आकार पटेल
भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में हुई उस वोटिंग से खुद को अलग रखा जिसमें यूक्रेन पर रूसी हमले की निंदा का प्रस्ताव पास होना था.
वैसे हम (भारत) सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य नहीं हैं. भारत ने कहा कि “वह यूक्रेन पर हुए हमले से बेहद विचलित है और हिंसा रोकने की अपील करते हुए किसी भी क्षेत्र की संप्रभुता और अखंडता के पक्ष में हैं और इस कारण से खुद को वोटिंग से अलग रख रहा है.
भारत का यह रुख थोड़ा अटपटा लग सकता है क्योंकि भारत एक तरफ तो यूक्रेन पर रूस के युद्ध के खिलाफ दुनिया के साथ होने की बात कर रहा है, लेकिन साथ ही इस हमले की निंदा करने से बच रहा है.
लेकिन हकीकत यह है कि “भारत कूटनीति के सबसे खराब और मुश्किल दौर से गुजर रहा है. भारत की कुल सैन्य सामग्री का आधे से अधिक रूस से ही आता है. मसलन हमारे 96 फीसदी जंगी टैंक रूसी हैं. हमारा एकमात्र विमान वाहक पोत और न्यूक्लियर हथियारों से लैस पनडुब्बी भी रूसी ही है. हमारे 71 फीसदी लड़ाकू विमान रूसी हैं और सभी 6 हवाई टैंक भी रूस में ही निर्मित हैं.
ये सब कोई गोपनीय सूचना नहीं है, बल्कि यह संख्या तो अमेरिकी कांग्रेस की रिसर्च सर्विस ने जारी की है!
युद्ध की स्थिति में- और यहां तक की लगातार होने वाले युद्धाभ्यासों के लिए भी- इन सभी अत्याधुनिक जंगी हथियारों के कल-पुर्जे और सर्विस आदि के लिए हमें रूसी सप्लायर पर ही निर्भर रहना है.
इसके अलावा विशेषज्ञ रूस को लद्दाख मामले में, हमारे और चीन के बीच शांति वाहक के तौर पर देखते हैं.
ऐसे में हम पुतिन को नाराज करने का जोखिम नहीं उठा सकते.
वैसे तो संयुक्त राष्ट्र में भारत की वोटिंग का कोई खास महत्व नहीं है क्योंकि हम सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्य तो हैं नहीं और फिर रूस ने स्थाई सदस्य के तौर पर इस प्रत्साव में वीटो ही कर दिया था.
उसे पता था कि निंदा प्रस्ताव गिर ही जाना है.
फिर भी यह एक ऐसा मौका था जब रूसी आक्रामता के खिलाफ पूरा विश्व एक हो सकता था और ऐसे समय में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र ने उस देश का पक्ष न लेने का फैसला किया, जिस पर हमला हुआ था. वैसे चीन ने भी इस वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया.
वर्तमान सरकार के शासन में भारत की विदेश नीति अपनी उस लय में नहीं रह गई है क्योंकि उसके पास दृष्टि नहीं है.
एक स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर ऐतिहासिक तौर पर भारत ने खुद को एक ऐसी प्राचीन भूमि के तौर पर पेश किया है जो सेक्युलर और समावेशी परंपराओं का पालन करता है, लेकिन 2014 के बाद से बिना किसी अधिकारिक नीति परिवर्तन के ही यह बदल गया है! यानी यूं तो कोई ऐसी लिखित नीति नहीं है कि भारत की शासित नीति हिंदुत्व है.
हाल में हुए अध्ययन बताते हैं कि सरकार ने राजनयिकों को ऐसे निर्देश देने शुरु कर दिए हैं कि वे विदेशों में भारत की हिंदू परंपराओं पर ज्यादा से ध्यान दें और उनसे जुड़े आयोजन करें.
इससे कुछ राजनयिक असहज भी हुए लेकिन इस बदलाव के साथ ही ऐसे राजनयिकों की भर्तियां भी हुईं जो कि बीजेपी की विचारधारा से सहमत थे.
इस सरकार के पहले पांच साल में इन बदलावों का कोई खास महत्व नहीं रहा क्योंकि भारत में भी बहुत हद तक उस दौरान इसकी विचारधारा का खुला प्रदर्शन नहीं हो रहा था.
लेकिन 2019 के के बाद से राजनयिकों को रक्षात्मक मुद्रा में रखा गया, क्योंकि विचारधारा देश के अल्पसंख्यकों के खिलाफ अपना नुकीलापन तीखा कर रही है.
2019 की दूसरी जीत के बाद देश में भीतरी तौर पर ऐसे-ऐसे कदम उठाए गए, जिसका असर बाहरी दुनिया तक में देखा गया!
सबसे पहले तो कश्मीर से अनुच्छेद 370 को रद्द करने का निर्णय था, जिसके साथ सभी कश्मीरियों पर 17 महीने के लिए इंटरनेट नाकेबंदी की गई थी.
कश्मीरी बच्चों को 2020 में पूरे साल तक ऑनलाइन शिक्षा से वंचित रखा गया.
संयुक्त राष्ट्र प्रतिनिधि सभा में कश्मीरियों पर भारत सरकार की कार्यवाहियों के खिलाफ निंदा प्रस्ताव भी आया था. यह प्रस्ताव आगे नहीं बढ़ पाया क्योंकि तब अमेरिका में रिपब्लिकन की सरकार थी और ट्रंप को हम मित्र मानते थे, लेकिन जो बाइडेन के सत्ता संभालने के चंद दिनों में ही भारत ने कश्मीर में लगाए गए 17 महीने पुराने प्रतिबंध उठा लिए!
इसका कारण तो यही माना गया कि ट्रंप के बाहर जाने के बाद अमेरिका ने हम पर दबाव बनाया था.
कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के कुछ दिनों बाद ही, सरकार ने नागरिकता संशोधन विधेयक पास कर दिया! पूरी दुनिया इससे एक बार फिर चौकस हो उठी.
यूरोपीय संसद में भारत के इस कदम के खिलाफ निंदा प्रस्ताव लाया गया.
यहां खबरें आई थीं कि इस प्रस्ताव के पास होने की संभावना है. लेकिन भारतीय कूटनीतिज्ञों ने किसी तरह इसे टाल दिया, लेकिन आपसी समझ संभवत: यह बनी थी कि भारत नागरिकता संशोधन कानून (CAA) को लागू नहीं करेगा!
यह कानून अभी भी लागू नहीं किया गया है.
ये चंद वह बातें हैं, जिनसे भारतीय राजनयिकों को इससे पहले दो चार नहीं होना पड़ता था, खासतौर से उन देशों के साथ, जिन्हें हम अपना मित्र मानते रहे हैं;
लेकिन विरोधाभास यह है कि हम बाहरी दुनिया में तो खुद को सेक्युलर और बहुलतावादी दिखाते हैं लेकिन घर में इससे उलट हमारी नीतियां रहती हैं.
इसके साथ ही हमने अपने लिए एक और समस्या अपने पड़ोसियों को लेकर खड़ी कर ली है. यह भी अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद ही विकराल हुई है. इनमें से एक है लद्दाख में चीनी आक्रामकता!
हमें चीन के दबाव में न आते हुए जवाब देना चाहिए था, लेकिन हम रूस के भी मित्र हैं (जो कि पश्चिम के खिलाफ चीन के साथ है)
हम सैन्य तौर पर अमेरिका के नजदीक आना चाहते हैं और उसके साथ 2014 के बाद से कई समझौतों पर दस्तखत भी किए हैं लेकिन वे कहां तक पहुंचे हैं, उसका अता पता नहीं है.
क्वाड गठबंधन नौसैनिक क्षेत्र में साझेदारी के लिए था, लेकिन इस भूमिका को फिलहला ऑकस (AUKUS) को दे दिया गया है जो कि क्वाड का हिस्सा नहीं है और क्वाड सिर्फ वैक्सीन के मामले ही देख रहा है.
हमारे विदेश मंत्री एस जयशंकर कहते हैं कि दुनिया बहुआयामी है भारत को भी अवसरवादिता अपनाते हुए पूर्व में किए गए संकोच को छोड़ना होगा, लेकिन जो कुछ सामने आ रहा है उससे लग रहा है कि हमारी कोई खास सिद्धांत है ही नहीं और हमे पता ही नहीं है कि दुनिया से कैसे व्यवहार किया जाए!!
इस बात को संपन्न करना थोड़ा मुश्किल है कि विश्व में हमारी साथ में कमी आई है, क्योंकि हमने अपने घर में जो कुछ करने की ठान रखी है, उसका असर पड़ा रहा है.
दूसरी तरफ हमने इस दौरान नए दोस्त या सहयोगी भी नहीं बनाए हैं!
सौभाग्य से हम इस पर बहस नहीं कर रहे हैं और इसे मान भी नहीं रहे हैं, लेकिन हमारी वैश्विक पहचान की अहमियत खुले में नमाज पढ़ने, बीफ के मसले और हिजाब के विरोध से कहीं कम रह गई है.
(नवजीवन से साभार।
लेखक एम्नेसटी इंटरनेशनल इंडिया के अध्यक्ष हैं)