चन्द्रकान्ता देवताले के कविता संग्रह का नाम है—‘लकड़बग्घा हँस रहा है’। मैंने लकड़बग्घा नहीं देखा। चिड़ियाघर में भी नहीं देखा। जिन्होंने देखा है, वे बता सकते हैं कि यह क्रूर जानवर हँसता है या नहीं। हँसता होगा तो उसकी हँसी मगर के आँसू जैसी होती होगी। क्रूर कर्म करके हँसना, दूसरे को पीड़ा देकर हँसना—यह लकड़बग्घे की हँसी है।
मैंने मनुष्य अवतार में कई लकड़बग्घे देखे हैं। सभी ने देखे होंगे। दंगों में आदमी लकड़बग्घा हो जाता है। लोगों का मारकर, घर में आग लगाकर जो अट्टहास करते हैं, वे लकड़बग्घे होते हैं। अन्धे की लाठी छीनकर उसकी घबड़ाहट पर हँसने वाले भी देखे हैं। कमजोर को पीटकर उसकी चीख-पुकार पर ताली बजाकर हँसते और कहते, मजा आ गया यार, मैंने देखे हैं। इनका मुँह तोड़ा जाना चाहिए।
एक परिवार में बैठा था। परिवार में एक लड़की मोटी थी। इस कारण उसकी शादी नहीं हो रही थी। वह दुखी और हीनता की भावना से पीड़ित थी। उस परिवार की मित्र दो शिक्षित महिलाएँ आईं और उस लड़की से कहा—अरे सुषमा, तू तो बहुत दुबली हो गई। और हँसने लगीं। लड़की की आँखों में आँसू आ गए और वह कमरे से बाहर चली गई। वे दोनों मूर्खा विदुषियाँ मुझे लकड़बग्घे की मादा लगीं।
एक और घटना मुझे याद आ रही है। दो आदमियों ने कहीं से शास्त्री पुल के लिए रिक्शा तय किया। मगर उसे बढ़ाते-बढ़ते कमानिया फाटक तक ले आए। दुकान पर उतर गए और उसे शास्त्री पुल तक के पैसे दे दिये। उसने कहा—बाबूजी, आपने शास्त्री पुल का तय किया था और कमानिया ले आए। और पैसा दीजिए। वे दोनों सोने की चेन लटकाए आदमी हँसने लगे। बोले—अरे यही तो शास्त्री पुल है। यह जो फाटक है, यही पुल है। रिक्शा वाला कहने लगा—बाबूजी, क्यों गरीब आदमी का मजाक करते हो! यह कमानिया फाटक है? वे दोनों फिर हँसने लगे। जितना रिक्शे वाला दीनता से गिड़गिड़ाता, वे दोनों और जोर से अट्टहास करने लगते। आखिर लाचार रिक्शा वाला चला गया। वे दोनों अट्टहास करने लगे। कहने लगे—अच्छा बेवकूफ बनाया साले को! बड़ी अदा से गिड़गिड़ा रहा था! हा, हा, हा, हा! मजा आ गया। यह लकड़बग्घे की हँसी थी।
मनुष्य को हँसना चाहिए। पर निर्मल, स्वस्थ हँसी हँसना चाहिए। जो नहीं हँसता, वह वनमानुष है। पर मनुष्य लकड़बग्घे की हँसी हँसे, तो उसे गोली मार देना चाहिए।
(हरिशंकर परसाई)