किसान संसद

दैनिक समाचार

      आज किसान संसद सरकार के सामने जो मांग पेश करेगी, आज उस पर चर्चा होगी: पूरे देश में 23 फसलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को क़ानूनी जामा पहनना। एमएसपी की मांग पुरानी है, उपज और श्रम के लिए उचित मूल्य की मांग मानव सभ्यता जितनी पुरानी है। एमएसपी का मामला किसानों की मांग और सरकार की पेशकश के बीच का अंतर है।

                2007 में कृषि वैज्ञानिक एम एस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में राष्ट्रीय किसान आयोग ने एमएसपी को कुल इनपुट लागत + 50 प्रतिशत आय पर आधारित करने की सिफारिश की थी। 2014 में, भाजपा ने लोकसभा चुनाव घोषणापत्र में किसानों से वादा किया गया था। लेकिन बीजेपी विश्वासघाती दलालों की पार्टी है।

                2018 में तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने इस मुद्दे पर लीपा पोती कर दी थी। उन्होंने घोषणा की कि अब से एमएसपी फसलों के लिए उत्पादन लागत के डेढ़ गुना पर “पूर्व-निर्धारित सिद्धांत” के रूप में वास्तविक क्षेत्र-आधारित लागतों के आकलन के बिना, लेकिन अनुमानों पर तय किया जाएगा।

      सरकार कहती है, ‘ए2’ किसान द्वारा सीधे भुगतान की गई सभी लागतों को कवर करती है – नकद और वस्तु के रूप में – बीज, उर्वरक, कीटनाशक, किराए के श्रम, पट्टे पर दी गई भूमि, ईंधन, सिंचाई आदि पर। ‘ए2+एफएल’ में शामिल हैं A2 प्लस अवैतनिक पारिवारिक श्रम का एक स्थापित मूल्य। किसानों का कहना है, ए2+एफएल के शीर्ष पर स्वामित्व वाली भूमि और अचल पूंजीगत संपत्तियों पर छोड़े गए किराये और ब्याज में ‘सी2’ फ़ोर्मुला लागू होना चाहिए।

      किसान 23 फसलों पर C2+50 प्रतिशत की मांग कर रहे हैं, सरकार सीमित फसलों पर A2 + FL + 50 प्रतिशत की पेशकश कर रही है; जिसमें लागत का मूल्य भी नहीं मिलता। छोटे सीमांत किसान जो जीविका के लिए खेतों में परिश्रम करते है, उन्हें तो सब्ज़ी का दाम और मज़दूरी भी पर्याप्त नहीं मिलती। बटाईदार किसान तो अपनी उपज को क्रेय केंद्रो पर भी नहीं बेच सकते, क्योंकि खेती की ज़मीन उनके नाम पर भी नहीं है। ऐसे कई मसले है, जिन पर व्यापक चर्चा की आवश्यकता है और सरकार ने बिना किसानो से चर्चा किए अपना फ़ैसला इन कानूनो के ज़रिए सुनाया है।

      पिछले 9 दिन के कार्यकाल में किसान संसद ने 50 घंटो से ज़्यादा किसान संशोधन क़ानून पर चर्चा की है; जबकि दोनो संसद मे कुल 25 घंटे भी काम नहीं हो पाया है। यह किसान संसद की एक बहुत बड़ी जीत है और दुनिया की सभी लोकतांत्रिक प्रणालियों के लिए एक बहुत बड़ा सबक़ है, कि व्यापक चर्चा के बिना क़ानून बनाना देश के लिए कितना घातक हो सकता है।

      आने वाली 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के दिन किसान-मज़दूर आज़ादी संग्राम दिवस के रूप में मनाया जाएगा और इस सरकार को आगाह किया जाएगा कि वक़्त है, अभी भी इन क़ानून को वापस लेकर किसान समर्थन में खड़े हो जाए, यही आर्थिक आज़ादी की तरफ़ पहला कदम होगा।

(साभार : जनमंच)

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