10 मार्च को 5 राज्यों के विधानसभा परिणाम आने हैं और इस परिणाम पर ईवीएम का कितना रोल?
चुनाव सम्पन होने के बाद कुछ लोगों का ईवीएम को लेकर विधवा विलाप शुरू हो जाता है। ये विलाप करता कौन है? प्रत्याशी/पार्टी या उनके समर्थक और उनके वोटर?
चुनाव हारने के बाद हार का ठीकरा किसी ना किसी पर तो फोड़ना ही पड़ता है। कुछ ही प्रत्याशी ऐसे होते हैं जो ईमानदारी से अपनी हार कबूल कर लेते हैं पर अधिकतर तो अपनी हार कबूल करने के बजाये अपनी हार की जिम्मेदारी ई वी एम को देते हैं। चुनाव मैदान में उतरने से पहले क्या ये बात इन प्रत्याशियों को नहीं मालूम कि चुनाव ई वी एम से होना है और ई वी एम से हेराफेरी कर सामने वाली पार्टी हमको हरा देगी? निश्चित ही सभी प्रत्याशियों को ये सब मालूम है तो फिर चुनाव लड़ क्यूँ रहे हो जब ई वी एम के जरिये हारना तय है। जब भरोसा ही नहीं ऐसी प्रणाली पर तो। जब तक इस प्रणाली को बन्द कर पुरानी बैलेट पेपर वाली प्रणाली लागू नहीं की जाती तब तक सभी पार्टियों को चुनाव बहिष्कार कर चुनाव में अपने प्रत्याशी नहीं उतारने चाहिये और साफ-साफ कहना चाहिये कि आपकी इस प्रणाली पर हमें भरोसा नहीं और जब आप ईवीएम को हैक/हेरफेर कर चुनाव जीत जाएंगे तो ऐसे ही निर्विरोध जीत जायें इससे चुनाव कराने की क्या जरूरत और चुनाव में खर्च होना वाला जनता का धन भी बच जायेगा। इतना ऐलान कर देने भर से निश्चित ही आपकी पुरानी मतदान प्रणाली बैलेट पेपर से चुनाव को चुनाव आयोग कराने की घोषणा कर देगा।
निश्चित ही चुनाव में भाग लेने वाली सभी पार्टियों को तो भरोसा है इस वर्तमान चुनाव प्रणाली ईवीएम पर और सभी प्रत्याशियों को भी। इसीलिये इसी प्रणाली में चुनाव में भाग लेने को तैयार रहते हैं और हारने के बाद अपनी नाकामी छुपाने के लिये ईवीएम का सहारा लेते हैं। चलिये एक बारगी मान भी लेते हैं कि ऐसा जिगर नहीं सभी पार्टियों को ऐसा ऐलान करने का या चुनाव आयोग नहीं मानती और चुनाव मैदान में सभी उतर जाते हैं तो फिर हार के बाद धरना क्यूँ नहीं देते इस ईवीएम को हैक/हेराफेरी के लिये? कोर्ट में जाकर स्टे क्यूँ नहीं लेते इस हैक/हेराफेरी के लिये? जब पार्टियों की अपने पर बात आती है तो हजारों-लाखों की संख्या में सड़क पर उतरकर सड़क जाम कर देते हैं पर ईवीएम में गड़बड़ी पर क्यूँ नहीं? जनता को दिखावे के लिये एक-आध प्रत्याशी कोर्ट चले जाते हैं पर पैरवी ना करने के कारण कुछ नहीं होता।
अब आते हैं प्रत्याशियों पर, एक विधानसभा में चुनाव खर्च चुनाव आयोग ने वर्तमान में तो 40 लाख रुपये तय किया पर एक प्रत्याशी जो जीतने के उद्देश्य से लड़ रहा है कम से कम 5 करोड़ रूपया खर्च करता है। इसी तरह लोकसभा चुनाव में चुनाव आयोग एक लोकसभा सीट के पर अधिकतम 95 लाख रुपये निर्धारित किया है पर लड़ने वाला प्रत्याशी कमसेकम 20 करोड़ रूपया खर्च करता है और ज्यादे की कोई सीमा नहीं। इन प्रत्याशियों को निर्धारित की गयी रकम के अन्दर ही अपना चुनावी खर्च दिखाना है। तो निर्धारित की गयी रकम से जो ज्यादा पैसा जो खर्च होता है वो निश्चित ही काला धन होता है और उसका कोई हिसाब-किताब नहीं देना होता है। इन चुनावों में अरबों-खरबों रुपये जो काला धन के रूप में है, खपाया जाता है और माननीय प्रधानमंत्री जी कहते हैं कि नोटबंदी से सारा कालाधन खत्म हो गया। तो साथियों ये चुनाव में खर्च रकम क्या है? कोई बताएगा? खैर मुद्दा ईवीएम का है उसी पर आते हैं। इस कालेधन और चुनावी खर्च पर दूसरे लेख में।
जो प्रत्याशी चुनाव में जीतने के उद्देश्य से खड़ा होता है वह करोड़ों रुपये खर्च करता है तो यदि जिस प्रत्याशी को मालूम चल जाये कि हारना तय है वजह जो भी हो, तो वो प्रत्याशी अपना चुनावी खर्च सिकोड़ लेगा और चुप-चाप बैठ जायेगा। जैसे कांग्रेस और भाजपा अपने प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने के लिये एक बड़ी रकम देती है और जिन प्रत्याशियों को अंदाजा है कि चाहे जितना खर्च करें हार जायेंगे तो वो मिले धन से थोड़ी सी रकम खर्च करता है बाकी पैसा बचा लेता है। तो जब हमें मालूम है कि ईवीएम के जरिये हम हार जाएंगे तो फिर चुनाव में करोड़ों रूपया तो नहीं खर्च करूंगा। अब यंहा जनता के दिमाग में भ्रम फैलने के लिये एक और शिगूफा छोड़ा जाता है कि सभी सीटें पर ईवीएम हैक नहीं किया जाता है। कुछ सीटों पर ही किया जाता है क्योंकि यदि सभी सीटों पर ईवीएम हैक कर सत्तारूढ़ पार्टी चुनाव जीतती है तो जनता को ईवीएम हैकिंग पता चल जाएगा और जनता विद्रोह कर देगी। गजब की थ्योरी देते हैं भाई। अरे भाई आज देश की अधिकांश जनता ईवीएम हैकिंग की बात करती है और चुनाव बाद कहती भी है कि हमने और हमारे जानने वालों ने तो फलनवा को वोट दिया नहीं तो ससुरा जीता कैसे? निश्चित ही ईवीएम से खेला, खेला गया। तो जनता तो सब जानती ही है और कैसे जानेगी?
यदि किसी-किसी सीट पर ईवीएम हैक कर सत्तारूढ़ दल अपना बहुमत लाती है तो फिर अन्य दल के प्रत्याशियों के लिये तो बहुत ही बड़ा जुंवा है। यदि इन प्रत्याशियों को अपने 5 करोड़ लगाकर किसी बिजनेस को करने को कहा जाये तो अधिकतर प्रत्याशी तैयार नहीं होंगे और कहेंगे वो धंधा नहीं चला तो सारा पैसा डूब जायेगा। रिस्क नहीं लेना चाहते बिजनेस में पर यंहा चुनाव में, जंहा हारना (क्योंकि यदि ईवीएम इसी सीट पर सेट हुई तो) लगभग तय है उसके बावजूद इतना बड़ा रिस्क उठाते हैं पर बिजनेस में नहीं जंहा चुनाव से सफल होने के चांस कंही ज्यादा है। तो निश्चित ही ये बात भी गलत साबित होती है।
चुनाव हारने के बाद हारा प्रत्याशी चुप-चाप बैठ जाता है कुछ लोग अपने छेत्र में अपने लोगों के बीच हो-हल्लाकर वो भी चुप-चाप बैठ जाते हैं। पर उस पार्टी और प्रत्याशी के समर्थक और वोटर जिन्होंने उस हारे हुवे प्रत्याशी को वोट दिया है वो विधवा विलाप करना शुरू कर देते हैं। चुनाव के दौरान चुनाव तक कोई नौटंकी नहीं बस चुनाव गिनती के बाद से ही ईवीएम पर दोश निकालना शुरू। यदि वो प्रत्याशी इस बार जीता तो ईवीएम दोषी नहीं और अगली बार हारते ही ईवीएम दोषी! यदि वाकई ईवीएम को हैक करके सत्तारूढ़ दल सत्ता प्राप्त करता है तो फिर मामूली ही अंतर क्यूँ? और वो भी कंही 10-20-50-100-200-500-1000-2000 के मामूली अंतर से क्यूँ? अभी 2020 के बिहार के विधानसभा चुनाव में भाजपा कई सीटों पर छोटे से अंतर से जीती है और कई सीटों पर तो मामूली अंतर से हार गयी पर बैलेट पेपेर से की गयी गिनती में हुई धांधली से जीती। यानी ईवीएम से हार और बैलेट से जीत आखिर क्यूँ? ईवीएम को सेट करने के बाद भी बाद भी हार और हार को जीत में बदलने के लिये खुलेआम गिनती के समय शासन-प्रशासन के बल पर गुंडई कर जितना। कैसे ईवीएम को सेट करते हैं कि बाद में भी शासन-प्रशासन को दुबारा मशक्कत करनी पड़ती है और दुबारा वाला मशक्कत तो खुलेआम दिखाई देती है। मजे की बात ये है कि ईवीएम को को सेट/हैक करना ये चुप-चाप गुप-चुप तरीके से अन्दर-अन्दर शासन-प्रशासन के साथ चुनाव आयोग कर सकता है तो फिर बाद में खुले-आम ये गुंडई कर धांधली क्यूँ?
यदि ईवीएम हैक/सेट कर सत्तारूढ़ दल चुनाव जीतता है तो दिल्ली विधानसभा 2015 में सत्तारूढ़ भाजपा को कुल 3 सीट मिली और 2020 चुनाव में 8 सीट पर पर भाजपा प्रत्याशी जीते क्यूँ? दिल्ली चुनाव में ईवीएम से हैकिंग क्यूँ नहीं किया? इसी प्रकार अभी पंजाब चुनाव में भाजपा दिल्ली वाली स्थिति होगी तो वंहा क्यूँ नहीं चला ईवीएम का जादू? पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में भाजपा को 2016 में 3 सीट मिली और 2021 में पूरी ताकत झोंककर 77 सीट ही लेकर आयी और एक्जिट पोल में भी भाजपा सत्ता के करीब पहुँच गयी थी तो फिर ईवीएम को हैक कर सत्ता में क्यूँ नहीं आयी और उस जीत के बड़े मायने होते भाजपा के लिये? क्योंकि दिल्ली की सड़कों पर दिल्ली को घेरे किसान सड़कों पर 6 महीनों से बैठे थे और संयुक्त किसान मोर्चा ने भी भाजपा को हराने की भरपूर कोशिश की थी। तो भाजपा वंहा जीतकर बड़ा संदेश दे सकती थी पर ऐसा हुवा नहीं क्यूँ? ईवीएम हैककर/सेटकर पश्चिम बंगाल में अपनी सरकार बना और मजबूत हो सकती थी भाजपा। किसी भी राज्य में इतनी मेहनत और पैसा पानी की तरह बहाकर प्रचार-प्रसार क्योँ कर रही है? बस शासन-प्रशासन को इस्तेमाल कर ईवीएम हैककर जीत ले क्योंकि चुनाव सम्पन होने के बाद और गिनती शुरू होने तक ईवीएम का हेराफेरी/अदलाबदली करना ज्यादा कठिन और रिस्की है तो ये कठिन और रिस्की काम क्यूँ कर रही है वर्तमान सत्तारूढ़ दल। और तो और खुलेआम तो नहीं करना चाहेगा कोई और यंहा तो ऐसे ढेरे विडियो सोशल मीडिया से पटे मिल जायेंगे जो ईवीएम को बदलने के लिये पैदल तक ईवीएम को ढोते दिखाया जा रहा है। कई गाड़ियों में ईवीएम को ले जाते भी दिखाया जा रहा है पर इस तरह खुलेअम और वो भी बिना किसी पुलिस व्यवस्था के बिना। इस तरह से तो दबंग प्रत्याशी और उनके दबंग समर्थक क्यों नहीं उनको पड़ पुलिस के हवाले कर देते हैं? इस तरह के किसी भी विडियो को प्रत्याशी या पार्टी का कोई बड़ा पदाधिकारी क्यूँ नहीं बनाता? सिर्फ उनके वोटर और समर्थक ही क्यूँ विडियो में नजर आते हैं और वही बनाते हैं? यदि ईवीएम को हैककर/सेटकर अपने पक्ष में मतदान कराया जाता तो फिर मतदान के बाद ये ईवीएम का अदलाबदली का खेल क्यूँ?
ऐसे तो बैलेट पेपर से भी चुनाव करवा लें तो बाद में अदला-बदली की ही जा सकती है और इस ईवीएम से ज्यादा आसानी से और वैसे भी इस ईवीएम के अदला-बदली पर प्रत्याशी और पार्टियां भी उतनी आक्रामक मुद्रा में क्यों नहीं? जितनी आक्रामक मुद्रा में विपक्ष प्रत्याशी समर्थक और उनके वोटर हैं। जब इस तरह से ईवीएम वोट पड़ने के बाद बदल ही डाला गया तो प्रत्याशी और पार्टी को इसके खिलाफ कमसेकम कोई एक्शन तो लेना चाहिये पर इसपर प्रत्याशी और पार्टी अपने वोटरों के हाँ में हाँ मिलाने के अलावा चुप-चाप गिनती का इंतजार करते हैं इक्का दुक्का को छोड़कर।
ऐसे कई राज्यों के चुनाव में भाजपा हारी है और कंही तो बहुत ही नजदीक से ही हार जीत का अंतर रहा है। आखिर क्यूँ ईवीएम के जरिये पूर्ण जनादेश नहीं? अधूरे जनादेश के बाद करोड़ों रुपये खर्चकर विधायकों के खरीद-फरोख्त की माथापच्ची क्यूँ? सीधे ईवीएम के जरिये ही बिना माथापच्ची किये, करोड़ों रुपये बचा लेते और मेहनत और समय बचती सो अलग। कोई भी पार्टी नहीं चाहेगी जब शासन-प्रशासन उसके हाथ में हो तो कंही भी किसी भी राज्य में उसकी पार्टी चुनाव हारे। तो फिर ये हैकिंग/सेटिंग और ये हेरफेर और ये ईवीएम की अदलाबदली कुछ ही सीटों और कुछ ही राज्यों तक सीमित क्यूँ? अब ये मत कहना कि जनता जान जाएगी और विद्रोह कर देगी। सत्तारूढ़ पार्टी के बड़े नेता जैसे अरुन जेटली कभी चुनाव नहीं जीते उन्हें राज्यसभा के जरिये ही पहुंचाया गया है, जैसे नेता क्यूँ हार जाते हैं? और ईवीएम हैककर छोटे-मोटे प्रत्याशी को जीता दिया जाता है। ऐसे कई बड़े नेता चुनाव में हार जाते हैं तो इसे क्या समझा जाये कि सत्तारूढ़ दल अपने बड़े नेता को जानबूझ कर हराया जाता है?
अब जरा दिमाग लगाइये कि ईवीएम को लाने वाला कौन? कांग्रेस और आज कांग्रेस ही सत्ता से बाहर! यदि ईवीएम से इस तरह सत्ता में भाजपा बनी रह सकती है तो कांग्रेस क्यों नहीं ईवीएम हैककर बनी रह पाई? जब कांग्रेस सत्ता में थी तो भाजपा, आम आदमी पार्टी सहित सभी विपक्षी दल भी ईवीएम को दोष देते थे और आज जब भाजपा सत्ता में है तो कांग्रेस और बाकी विपक्षी दल ईवीएम को दोष देने का खेल खेलते हैं। जो पार्टी विपक्ष में होती है तो चुनाव निपट जाने पर हार के बाद ईवीएम को लेकर सिर्फ जोर शोर से बयानबाजी कर जनता को भरमाती है और जब वही पार्टी सत्ता में आ जाती है तो ईवीएम ठीक है। चुनाव हारने के बाद ही क्यूँ विपक्षी पार्टी और हारे हुवे प्रत्याशी ईवीएम-ईवीएम खेलते हैं? चुनाव के पहले या चुनाव के वक्त क्यूँ नहीं? चुनाव के बाद ही ईवीएम को हैक कर क्यूँ दिखाया जाता है चुनाव से पहले क्यूँ नहीं? इसी तरह से प्रत्याशी मतदान तक ईवीएम पर पूरी तरह से भरोसा रख खामोश रहता है और मतदान के बाद विशेषकर गिनती के बाद यदि जीत गये तो ठीक और हार के बाद ईवीएम का विधवा विलाप शुरू। ये ईवीएम पर विधवा विलाप मतदान से पूर्व क्यूँ नहीं?
स्नातक विधान परिषद का चुनाव बैलेट पेपर से हुवा और उसमें लखनऊ समेत कई सीटों पर खुलेआम जबरदस्ती भाजपा ने गुंडई कर शासन-प्रशासन के बल पर चुनाव में गिनती के वक्त धांधली कराकर जबरदस्ती अपने प्रत्याशियों के पक्ष में दूसरे प्रत्याशियों के वोट को गिनती कराया और कंही जबरदस्ती रिटर्निंग आफिसर से हारे हुवे भाजपा प्रत्याशी को जीत का सर्टिफिकेट दिया। तो बैलेट पेपेर से दूसरे के मत को अपने में गिनवाना ज्यादा आसान और बेहतर है।
पहले जब बैलेट पेपर से चुनाव होता था तो कई जगह रास्ते में बैलेट पेपर लूट लिया जाता था, लोग जबरदस्ती बैलेट पेपर पर ठप्पा लगा देते थे और गिनती के वक्त दूसरे का वोट दूसरे प्रत्याशी में गिनवा दिया जाता था। आज भी ईवीएम में धांधली से चुनाव जीते जाते हैं पर गिनती के दौरान ही, शासन-प्रशासन के दबाव में अधिकारी ही कराते हैं। अब आप स्वयं देखें कि चुनाव में प्रत्याशियों के हार पर प्रत्याशी और पार्टी से ज्यादा विधवा विलाप उनके समर्थक और वोटर करते हैं और वो भी गिनती के बाद।
तो फिर ये ईवीएम का नाटक क्यूँ? असल मुद्दा क्या है? ईवीएम या फिर बेरोजगारी? भ्रष्टाचार? महंगाई? सूदख़ोरी? जमाखोरी? निजीकरण? किसानो के फसल की उचित कीमत?…. इन असल मुद्दों पर जनता का ध्यान ना जाये तो इसी ईवीएम के सहारे शासक वर्ग इन असल मुद्दों को दबा देता है और जनता भी उन्हीं के दिये हुवे मुद्दे को उछालती है। और जनता उनके इसी फेर में आकर असल मुद्दों को छोड़ ईवीएम-ईवीएम के खेल-खेल में फंस जाती है। किसी से भी पूछा जाये कि आपकी मूल समस्या क्या है तो निश्चित ही बेरोजगारी? भ्रष्टाचार? महंगाई? सूदख़ोरी? जमाखोरी? निजीकरण? किसानो के फसल की उचित कीमत?…. इन्हीं में से एक आध समस्या गिनवायेगा पर ईवीएम तो नहींयै बतायेगा। ये मुद्दे चुनाव से पहले पांच साल तक हावी रहता है पर चुनाव के नजदीक आते ही बेरोजगारी? भ्रष्टाचार? महंगाई? सूदख़ोरी? जमाखोरी? निजीकरण? किसानो के फसल की उचित कीमत?…. जैसे असल मुद्दे के ऊपर ईवीएम जैसा मुद्दा हावी हो जाता है क्योंकि ये मुद्दा जनता का नहीं शासक वर्ग का दिया हुवा है। ईवीएम और मुफ्त बांटने की चीजों का मुद्दा जो शासक वर्ग उछालती है उसको जनता मुख्य मुद्दों को भूल इन गौण मुद्दों को पकड़कर शासक वर्ग का काम आसान कर देती है और फिर जनता 5 साल बैठकर अपने मूल मुद्दों पर ध्यान आता है तो फिर 5 साल का इंतजार….
अजय असुर
राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा