पाकिस्तान का घटनाक्रम, उसमें दिखता अमरीकी दखल व पाकिस्तानी फौजी चीफ बाजवा के बयान-उभरती साम्राज्यवादी खेमेबंदी में भारत की अभी तक की ढुलमुल पोजीशन को, कुछ हद तक रूस-चीन खेमे की ओर झुकाने की संभावना रखते हैं, पाकिस्तान-चीन के गहराते संबंध जिसमें अड़चन थे.
संघ-बीजेपी की घरेलू मुस्लिम नफरत आधारित फासिस्ट नीति के साथ भी यह मेल खाता है.
मजबूत चीन के बजाय पाकिस्तान से झड़प संघियों को अधिक रास आती है, जैसे देश के अंदर मेहनतकश मुसलमानों, दलितों व आदिवासियों पर जुल्म करना उनकी ‘वीरता’ को सूट करता है, पर दिल्ली के चारों ओर के मजबूत किसानों के सामने वे थोड़ा दबकर भी अपना काम निकाल लेते हैं!
संघी धूर्त फासिस्ट हैं, मूर्ख नहीं. मोदी ने नेहरू के इतिहास से सबक सीखा है कि विदेशी साम्राज्यवाद व देशी उग्रराष्ट्रवादियों के उकसावे में ताकतवर चीन से भिडना उनकी राजनीति के कतई हित में नहीं.
अतः समस्त अमरीकी व कांग्रेसी उकसावे व तानाकशी के बावजूद, मोदी सरकार चीन से सीमा विवाद में अत्यंत शांत व ठंडी रही है.
अमरीकी भरोसे पर जेलेंस्की जैसी आत्महंता मूर्खता दिखाने के लिए वह तैयार नहीं दिख रही.
साथ ही भारतीय राजनीतिक अर्थतंत्र की अपनी मजबूरियां भी हैं–भारतीय वित्तीय पूंजी के पुराने संबंध अमरीकी-नाटो खेमे से हैं और उसके तीन बडे़ निर्यात – श्रमिक, सेवा क्षेत्र व जवाहरात- भी इसी क्षेत्र में हैं.
मगर अपने उत्पादन के लिए जरूरी सस्ती स्थिर पूंजी – कच्चा व माध्यमिक माल (धातु, रसायन, विद्युतीय-इलेक्ट्रॉनिक पुर्जे, तेल-गैस, हीरे, मशीनों, तकनीक, आदि) के लिए उसकी निर्भरता चीन-रूस व भारत की ही तरह अमरीकी खेमे से दूरी बनी रहे, अरब देशों की आपूर्ति श्रृंखला पर अधिक है. इसके बगैर पूरी उत्पादक व्यवस्था ठप होने के कगार पर पहुंच सकती है और अमरीकी खेमा इसका भरोसेमंद विकल्प देने की स्थिति में नहीं दिख रहा है.
तटस्थता की बातें इसी दोहरी स्थिति का नतीजा हैं.
फिर अमरीकी नाटो खेमा, अपनी ताकत के घमंड में दबाव-धमकी का जो रुख अपना रहा है, उसके सामने झुकना बहुत से अन्य देशों की तरह मोदी सरकार के लिए भी राजनीतिक रूप से स्वीकार्य नहीं, जबकि बदले में अमरीकी खेमा चीन से टकराव में कोई मदद नहीं करेगा-यह पहले से भी तय है, और उक्रेन में इसकी पुष्टि हुई है.
वैसे भी यह धारणा मजबूत हो रही है कि कोरिया-वियतनाम से इराक, लीबिया, अफगानिस्तान तक की निर्दोष आबादी पर हवाई बमबारी से मौत बरसाने वाली बहादुर अमरीकी फौजों का सशक्त सेना से बराबरी के टकराव में टिकना उतना असंदिग्ध नहीं है.
उधर चीनी विदेश मंत्री वांग यी व रूसी लावरोव ने भारत यात्रा में धमकियां नहीं, सस्ते तेल-गैस व अन्य साजोसामान से लेकर सीमा विवाद को निपटाने तक के ऑफर दिये हैं; पर इस मौके पर बीजेपी सरकार चाहेगी कि चीन अगर नियंत्रण रेखा पर बिना जोर दबाव वाली शर्तें लगाये, तनाव टाल दे तो यह घरेलू राजनीति में मोदी की राष्ट्रवादी राजनीति के लिए वाहवाही बटोरने का जबरदस्त मौका होगा.
चीन अमरीका के साथ टकराव में भारत को अपने खेमे में तो नहीं, पर कम से कम अमरीकी खेमे में जाने से रोकने के लिए मोदी को इतना मौका देगा या नहीं, यह भविष्य की दिशा तय करने के लिए अहम होगा.
यह भी समझना होगा कि रूस-उक्रेन से भी बडा मुद्दा ताइवान है, जिसे अमरीकी खेमा स्वतंत्र राष्ट्र का ऐलान करने के लिए उकसा रहा है.
उस स्थिति में अपनी घोषित नीति के मुताबिक चीन के सामने उस पर हमला न करने का कोई विकल्प नहीं बचेगा.
पिछले कई दिनों से नाटो के साथ चल रही बैठकों में ऑस्ट्रेलिया, जापान, दक्षिण कोरिया, न्यूजीलैंड, आदि प्रशांत महासागरीय देशों की उपस्थिति, ऐसी आशंका पैदा कर रही है.
इन बैठकों में भारत को न बुलाया जाना, क्वाड की अघोषित मृत्यु का संकेत है.
किंतु इसमें भी बाधा उत्पन्न कर दी है उक्रेनी तजुर्बे ने – फरवरी में हुए सर्वेक्षणों में 60% से अधिक ताइवानी भरोसा जता रहे थे कि चीन के हमले की स्थिति में अमरीकी खेमा मदद करेगा, मगर ताजा सर्वेक्षणों में सिर्फ 30% ताइवानी ही ऐसा भरोसा जता रहे हैं!
देखना होगा कि ताइवानी शासक वर्ग इसके बावजूद भी अमरीकी हितों के लिए अपने देश को इस आत्महंता जंग में झोंकने के लिए तैयार होगा या नहीं?