धर्म का अर्थ है ऋत, निसर्ग का नियम, कुदरत का कानून । हम मन में विकार पैदा करें तो कुदरत के कानून के अनुसार तत्काल दंड मिलता है, हम व्याकुल हो जाते हैं। विकारों से मुक्त हो तो कुदरत से तत्काल पुरस्कार मिलता है, हम सुख शांति से भर जाते हैं।
जो व्यक्ति कुदरत के इस कानून को समझते हुए अपनी जीवनधारा इस प्रकार ढाल ले जिससे कि विकारों से मुक्त रहता हुआ स्वयं भी सुख शांति का अनुभव करे तथा औरों की भी सुख शांति बनाए रखने में सहायक हो, तो ऐसा व्यक्ति सही माने में धर्मवान कहलायगा ।
शुद्ध चित्त रहने के कारण वह स्वभाव से ही मैत्री, करुणा, मुदिता और समताभाव का जीवन जीयेगा। उसके मन में स्वभाव से ही सभी प्राणियों के प्रति सद्भावना रहेगी। ऐसा व्यक्ति सदाचरण का जीवन जीता है। काया, वाणी, चित्त से कोई ऐसा काम नहीं करता जो अन्य प्राणियों की सुख शांति भंग करे। ऐसे व्यक्ति का जीवन धर्म का जीवन है। ऐसा जीवन महान है, श्रेष्ठ है। अतः धर्म का एक अर्थ हुआ श्रेष्ठ, महान ।
ब्रह्मलोक के प्राणी ब्रह्मा सदा धर्म का जीवन जीते हैं, पवित्र जीवन जीते हैं, चित्त को विकार-विहीन रखते हैं। सदा अनंत मैत्री, अनंत करुणा, अनंत मुदिता, अनंत समताभाव में विहार करते हैं। इसलिए ये चारों ब्रह्मविहार कहलाते हैं। ऐसा जीवन श्रेष्ठ है, महान है। इसलिए ब्रह्म शब्द का एक अर्थ हुआ श्रेष्ठ, महान।
इसलिए धर्म और ब्रह्म शब्द समानार्थी हुए।
ब्रह्मयान धर्मयान कहलाया, धर्मयान ब्रह्मयान कहलाया। धर्मचक्र प्रवर्तन को ब्रह्मचक्र प्रवर्तन भी कहा गया। जिनका जीवन धर्ममय हो गया ऐसे सम्यक संबुद्ध धर्मकाय कहलाए। ब्रह्मकाय कहलाए। धर्मभूत कहलाए, ब्रह्मभूत कहलाए । धर्माचरण ही ब्रह्माचरण कहलाया। ब्रह्माचरण धर्माचरण कहलाया।
ब्रह्मचर्य का एक संकुचित अर्थ तो काम भोग, मैथुन से विरत रहना है। परंतु इसका व्यापक अर्थ धर्मचर्या ही है। भगवान के पास लोग ब्रह्मचर्यवास के लिए आते थे तो काम-भोग, मैथुन से तो विरत रहते ही थे परंतु संपूर्ण धर्म का पालन करते हुए मुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाते थे।
जब भगवान से किसी ने पूछा कि लोग ब्रह्मचर्य कहते हैं – यह ब्रह्मचर्य है क्या? और क्या है इसका परिणाम? तो भगवान ने उत्तर दिया,
“आर्य अष्टांगिक मार्ग ही ब्रह्मचर्य है।”
आर्य अष्टांगिक मार्ग माने धर्म मार्ग सांप्रदायिकता से दूर ऐसा सार्वजनीन धर्ममार्ग जिस पर चलकर कोई भी व्यक्ति आर्य बन सकता है, संत बन सकता है, जीवनमुक्त बन सकता है। धर्ममार्ग पर चलनेवाला साधक सम्यक दर्शन जगाता है। अपने भीतर तटस्थभाव से देखता है कि भीतर व्याकुलता है और इस व्याकुलता का कारण तृष्णा यानी राग, द्वेष और मोह है।
इस व्याकुलता का अंत किया जा सकता है यदि राग, द्वेष और मोह का अंत कर दिया जाय। यों दर्शन सम्यक कर ले तो संकल्प सम्यक हो जाते हैं। वाणी सम्यक हो जाती है। शारीरिक कर्म सम्यक हो जाते हैं। आजीविका सम्यक हो जाती है। परिश्रम-पुरुषार्थ सम्यक हो जाते हैं। सजगता सम्यक हो जाती है और समाधि सम्यक हो जाती है।
धर्म के इन आठो अंगों को सम्यक करने का अर्थ है – राग से, द्वेष से, मोह से नितांत विमुक्त हो जाना।
इसलिए भगवान ने कहा, “ब्रह्मचर्य की अंतिम परिणति है रागक्षय, द्वेषक्षय, मोहक्षय।”
यही ब्रह्मचर्या है, यही धर्मचर्या है।
यही सार्वजनीन धर्म है। किसी संप्रदाय में दीक्षित करने वाला धर्म नहीं। कोई बुद्ध होगा तो सार्वजनीन धर्म ही सिखायेगा। संप्रदाय की उलझन में किसी को नहीं उलझायेगा।
साधको!
संप्रदाय की जंजीरों से छुटकारा पाकर सार्वजनीन धर्म ही अपनाएं इसी में मंगल-कल्याण समाया हुआ है।
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पुस्तक : विपश्यना पत्रिका संग्रह ।
विपश्यना विशोधन विन्यास ॥
भवतु सब्ब मंङ्गलं !!
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