डॉ. अंबेडकर और उनकी सीमाओं को याद करते हुए-

दैनिक समाचार

नरेन्द्र कुमार

14 अप्रैल 1891 को जन्मे डॉ.अम्बेडकर का पूंजीवादी भारत के निर्माताओं में एक विशिष्ट स्थान है. उन्होंने पूंजीवादी लोकतंत्र से अभिभूत होकर इस व्यवस्था की वकालत की, लेकिन पूंजीवाद के विकास के रास्ते में आने वाले तमाम गैर जनतांत्रिक सामंती व जातीय भेदभाव के खिलाफ पूरी ताकत के साथ आवाज उठाई.

पूंजीवाद मजदूरों के श्रम शक्ति के शोषण तथा छोटे उत्पादकों की संपत्ति के हरण पर जीवित है.

शुरुआती दौर में ऊंची जाति तथा सामंती शक्तियों के नियंत्रण वाले साधनों पर दलित तथा गरीबों के हिस्सेदारी की लड़ाई का उन्होंने नेतृत्व किया, लेकिन अपने समय के सबसे चर्चित विचारधारा-जिसमें की संपूर्ण उत्पादन साधनों पर मेहनतकश उत्पादक शक्तियों का नियंत्रण हो-उन्होंने आत्मसात नहीं किया.

इसलिए उनकी पूरी लड़ाई पूंजीवादी व्यवस्था के दायरे में सीमित रह गई!

धर्म के मामले में भी उन्होंने हिंदू धर्म से विद्रोह तो किया, लेकिन बुद्ध के भाव वाद की सीमाओं में अपने को सीमित कर लिया.

इतिहास का सच है कि बौद्ध धर्म अपने समय के उत्पादक शक्तियों व्यापारी, दस्तकार तथा किसानों के विकास के लिए ब्राह्मणवादी शक्तियों के खिलाफ व्यापक जन आंदोलन था, लेकिन बाद के सदियों में बौद्ध धर्म बौद्ध मठों में घंटी बजाने तक सीमित हो गया.

ब्राह्मणवादियों ने प्रतिक्रियावादी शक्तियों को संगठित कर उत्पादन के सभी साधनों को अपने नियंत्रण में ले लिया और बौद्ध धर्म तथा बौद्ध भिक्षु का कत्लेआम किया!

इस तरह से इतिहास में बौद्ध धर्म अपनी प्रगतिशील भूमिका अदा कर पराजित हो चुका था!

आज की तारीख में पूंजीवादी शोषण से लड़ने में बौद्ध धर्म की कोई प्रगतिशील भूमिका नहीं बनती है.

सभी साम्राज्यवादी देशों के द्वारा सभी धर्मों का प्रतिक्रियावादी उपयोग किया जा रहा है.

डॉ.अम्बेडकर ने ‘राष्ट्रवाद’ पर कहा था : –
“राष्‍ट्रवाद तभी औचित्‍य ग्रहण कर सकता है, जब लोगों के बीच जाति, नस्ल या रंग का अन्‍तर भुलाकर, उसमें सामाजिक भ्रातृत्‍व को सर्वोच्‍च स्‍थान दिया जाये.”

अंबेडकर राष्ट्रवाद और धर्म की अवधारणा को स्वीकार करते थे, और यह उनके वैचारिक विकास की सीमा थी.

आज का प्रश्न है कि “क्या राष्ट्रवाद और धर्म मानवता या मानव समाज के विकास में मददगार हैं ? क्या ये समाज के विकास में अवरोध पैदा नहीं कर रहे हैं ?”

पिछले दशकों का अनुभव है कि जब तक मानव समाज, राष्ट्रवाद तथा धर्म की अवधारणा से आगे बढ़कर ‘संपूर्ण मानव समाज’ के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण के आधार पर समाज के संचालन का रास्ता नहीं अपनायगा, समाज प्रतिगामी प्रतिक्रियावादी शक्तियों के द्वारा ही संचालित होगा!

इस मायने में समाज को अंबेडकर की अवधारणा से आगे बढ़कर भारतीय नायकों में भगत सिंह की अवधारणा को स्वीकार करना होगा.

भगत सिंह का राष्ट्रवाद साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष के रूप में था. उन्होंने स्पष्टतः “पूंजीवादी लोकतंत्र तथा पूंजीवादी व्यवस्था” की निर्मम आलोचना की है और समाजवादी समाज के निर्माण के लिए मजदूर तथा किसानों को संगठित करने तथा उत्पादन के साधनों के सामाजिकरण पर बल दिया है.

वह न तो राष्ट्रवाद को स्थापित करते हैं और न ही धर्म को!

वह धर्म के संपूर्ण प्रभाव से निकलने के लिए ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ की अवधारणा को पेश किया.

इसलिए आज की तारीख में “राष्ट्रवाद और धर्म” की अवधारणा से मानव समाज की मुक्ति अति आवश्यक है!

क्रमशः आगे अगली पोस्ट में…..
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