संयुक्त राष्ट्र जैसी साम्राज्यवादियों की चाकर एजेंसियाँ आजकल काफ़ी परेशान हैं। अपनी अलग-अलग रिपोर्टों, भाषणों, समारोहों आदि के ज़रिए विश्व अर्थव्यवस्था की चिंता में ये सूखती जा रही हैं। कोरोना काल में गहरे हुए आर्थिक संकट, बढ़ती बेरोज़गारी, महँगाई में बेतहाशा वृद्धि बढ़ती कर्ज़दारी आदि पर पिछले समय में अलग-अलग एजेंसियों ने कितनी ही रिपोर्टें, पुस्तिकाएँ जारी की हैं, जिनसे इनकी चिंता साफ़ झलकती है। पर इनकी यह चिंता आम लेगों के लिए नहीं, बल्कि अपने आका पूँजीपतियों के मुनाफ़े़ घटने का डर है। बढ़ती ग़रीबी से यह डर है कि कहीं यह लोगों के विद्रोह में ना बदल जाए। भुखमरी और बेरोज़गारी से डर है कि कहीं इसके परिणामस्वरूप दुनिया-भर के मेहनतकश इस अन्यापूर्ण व्यवस्था के ख़िलाफ़ ना उठ खड़े हों और बढ़ती गै़रबराबरी से इन्हें डर है कि कहीं लोग इस नाइंसाफ़ी भरे समाज को बदलने पर ना उतारू हो जाएँ। विश्व की सभी समस्याओं को ये इसी नज़रिए से देखते हैं कि कहीं इसके परिणामस्वरूप यह पूरी पूँजीवादी व्यवस्था ही ख़तरे में ना पड़ जाए। कई बार आॅक्सफ़ेम, संयुक्त राष्ट्र जैसे संगठनों के बयानों, रिपोर्टों से लोगों को यह भ्रम हो जाता है कि यह पूँजीवादी व्यवस्था की कमियों को कितने बढ़िया तरीके़ से सामने रखते हैं और कैसे दुनिया-भर की सरकारों को ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, ग़ैरबराबरी आदि का समाधान करने के लिए हमेशा दुरकारते हैं। असल में आॅक्सफ़ेम, संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएँ साम्राज्यवादियों, दुनिया-भर की सरकारों को इसलिए ताड़ती, या सुझाव देती हैं ताकि विश्व साम्राज्यवादी, पूँजीवादी व्यवस्था बची रह सके। वैश्विक पूँजीवाद के लिए इनकी सारी रिपोर्टों-बयानों का निचोड़ यही होता है कि ग़रीबी, बेरोज़गारी, ग़ैरबराबरी इतनी ना बढ़ने दो कि सारे लोग तुम्हारे ही गले पड़ जाएँ। बढ़ती बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी के आँकड़े देने से जो संदेश इन एजंेसियों की सारी रिपोर्टों में साझा होती है, वह दुनिया-भर के पूँजीपतियों को यह नसीहत होती है कि थोड़ा धीरे चलो, मज़दूरों की लूट में इतनी तेज़ी से बढ़ोतरी ना करो, कुछ-कुछ टुकड़े समय-समय पर लोगों की ओर फेंकते रहो, ताकि तुम्हारा स्वर्ग सुरक्षित रह सके। इस वजह से सामाजिक समस्याओं के बारे में इनकी रिपोर्टें पढ़कर यह नहीं मानना चाहिए कि ये इन समस्याओं का हल ग़रीब वर्ग के नज़रिए से चाहते हैं। बल्कि ये तो असमानता की जड़ पूँजीवादी व्यवस्था को बचाए रखना चाहते हैं। दुनिया-भर में क्रांतिकारी बदलाव के हिमायतियों को इन रिपोर्टों का बस इतना ही फ़ायदा होता है कि दुनिया संबंधी कुछ जानकारियाँ इनके माध्यम से मिल जाती हैं।
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, जो संयुक्त राष्ट्र के अनेकों संगठनो में से एक है, उन्हीं संस्थाओं में शामिल है, जिनका हमने ऊपर जि़क्र किया है। ये भी समय-समय पर बेरोज़गारी, ग़रीबी, जीवन-स्तर संबंधी, श्रम क़ानून आदि पर रिपोर्टें जारी करते रहते हैं। इस संगठन का काम तरह-तरह के सेमिनारों, कांफ़्रेंसों, रिपोर्टों, किताबों के ज़रिए दुनिया-भर के पूँजीपतियों और उनके चाकरों को सलाह देना है कि कैसे मेहनतकशों-मज़दूरों की लूट बदस्तूर जारी रखते हुए इस व्यवस्था को जारी रखा जा सके। हाल ही में इसने विश्व में रोज़गार और अर्थव्यवस्था की हालत पर रिपोर्ट जारी की है। यहाँ यह भी जि़क्र करना ज़रूरी है कि पिछली रिपोर्ट में जो इसने विश्व अर्थव्यवस्था के जल्दी सेहतमंद होने और कुल रोज़गार में काफ़ी बड़ी वृद्धि होने की भविष्यवाणी की थी, बिल्कुल ग़लत साबित हुई है। भले ही विश्व अर्थव्यवस्था में कुछ सुधार के लक्षण दिखे थे, पर कुल मिलाकर यह गहरे आर्थिक संकट का शिकार है। नतीजतन बहुत से देशों में तो कुल रोज़गार अभी तक कोरोना काल के आँकड़ों से भी नीचे चल रहा है और मज़दूरी में भी काफ़ी कमी दर्ज हुई है। रिपोर्ट में बताया गया है कि ग़रीबी का सबसे ज़्यादा फैलाव ग़रीब मुल्क़ों में हुआ है और बेरोज़गारी के कारण कोरोना काल के बाद करोड़ों बच्चे और लगभग 3 करोड़ और लोग भयंकर ग़रीबी की दलदल में गिर चुके हैं। कोरोना काल में मज़दूरी जितनी नीचे आई है, उसके कारण 80 लाख ऐसे लोगों की बढ़ोतरी हुई है, जिनके पास काम तो है पर मज़दूरी इतनी कम है कि वो ख़ुद अपने तथा अपने परिवार को ग़रीबी रेखा से नीचे गिरने से नहीं बचा सकते। अब विश्व अर्थव्वस्था की हालत और रूस-युक्रेन युद्ध की वजह से बढ़ती महँगाई के साथ बदहाली और भी बढ़ सकती है। विश्व अर्थव्यवस्था के संकट को मानते हुए रिपोर्ट के मुताबिक 2019 के मुकाबले 2022 में कुल श्रम घंटों में 5.2 करोड़ की गिरावट आएगी। यानी 2019 में कुल मज़दूरों को जितने घंटे काम मिला था, 2022 में उससे 5.2 करोड़ घंटे कम काम उपलब्ध होगा।
यानी ज़्यादा बेरोज़गारी और रोज़गारशुदा लोगों को बेकारी का डर दिखाकर कम मज़दूरी पर ज़्यादा काम लेना। इससे अंदाजा लगाते हुए विश्व श्रम संगठन ने कहा है कि विश्व में कुल बेरोज़गारी जो 2019 में 18.6 करोड़ थी, बढ़कर 2022 में 20.7 करोड़ हो जाएगी। यह आँकड़ा भी असल बेरोज़गारी की तस्वीर नहीं दिखाता, जो कि इससे कहीं ज़्यादा है। ख़ुद इस रिपोर्ट के अनुसार ही दुनिया-भर में कुल काम कर सकने वालों में 59 फ़ीसदी ही काम की उम्मीद कर रहे हैं और बेरोज़गारी की दर इन कामों में लगने वालों में से ही निकाली जाती है, ना कि कुल काम करने योग्य लोगों में से।
विश्व स्तर पर फैली बेरोज़गारी के साथ-साथ कुछ देशों में बेरोज़गारी के आँकडों पर भी हम एक नज़र डालते हैं। पहले विश्व चौधरी संयुक्त राज्य अमरीका की अर्थव्यवस्था में रोज़गार के हालात देखते हैं। संयुक्त राज्य अमरीका की अर्थव्यवस्था के धीमे सुधार और उत्पादन क्षेत्र में पूँजीपतियों द्वारा निवेश की कमी की वजह से वहाँ रोज़गार की हालत कोरोना काल के पहले के समय से काफ़ी मंदी हो चुकी है, (भले ही उस वक़्त भी कोई ख़ास अच्छी नहीं थी)। पिछले समय अमरीकी सरकार ने दावा किया कि नए साल के बाद अर्थव्यवस्था में 4 लाख 67 हज़ार नौकरियों की बढ़ोतरी हुई पर जल्दी ही इस ग़लत आँकडे का पर्दाफ़ाश हो गया और पता चला कि नौकरियों में बढ़ोतरी नहीं, बल्कि 3 लाख 1 हज़ार नौकरियाँ और कम हो गई हैं। अभी तक बेहाल पड़ी संयुक्त राज्य अमरीका की अर्थव्यवस्था में बेरोज़गारी एक भयंकर समस्या बनती जा रही है और हालत यह है कि 25 से 54 साल की उम्र वाले अमरीकियों में जो कोरोना काल के पहले रोज़गारशुदा थे, अब 80 प्रतिशत के पास कोई नौकरी नहीं है।
दूसरा, बेरोज़गारी के मसले पर आइए भारत के आँकड़ों पर नज़र डालें। भारत की अर्थव्यवस्था भी गंभीर संकट का शिकार है और बेरोज़गारी की समस्या यहाँ भी काफ़ी बड़ी है। सी.एम.आई. ने फ़रवरी में आँकड़े जारी करते हुए कहा था कि जनवरी 2022 में बेरोज़गारी दर 6.57 प्रतिशत रही है, जो कि मार्च 2021 के बाद सबसे कम थी। इस आँकड़े के सहारे भारतीय अर्थव्यवस्था के सेहतमंद होने का कयास लगाया जा रहा था। भले अर्थव्यवस्था में सुधार के कुछ लक्षण दिखे पर जल्द ही बेरोज़गारी बढ़कर 8 प्रतिशत के करीब पहुँच चुकी थी और मार्च में ही यह 7.5-7.8 प्रतिशत के बीचो-बीच रह रही है। यहाँ भी बेरोज़गारी का यह आँकड़ा रोज़गार संबंधी पूरी सही तस्वीर पेश नहीं करता। बेरोज़गारी के आँकडे में सिर्फ़ उसे ही शामिल किया जाता है, जो काम करना चाहते हैं और काम की तलाश में हों, और उन्हें नहीं जो काम तो करना चाहते हों पर नौकरियों की कमी या मज़दूरी कम होने की वजह से फि़लहाल काम की तलाश नहीं कर रहे हों। दूसरा, भारत में पहले ही पक्की तनख़्वाह, सामाजिक सुरक्षा वाली नौकरियों की काफ़ी कमी थी और कोरोना काल का फ़ायदा उठाते हुए पूँजीपतियों और सरकारों ने ऐसी नौकरियों को बड़े स्तर पर ख़त्म किया है। तीसरा, बढ़ती बेरोज़गारी का सबसे बड़ा असर नौजवानों और महिलाओं पर पड़ा है। औरतों का कामकाज छोड़कर बड़े पैमाने पर घर के कामों में लगना सिर्फ़ भारत का ही नहीं, बल्कि वैश्विक परिघटना है, जो अपने सबसे साफ़ रूप में इंग्लैंड के महान इस्तीफे़ में सामने आया था। भारत में रोज़गार संबंधी नौजवानों की बात करें तो अलग-अलग रिपोर्टों के अनुसार 2016 में रोज़गार में लगे नौजवानों की संख्या में 30 प्रतिशत की कमी दर्ज हुई है। 2016 में जहाँ 10.38 करोड़ नौजवानों के पास रोज़गार था, वहाँ 2021 के अंत तक यह संख्या कम होकर 7.27 करोड़ हो चुकी थी।
भारत और संयुक्त राज्य अमरीका में जैसी बेरोज़गारी की हालत है, एक-दो को छोड़कर लगभग यही हालत विश्व की बाक़ी अर्थव्यवस्थाओं की भी है। विश्व पैमाने पर फैली बेरोज़गारी जहाँ एक तरफ़ लोगों को हर दिन और ज़्यादा बदहाली की ओर धकेल रही है, वहीं यह पूँजीवादी व्यवस्था की असलियत को भी बहुत ही साफ़ रूप में सामने ला रही है। यह हर रोज़ लोगों के लिए और साफ़ होता जा रहा है कि ना तो बेरोज़गारी, ग़रीबी इस पूँजीवादी ढाँचे में ख़त्म हो सकती है और ना ही पूँजीपतियों की चाकर सरकारों को इसका समाधान ढूँढ़ने से कोई सरोकार है। इन सरकारों का अगर कोई सरोकार है, तो वो है बस पूँजीपतियों के मुनाफ़े बढ़ाना और इस व्यवस्था को सुरक्षित रखना। कोरोना काल के बाद लोगों में इस व्यवस्था से बढ़ते असंतोष का लगातार इज़हार छोटे-बड़े रूप में सड़कों पर हो रहा है। भारत में चले तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आंदोलन, पश्चिमी यूरोप के देशों में कोरोना पाबंदियों के ख़िलाफ़ आंदोलन, क़ज़ाखिस्तान के लोगों का आंदोलन, संयुक्त राज्य अमरीका में अपना संगठन बनाने के अधिकार के लिए या मज़दूरी बढ़ाने के लिए हुई हड़तालें आदि सभी इस ग़ुस्से की अभिव्यक्ति हैं। दुनिया-भर के मेहनतकश लोगों का भला उस तरह नहीं हो सकता, जिस तरह विश्व श्रम संगठन जैसी संस्थाएँ सुझाती हैं, जिनका असली मक़सद इस लुटेरी व्यवस्था को बचाए रखना है। दुनिया-भर के मेहनतकश लोगों की बेहतरी के लिए यह ज़रूरी है कि क्रांतिकारी ताक़तें लोगों के इस ग़ुस्से को पूँजीवादी व्यवस्था को उलटाने और एक नई व्यवस्था के निर्माण में लगाए। सिर्फ़ इसी तरह ही मेहनतकश लोगों की बदहाली का अंत संभव है।
– नवजोत, पटियाला
मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 17 ♦ अप्रैल 2022 में प्रकाशित