प्रोफेसर संजीव गुप्ता लिखते है—

दैनिक समाचार

लिटमस टेस्ट ऐसे test होते है, जो पदार्थ का तात्विक गुण बता देते है, कि यह अम्लीय है या क्षारीय!

यदि आज के समाज का लिटमस टेस्ट करना हो तो मेरे लिए यह test था लखीमपुर के निघासन में. बिल्कुल शांतिपूर्ण तरीके से वापस जा रहे किसानों के ऊपर जानबूझ कर गाड़ी चढ़ा देने वाली घटना के बावजूद, वहां से भाजपा का जीतना!

यह इकलौता experiment है जो यह सिद्ध कर देता है कि “हमारे समाज मे अम्ल इतना घुल चुका है कि, हमारा तात्विक रूप ही अम्लीय हो चुका है!

समाज भीतर से बदल चुका है, वरना कोई भी मानव समाज इस घटना को, पक्ष विपक्ष, विरोध सहमति, दोस्ती दुश्मनी से परे देखता परखता और एक सुर में निंदा करता और फिर शर्म से सर झुका लेता!

यही समाज की यथा स्थिति है.
यह समाज चुनावी राजनीति गोलबंदी में बिल्कुल रोबोट की तरह programmed जेहनी गुलाम हो चुका है.

इस राजनीति को, हमे एक सचेत नागरिक तो छोड़िये, सहज सामान्य मनुष्य के रूप में रहना भी गवारा नही!

मनुष्य होने की बुनियादी शर्त है कि उसके भीतर करुणा का भाव तो अवश्य होता है, करुणा यानी दूसरे के दुख से दुखी होने का नैसर्गिक मानव मूल्य!

हमारे समाज मे अब भी नही बचा! हम इस हद तक बदल चुके है!

ऐसा नही है कि भाजपा के आने से यह हुआ है, फर्क बस इतना है कि यह भाजपा की राजनीति का आधार है और बाकियों के लिए यह अवसर होता था!

यह विषय मेरे दिमाग को बरसों से मथ रहा था, जब मणिपुर या मिजोरम की स्त्रियों ने, सैन्य मुख्यालय के आगे निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया और नारे लगाए कि “आओ, हमारा बलात्कार करो…..”

आप कल्पना कर सकते है कि एक सभ्य समाज मे वह कैसी परिस्थितियां होगी, वह कैसी अकथ, अंतहीन पीड़ा और बेबसी होगी, जिसने उन स्त्रियों को आंदोलन के इस form को अपनाने पर मजबूर किया होगा? यह हमारे आपके कल्पना से परे है.

इसके अलावा भी जब मणिपुर के एक बस स्टैंड पर सेना ने, अंधाधुंध फायरिंग कर कुछ निर्दोष मणिपुरी लोगो को मार दिया और उस एक घटना की प्रत्यक्षदर्शी-इरोम शर्मिला-उससे इतनी विचलित हुई कि घटना के बाद, उसने 16 साल तक अनवरत भूख हड़ताल की! उसे अनेक बार attempt to suicide के मुकदमे में साल साल भर की सजा हुई, मगर वह डिगीनहीं!

अंत मे उसने चुनाव भी लड़ा और उसे 100 वोट भी नही मिले! यह भी एक समाज की कृतघ्नता का लिटमस टेस्ट ही था!

वोट का गणित ही अलग होता है, यह न्याय और अन्याय, उचित अनुचित से परे का शास्त्र है.

हम अब ऐसे निहायत अमानवीय शास्त्र से संचालित हो कर अमानुष में बदल चुके है!

आपको इसमें हताशा निराशा झलक रही होगी, मगर यह किसी हताश निराश व्यक्ति का आत्मालाप या प्रलाप नही है, यह समाज के सच से सामना करने कराने वाला सुविचारित वक्तव्य है (जो गलत भी हो सकता है), परंतु मैं निराश हताश नही हूँ, क्योंकि इतिहास और राजनीति दोनों पढ़ता हूँ, और मानव समाज के विकास की यात्रा के दस बीस पचास सौ साल के काल खंड के आलोड़न विलोड़न और विपर्यय से विचलित नही होता.

समाज की गति कभी एकदिश और एकरेखीय नही होती.

हां, मैं दुखी जरूर हूँ, दुखी इसलिए कि “हम एक समाज के तौर पर समय मे लगातार पीछे जा रहे है और गाड़ी भी रिवर्स गेयर मे है!”

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