल और तीन अन्य मुख्य नेता रोशन सिंह, राजेंद्र नाथ लाहिरी और अश्फकुल्ला खान की मृत्यु के बाद, 8-9 सितम्बर 1928 को नई दिल्ली स्थित फिरोजशाह कोटला के पुराने किले परिसर में आजाद के नेतृत्व और भगत सिंह के प्रस्ताव पर राजगुरु, सुखदेव, भगवतीचरण वोहरा जैसे क्रांतिधर्मी युवाओं के साथ मिलकर रिपब्लिकन एसोसिएशन को हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन (HSRA) के रूप में पुर्नगठित किया गया। उन्होंने अपने संगठन ‘हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के ‘द रिवोल्यूशनरी’ शीर्षक संविधान/घोषणा पत्र में ‘सोशलिस्ट’ शब्द जोड़कर ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (आर्मी)’ का गठन किया और कमांडर-इन-चीफ के तौर पर साफ ऐलान किया था, ‘हमारी लड़ाई आखिरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत या मौत’ । ‘समाजवाद’ के नाम पर भारत में प्रथम संगठन बनाने का श्रेय चंद्रशेखर आजाद को ही जाता है। वे इसके अध्यक्ष जीवनपर्यन्त 27 फरवरी 1931 तक रहे फिर यह संगठन ही बिखर गया किन्तु तब तक देश में स्वतंत्रता और समाजवाद की अलख जग चुकी थी। हिन्दुस्तान रिपब्लिकन सोशलिस्ट एसोसिएशन के स्थापना के समय क्रांति के लक्ष्य पर काफी बहस हुई अन्ततोगत्वा समाजवाद को अंतिम लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया। इसके घोषणा-पत्र को भारतीय समाजवाद का सबसे महत्त्पूर्ण दस्तावेज की संज्ञा दी जाय तो गलत न होगा। पहली बार दृढ़तापूर्वक किसी संगठन ने समाजवाद को अपना अंतिम लक्ष्य घोषित किया। इसके घोषणा पत्र में स्पष्ट शब्दों में लिखा है। …. ‘‘भारतीय पूंजीपति, भारतीय लोगों को धोखा देकर विदेशी पूंजीपति से विश्वासघात की कीमत के रूप् मे सरकार में कुछ हिस्सा प्राप्त करना चाहता है। इसी कारण मेहनतकश की तमाम आशाएं अब सिर्फ समाजवाद पर टिकी हैं और यही पूर्ण स्वराज्य और सब भेदभाव खत्म करने में सहायक सिद्ध हो सकता है”। इस घोषणापत्र को 1929 में ब्रिटानिया हुकूमत ने जब्त किया था। आमतौर पर किसी भी संगठन का घोषणापत्र उसके मुखिया की सोच को ही प्रतिबिम्बित करता है। इससे पता चलता है कि आजाद और उनके साथियों की समाजवाद में गहरी निष्ठा थी। वे स्वयं को समाजवादी कहना और कहलाना पसन्द करते थे, यद्यपि उनके लिये समाजवाद एक रूमानी व भाव-प्रवण अवधारणा हैं ।

आजाद भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन के सर्वोच्च सेनापति थे। भगत सिंह जैसे बौद्धिक क्रांतिकारी ने उनके नेतृत्व में कार्य किया। भगत सिंह के समाजवादी लक्ष्य के लिए उनके साथ कदम-से-कदम मिलाकर चलने में आजाद को कभी हिचक नहीं हुई। क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त ने एक बार आजाद का मूल्यांकन करते हुए कहा था कि समाजवाद के जिस सोपान पर भगत सिंह अनेक पुस्तकों के गंभीर अध्ययन के बाद पहुंचे, आजाद वहां अपने जीवन से पहुंच गए थे। आजाद बौद्धिक दुनिया के थे ही नहीं। वह अति निम्न गरीब तबके से आए थे। उनके लिए लक्ष्य कर्म प्रधान था। शिव वर्मा तथा भगतसिंह से अंग्रेजी में उपलब्ध क्रांतिकारी साहित्य को सुनते और उसे भारतीय परिप्रेक्ष्य में ढालकर क्रांतिकारी तथ्यपत्रों को छपवाकर बँटवाते थे। श्री शिव वर्मा ने लिखा है कि आजाद ने उनसे कार्ल माक्र्स की एक पुस्तक को दो बार पढ़वाकर सुना। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरू, प्रो0 यशपाल, भगवतीचरण वर्मा, भगवान दास माहौर, सदाशिव मलकापुरकर, बटुकेश्वर दत्त, प्रो0 नंदकिशोर निगम, विजय कुमार सिंहा जैसे मनस्वी व मननशील क्रांतिकारी कभी भी आजाद का नेतृत्व नहीं स्वीकारते यदि वे चिन्तनशील व क्रांतिकारी दर्शन में गहरी समझ नहीं रखते या कोरे बंदूकची होते। आजाद ने कभी भी अनावश्यक हिंसा की पैरवी नहीं की। 30 जनवरी 1930 में बाँटे व शिव वर्मा द्वारा लिखे गए पर्चा ‘‘फिलाॅसफी आफ बम-बम का दर्शन’’ को अंतिम प्रारूप आजाद ने ही दिया था जिस पर पूरे देश में चर्चा हुई और क्रांतिकारी गतिविधियों का वैचारिक पक्ष स्पष्ट हुआ।

चन्द्रशेखर आज़ाद जातीयता के घोर विरोधी थे इसीलिए उन्होने अपना नाम बदल कर चन्द्रशेखर तिवारी के बजाय चंद्रशेखर आज़ाद कर लिया था तथा जनेऊ तोड़कर फेक दिया था। एक बार कानपुर में एक संगठन के लोगों ने चन्द्रशेखर आज़ाद की मूर्ति का अनावरण करने के लिए दुर्गा भाभी को आमंत्रित किया जो क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा की पत्नी थीं जिन्हें सभी क्रांतिकारी दुर्गा भाभी के नाम से पुकारते थे। मूर्ति में चंद्रशेखर आज़ाद को जनेऊ पहने हुए दिखाया गया था। चन्द्रशेखर के मूर्ति रूपी शरीर पर जनेऊ देखकर दुर्गा भाभी ने कड़ी आपत्ति जताई और उन्होने कहा की आज़ाद मेरे सामने जनेऊ तोड़कर फेका था और तुम लोग इसे जातिवादी बना रहे हो। मै ऐसी मूर्ति का अनावरण नहीं कर सकती और दुर्गा भाभी बगैर मूर्ति के अनावरण किए ही वापस अपने घर लौट गयीं।

चंद्रशेखर आजाद स्वभाव से कठोर भी थे और सहज भी। उनका रहन सहन बहुत सादा था। खाना बिल्कुल रुखा सूखा पसंद करते थे। खिचड़ी उनकी सबसे पसंदीदा भोजन थी। वह अपने ऊपर एक रुपया भी खर्च न करते थे। ना उन्हें अपने नाम की परवाह थी और न ही परिवार की। एक बार भगत सिंह ने बहुत आग्रह कर उनसे पूछा था कि – “आजाद जी, इतना तो बता दीजिये, अपका घर कहाँ है और वहाँ कौन–कौन है? ताकि भविष्य में हम उनकी आवश्यकता पड़ने पर सहायता कर सकें तथा देशवासियों को एक शहीद का ठीक से परिचय मिल सके।” इतना सुनते ही आजाद गुस्से में बोले – “इतिहास में मुझे अपना नाम नहीं लिखवाना है और न ही परिवार वालो को किसी की सहायता चाहिये। अब कभी यह बात मेरे सामने नहीं आनी चाहिये। मैं इस तरह नाम, यश और सहायता का भूखा नहीं हूँ।” आजाद के इसी व्यक्तित्व के कारण हर किसी का शीश उनके लिये श्रद्धा से झुक जाता है। आजाद के माता–पिता की आर्थिक स्थिति बहुत दयनीय थी, पर देश पर मर मिटने को तैयार आजाद को परिवार की चिन्ता के लिये समय ही कहाँ था। उनके माता-पिता की उस स्थिति का पता गणेशशंकर विद्यार्थी को लगा तो उन्होंने 200 रुपये आजाद को देकर कहा कि इसे अपने परिवार वालो को भिजवा देना। किन्तु आजाद ने यह रुपये पार्टी के कामों में खर्च कर दिये। दुबारा मिलने पर विद्यार्थी जी ने रुपये भेजने के संबंध में पूछा तो आजाद ने हँस कर कहा – “उन बूढ़ा-बूढ़ी के लिये पिस्तौल की दो गोलियाँ काफी है। विद्यार्थी जी इस देश में लाखों परिवार ऐसे हैं जिन्हें एक समय भी रोटी नसीब नहीं होती। मेरे माता-पिता दो दिन में एक बार भोजन पा ही जाते है। वे भूखे रह सकते है, पर पैसे के लिये पार्टी के सदस्यों को भूखा नहीं मरने दूंगा। मेरे माता-पिता भूखे मर भी गये तो इस से देश का कोई नुकसान नहीं होगा, ऐसे कितने ही इसमें जीते मरते है।” इतना कहकर आजाद चले गये और विद्यार्थी जी केवल अचरज भरीं नजरों से उन्हें देखते ही रह गये।

आजाद के मन में भविष्य को लेकर बहुत सी अनिश्चिताऍ थी। गोलमेज सम्मेलन के दौरान यह निश्चय किया जाने लगा था कि कांग्रेस और अंग्रेजों के बीच में समझौता हो जायेगा। ऐसे में आजाद के मन में अनेक सवाल थे। उन्हीं सवालों के समाधान के लिये पहले वे मोतीलाल नेहरु से मिले किन्तु उनकी मृत्यु हो गयी और कोई समाधान नहीं निकला। इसके बाद वे जवाहर लाल नेहरु से मिलने के लिये गये। नेहरू ने आजाद को दल के सदस्यों को समाजवाद के प्रशिक्षण हेतु रूस भेजने के लिये एक हजार रुपये दिये थे, जिनमें से ४४८ रूपये आज़ाद की शहादत के वक्त उनके वस्त्रों में मिले थे। सम्भवतः सुरेन्द्रनाथ पाण्डेय तथा यशपाल का रूस जाना तय हुआ था पर १९२८-३१ के बीच शहादत का ऐसा सिलसिला चला कि दल लगभग बिखर सा गया। जबकि यह बात सच नहीं है। चन्द्रशेखर आजाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह एसेम्बली में बम फेंकने गये तो आजाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी। साण्डर्स हत्याकांड में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी की। आजाद की सलाह के खिलाफ जाकर यशपाल ने २३ दिसम्बर १९२९ को दिल्ली के नजदीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आजाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। भगत सिंह के साथ लाहौर में सांडर्स का वध करके लाला लाजपत राय की मौत का बदला लिया तो दिल्ली पहुंचकर असेंबली बमकांड को अंजाम दिया । अलबत्ता, असेंबली बम कांड में वे चाहते थे कि भगत सिंह की जगह कोई और बम फेंकने जाए । आजाद द्वारा इस बात पर जोर डालने का सबसे बड़ा कारण था कि उन्हें भगत से बहुत लगाव था और वे किसी भी कीमत पर उन्हें खो कर दल को कोई भी हानि नहीं पहुँचाना चाहते थे। किन्तु भगत सिंह के आगे उनकी एक ना चली और न चाहते हुये भी उन्हें अपनी सहमति देनी पड़ी। आजाद बहुत दुखी थे कि उनकी मनोदशा को उनके इन शब्दों से समझा जा सकता – “क्या सेनापति होने के नाते मेरा यही काम है कि नये साथी जमा करुँ, उनसे परिचय, स्नेह और घनिष्ठता बढ़ाऊ और फिर उन्हें मौत के हवाले कर मैं ज्यों का त्यों बैठा रहूं।” असम्बली कांड के बाद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फाँसी की सजा सुनायी गयी। इस फैसले से आजाद को बहुत दुख हुआ। उन्होंने भगत सिंह को जेल से भगाने के लिये बम्बई में संगठन खड़ा किया। वहाँ पृथ्वीराज से मिलकर उसे बम्बई में संगठन का नेतृत्व करने का दायित्व देकर स्वंय भगत सिंह और उनके साथियों को छुड़ाने का यत्न करने लगे। इसी प्रयास को सफल करने के लिये आजाद ने सुशीला दीदी (आजाद की सहयोगी) और दुर्गा भाभी को गाँधी के पास भेज चुके थे। उन्होंने गाँधी को एक प्रस्ताव भेजा था जिसमें उन्होंने कहा था कि यदि गाँधीजी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त की फाँसी को मंसूख करा सके और चलने वाले मुकदमों को वापस ले सके तो आजाद भी अपनी पार्टी सहित अपने को गाँधी जी के हाथों में सौंप सकते है, फिर वे चाहे कुछ भी करें। आजाद पार्टी को भंग करने को तैयार हो गये थे। गाँधी से भी उन्हें कोई संतोषजनक जबाब नहीं मिला, जिससे दल को बड़ी निराशा हुई, फिर भी प्रयत्न जारी रखे गये।

आज़ाद की भेंट नेहरु से आनन्द भवन में हुई थी उसका जिक्र नेहरू ने अपनी आत्मकथा में ‘फासीवादी मनोवृत्ति’ के रूप में किया है। जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैः– “आजाद मुझसे मिलने के लिये तैयार हुआ था कि हमारे जेल से छूट जाने से आमतौर पर आशाऍ बंधने लगी है कि सरकार और कांग्रेस में कुछ न कुछ समझौता होने वाला है। वह जानना चाहता था कि अगर कोई समझौता हो तो उसके दल के लोगों को भी कोई शांति मिलेगी या नहीं? क्या उसके साथ तब भी विद्रोहियों का सा बर्ताव किया जायेगा? जगह-जगह उनका पीछा इसी प्रकार किया जायेगा? उनके सिरों के लिये इनाम घोषित होते ही रहेंगे? फांसी का तख्ता हमेशा लटकता ही रहेगा या उनके लिये शांति के साथ काम-धंधे में लग जाने की सम्भावना होगी? उसने खुद कहा कि मेरा और मेरे साथियों का यह विश्वास हो चुका है कि आतंकवादी तरीके बिल्कुल बेकार है, उससे कोई लाभ नहीं है। हाँ वह यह भी मानने को तैयार नहीं था कि शांतिमय साधनों से ही हिन्दुस्तान को आजादी मिल जायेगी। उसने कहा कि आगे कभी सशस्त्र लड़ाई का मौका आ सकता है, मगर यह आतंकवाद न होगा।” यह कोई नहीं जानता कि इस नेहरु के इस वकत्व्य में कितनी सच्चाई है, लेकिन एक बात बहुत स्पष्ट है कि आजाद अपने लिये नहीं बल्कि अपने दल के साथियों के संबंध में बात करने गये थे।

विडंबना देखिए कि अपने अन्यतम साथियों- रामप्रसाद बिस्मिल, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, शचींद्रनाथ सान्याल, अशफाकउल्ला खान, राजेंद्र नाथ लोहिड़ी, रोशन सिंह और योगेश चंद्र चटर्जी आदि के साथ मिलकर स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र संघर्ष संचालित करते हुए आजाद जिस समाजवादी व्यवस्था की स्थापना का सपना देख रहे थे, उनकी शहादत ने उन्हें उसे साकार करने से वंचित कर दिया । फिर उनकी शहादत के सोलह वर्षों बाद हासिल हुई आजादी के कर्णधारों ने उसे साकार करना गैरजरूरी मान लिया और यात्रा की दिशा ही विपरीत कर दी ।चन्द्रशेखर आजाद का पूरा व्यक्तित्व भेदभाव और उपनिवेशवाद विरोधी रहा, वे हर प्रकार के मानवजनित और मानवीय शोषण के विरुद्ध रहे। वे चाहते थे कि भारत आजाद होकर समाजवाद के पथ पर चले और दुनिया का सिरमौर बने किन्तु आजादी के इस महानायक व महायोद्धा का सपना अभी भी अधूरा है। आजाद सदैव अपने भारतीय जनमानस में प्रेरणा-पुरुष के रूप में जीवित, जीवांत और प्रासंगिक बने रहेंगे, उनके विचारों और सपनों तथा उनकी अवधारणाओं की परिणति पर बहस होनी चाहिए। देश के इतिहासकारों व बुद्धिजीवियों ने चन्द्रशेखर आजाद के साथ काफी अन्याय किया है। उनकी विचारधारा एवं वैचारिक अवदान पर कभी भी विमर्श नहीं किया । स्वतंत्र भारत में लिखे गए आजादी की लड़ाई के इतिहास में आजाद को वह स्थान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे।
हमने महात्मा गांधी के आजाद भारत के सपनो का भारत देखा, डा अंबेडकर के संविधान का भारत देखा, जिसका आज ये हालात हैं कि युवा नौकरी ना होने की हताश में, छोटा व्यवसायी अपने छोटे उत्पादन के महंगे उत्पाद को बाजार के सस्ते मांग को पूरा करने में विफल होने पर आर्थिक नुकसान के हताश में, किसान, किसानी की बेहतर और सस्ता औजार ना मिलने के मलाल में और अपने फसल की लागत के नुकसान में आत्महत्या कर रहा है । आज जरूरत है, चंद्रशेखर आजाद और भगत सिंह के समाजवाद के सपनो का भारत बनाने की। जिससे हर बेरोजगार को रोजगार, हर व्यवसायी को मांग के अनुरूप सस्ता व अच्छा/टिकाऊ माल बाजार को दे सके, किसान को सस्ता व उन्नत औजार और उत्पादन की बेहतर कीमत मिल सके । रोजगारपरक, ज्ञानवर्धक और उपयोगी शिक्षा हो जिससे सबके अंदर भारतीयता की भावना हो, हम पहले भी भारतीय हैं और आखिर में भी भारतीय हैं । जंहा ना कोई हिन्दू हो ना मुसलमान, ना सिक्ख, ना ईसाई ! जंहा सब भारतीयता और भाईचारे के साथ खुशहाल/समृद्ध भारत के निर्माण में लगे हों । ये हमे समझना पडे़गा कि भारत के विकास के साथ ही हमारा विकास है । ऐसे ही समाजवादी भारत का निर्माण चाहते थे चंद्रशेखर तिवारी “आजाद” और भगत सिंह।

अजय असुर
राष्ट्रीय जानवादी मोर्चा

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