स्वघोषित देशभक्त राजनेताओं की मंशा तथा आरक्षण गरीबी दूर करने का विकल्प या सामाजिक और राजनैतिक प्रतिनिधित्व?

दैनिक समाचार

आजादी के पिचहतर सालों बाद देश का कितना विकास हुआ है यह इसी बात से साबित होता है।
जो सवर्ण कल तक साहूकार और धनाढ्य समझे जाते थे आज वो भी आरक्षण की भीख मांगने को मजबूर हैं!
आरक्षण तो एससीएसटी को भी केवल दस वर्षों के लिए ही दिया जाना सुनिश्चित हुआ था। ताकि सदियों से जाति के नाम पर तिरस्कृत समुदायों को भी सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक स्तर पर समानता दी जा सके!
मगर सरकारों की लापरवाही कहिए या उदासीनता अथवा पक्षपाती रवैया, कि आजादी के बाद से वर्तमान तक भी आरक्षण एससीएसटी के लिए एक जरुरत बनकर रह गयी!
आरक्षण को दूसरे शब्दों में कहें कि लगाना तो था फेक्चर हुए अंग में कुछ समय के लिए प्लास्टर, लेकिन आजीवन के लिए बैसाखी पकड़ा दी।
वर्तमान में भी बिना आरक्षण के स्कूल कालेज में प्रवेश नहीं मिलता,बिना आरक्षण के नौकरी भी नहीं मिलती और तो और बिना आरक्षण के तो रेलगाड़ी में सीट तक भी नहीं मिलती।
देश के हालात उतने भी खराब नहीं है जितना कि कथित देशभक्त नेताओं ने बना दिये है।
ईमानदारी, सच्चाई और कर्तव्यनिष्ठ नेताओं की गिनती करना बहुत आसान कार्य नहीं है क्योंकि नेताओं का गंभीरता से चिंतन करें तो लंका में सभी बावन गज के दिखाई देते हैं।
समाजसेवा करके जनप्रिय बनना और जनता द्वारा अपना प्रतिनिधित्व चुनकर नेता और मंत्री बनाना गुजरे जमाने की बात हो गयी है।
हकीकत में तो सत्ता भी एक व्यवसाय बन चुकी है। जितना अधिक धन खर्च करके जनता को लुभाने में कामयाब हो गये जनता उसी को अपना रहनुमा मान लेती है।
फिल्मों और अन्य व्यापार के समान ही यह फार्मूला बहुत हिट भी हुआ है।
पैसा फेंको, तमाशा देखो!
जिसके पास पैसा नहीं है वो कैसा नेता? उसकी ईमानदारी, सच्चाई और नैतिकता तथा समाजसेवा किस काम की? क्योंकि भौतिकतावादी युग में बिना धन के कोई समाजसेवा कैसे हो सकती है?
इसलिए धनाढ्य लोगों का राजनीति में वर्चस्व रहा है किन्तु राजनीति में भी अन्य क्षेत्रों के समान ही बढ़ते कम्पिटीशन के कारण, इसलिए चुनाव प्रचार और उसमें जनता को प्रलोभन देने तथा मुफ्त में वस्तुएं देने की होड़ में दिनोदिन धन की अधिक जरूरत महसूस होने लगी! आखिरकार राजनीति में गुंडे,मवाली, हिस्ट्रीशीटर बदमाशों का समावेश होना अनिवार्यता बन चुकी है।
क्योंकि जनता यदि देशभक्त बनकर धन के लालच में न बिके तो भय और आतंक इसकी पूर्ति जरूर कर देता हैं।
स्थिति ऐसी बन चुकी है कि धनाढ्य लोगो द्वारा अपना धन निवेश करने का, सट्टा लगाकर किसान आजमाने का सबसे अच्छा साधन राजनेताओं और राजनैतिक पार्टियों पर दांव लगाना बन चुका है।
जैसे रेस में घोड़ों पर और क्रिकेट में जीत हार पर दांव लगाकर धन कमाया जाता है।
सत्ता में आते ही नेताओं और पार्टी का सबसे पहला कर्तव्य बन जाता है कि ऐसे धन निवेशकों का पूरा ध्यान रखा जाए। जनता जाए भाड़ में, चुनाव प्रचार में धन लूटाने वाले निवेशकों को दस से पचास गुणा लाभ के साथ धन लौटाया जाए।
इसके लिए बड़े बड़े घोटालों, भ्रष्टाचारो और स्कैम यानि कांडों को सफाई के साथ अंजाम देना ही सफल नेतागिरी का पैमाना बन चुका है। जो जितना बडा झूठ बोलकर अपने काले कारनामों और झूठ को जनता के सामने न आने दे, वही सबसे बड़ा नेता भी कहा जाता है।
आंकड़ों का फर्जी खेल दिखाकर जनता को सब्जबाग दिखाये जाते हैं कि देश निरंतर विकास कर रहा है। देश की उन्नति चरम सीमा पर है। जो नेता दिन रात अच्छे अच्छे मनलुभावन भाषण देकर वास्तविक स्थिति का आभास न होने दे उन महाझूठे बेशर्म नेताओं को स्टार प्रचारक का दर्जा भी दिया जाता है।
लेकिन हकीकत से बहुत कम लोग परिचित होते हैं कि विश्व बैंक से कर्ज लेकर उधार का घी पीना भविष्य में देश के लिए कितना घातक सिद्ध होगा?
आखिर जनता पर निरन्तर बढ़ते टैक्स का पैसा और दायरा कहां खत्म होगा इसकी कोई सीमा नहीं है। फिर यह पैसा कहां जाता है बहुत कम लोग जानते हैं या पार्टियो अथवा नेताओं से मोह होने के कारण सबकुछ देखकर भी कहना नहीं चाहते हैं!
क्योंकि एकबार विधायक, सांसद और मंत्री बनते ही लक्ष्मी की अपार कृपा इन तथाकथित देशभक्त किन्तु वास्तव में महाझूठे और लालची नेताओं पर इस कदर बरसने लगती है कि कुछ ही वर्षों में लखपति से करोड़पति और करोड़पति से अरबपति बनते देखा जाना सामान्य सी बात हो चुकी है।
आखिर इन नेताओं के पास क्या वास्तव में इतनी प्रतिभा होती है जो नेता बनने के बाद ही नोट छापने की मशीन में परिवर्तित हो जाती है?
कदापि नहीं, यह जनता की निष्क्रियता और उदासीनता का ही परिणाम है जो अपने क्षेत्र के सांसद और विधायकों तथा राजनेताओ व आला अधिकारियों से जवाबदेही तय नहीं करती है।
नेताओ के आने पर उनके स्वागत में करोड़ों का खर्च किया जाता है, फूलमालाओं से स्वागत भी किया जाता है, यह सब पैसा किस फंड से आता है? किसी व्यापारी या ठेकेदार अथवा अधिकारी को पागल कुत्ते ने काटा है कि व्यक्ति दस रुपए तक भी किसी गरीब को न दें सके, वो हजारों या लाखों खर्च करने को तैयार रहता है? नेताजी के साथ मंच पर बैठने के लिए तमाम तरह के रसूख और जुगाड भी लगाता है। मजबूरी मे यदि मंच पर जगह न मिल पाए तो नेताजी के साथ एक दो फोटो हो जाएं इसके लिए भी बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं क्योंकि पूरी भीड़ की इच्छा नेताजी के साथ फोटो खिंचाने की रहती है।
छूटभैये नेताओं और अधिकारियों व ठेकेदारो तथा व्यापारियों का स्वार्थ फिर भी सही। किन्तु आम जनता??
आम जनता के लोग इन फोटो और सैल्फी का इस्तेमाल भी घरों की दीवारो पर टांग कर अपने रसूख समाज में दिखाने की बेकार कोशिश करते हैं।
क्योंकि हकीकत तो यही है राजनीति का लाभ भी उसी को मिलता है जो अपनी जेब से पहले धन खर्च करता है। आम आदमी केवल फोटो से आत्मिक सुख जरूर महसूस कर सकते हैं।
काश! नेताओ से मंच पर ही जनता के बीच, जनता के लिए उस क्षेत्र में कितने कार्य पूरे किये गये अथवा कार्य प्रगति पर है, पूछना शुरू कर दें तो नेताओं की हिम्मत जनता के बीच आने और स्वागत कराने की बिल्कुल भी न होगी!
राजनीति का हाल कुछ ऐसा हो चुका है।
राम राम जपना,पराया माल अपना!
रामनाम की लूट है लूट सके तो लूट।
फिर पीछे पछताएगा जब प्राण जाएंगे छूट!!
और इसी अंधी लूट का नतीजा है कि जनता बढ़ती मंहगाई और बेरोजगारी तथा टैक्स के बोझ से दबी जा रही है जबकि राजनेता, राजाओं जैसी सुविधाओ और ऐश्वर्य का सुख भोग रहे हैं।
क्योंकि विश्व बैंक के कर्ज और जनता के टैक्स का सारा धन इनकी अपनी निजी संपत्ति बढाने में सहायक बन रहा है।
इसलिए कहने में जरा भी संकोच या संदेह नहीं है कि कोई भी नेता ऐसा नहीं होगा जिसके पास आया से अधिक संपत्ति न हो और वह करोड़ों या अरबो रुपये की चल अचल संपत्ति का स्वामी न हो?
जनता जब तक इन नेताओं की जवाबदेही सुनिश्चित नहीं करेगी और दिन रात बढ़ती इनकी संपत्ति पर सवाल नहीं उठाएगी, तब तक तथाकथित देशभक्त राजनेता देश के संसाधनों और टैक्स और विश्व बैंक द्वारा लिये गये कर्ज को लूटकर अपनी निजी संपत्ति बढाते रहेंगे।
और यही कारण है कि जिस आरक्षण का नामोनिशान अब तक मिट जाना चाहिए था। मगर आरक्षण खत्म तो क्या होता, दशकों पूर्व जो समाज धनाढ्य और संपन्न समझे जाते थे आज वो सब भी आरक्षण मांगने को कटोरा लिए लाइन में खड़े दिखाई देने लगे हैं!
और यही कारण है कि नेताओं का एकमात्र लक्ष्य जनता को गरीब बनाकर मुफ्तखोरी की आदत डालना है ताकि मुफ्त के लालच में जनता इनको वोट देकर राजा बनाती रहे और खुद इनकी प्रजा बनकर भिखारियों जैसे लाईनों में खड़ी होकर मुफ्त का सामान पाने की आकांक्षा करती रहें।
अंधभक्तो के पास तो दिमाग नाम की चीज ऊपरवाला लगाना ही भूल गया है लेकिन बुद्धिजीवियों को जरुर चिंतन करना होगा कि देश ने पिचहतर वर्षों में क्या यही विकास किया है?

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