( जनवादी लेखक संघ की पत्रिका, नया पथ में प्रकाशित, इस लेख पर मित्रों की राय जरूर चाहता हूं)
(हमारे देष में ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति तथा पूंजीवादी-साम्राज्यवादी संस्कृति का घिनौना गठजोड़ मुकम्मल शक्ल अख्तियार कर चुका है। हिन्दू फासीवाद और कॉरपोरेट फासीवाद का एक दूसरे से गले मिल गए हैं। कॉरपोरेट फासीवाद ने इस देश में अपनी जड़ें गहराई तक धँसाने के लिए ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति को गले लगा लिया है। ये दोनों संस्कृतियाँ भारतीय आदमी के पोर-पोर में प्रवेश करती जा रही हैं, ये हर प्रकार के प्रतिगामी मूल्यों को बढ़ावा देती हैं, हर प्रकार के प्रगतिशील मूल्यों को खत्म करने की कोशिश कर रही हैं। अब तो ये टीवी, इंटरनेट, मोबाइल के माध्यम से घर-घर में प्रवेश कर गयी हैं। व्यक्ति-व्यक्ति के हाथ में पहुँच गयी हैं, व्यक्ति की सुबह इस बुद्धू बक्से के से शुरू होती है जो पूरा दिन रात चलता ही रहता है, आँख भी इन्हें ही देखकर बन्द होती है। ये ऐसे मन-मस्तिष्क-हृदय का निर्माण कर रहे हैं जिससे किसी प्रकार की उदात्तता, महानता, इंसानियत तथा मानवीय ऊँचाई की उम्मीद न की जा सके। दोनों संस्कृतियाँ मिलकर मनुष्य को पिशाच बनाने में लगी हुई है। इन दोनों पतनशील संस्कृतियों की नापाक दुरभिसन्धि से इनकी ताकत कई गुना बढ़ गई है। ये हर मानवीय मूल्य को रौंदते हुए आगे बढ़ रही हैं। )
भारत में उत्तर से लेकर दक्षिण और पूरब ले लेकर पश्चिम तक आरएसएस ( संघ ), भाजपा एंव अन्य आनुषांगिक संगठनों और कार्पोरेट घरानों का वर्चस्व केवल एक राजनीतिक और आर्थिक परिघटना नहीं है, उससे ज्यादी कहीं गहरे व्यापक स्तर पर यह एक सांस्कृतिक परिघटना भी है, जिसने उस मन:स्थित और चेतना का निर्माण किया, जिसके चलते राष्ट्रवाद के नाम पर देश के हिंदूकरण ( ब्राह्मणीकरण ) और विकास के नाम पर कार्पोरेटाइजेशन ( पूंजी की लूट को खुली छूट ) का मार्ग प्रशस्त हुआ।
हमारे देष में ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति तथा पूंजीवादी-साम्राज्यवादी संस्कृति का घिनौना गठजोड़ मुकम्मल शक्ल अख्तियार कर चुका है। हिन्दू फासीवाद और कॉरपोरेट फासीवाद का एक दूसरे से गले मिल गए हैं। कॉरपोरेट फासीवाद ने इस देश में अपनी जड़ें गहराई तक धँसाने के लिए ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति को गले लगा लिया है। ये दोनों संस्कृतियाँ भारतीय आदमी के पोर-पोर में प्रवेश करती जा रही हैं, ये हर प्रकार के प्रतिगामी मूल्यों को बढ़ावा देती हैं, हर प्रकार के प्रगतिशील मूल्यों को खत्म करने की कोशिश कर रही हैं। अब तो ये टीवी, इंटरनेट, मोबाइल के माध्यम से घर-घर में प्रवेश कर गयी हैं। व्यक्ति-व्यक्ति के हाथ में पहुँच गयी हैं, व्यक्ति की सुबह इस बुद्धू बक्से के से शुरू होती है जो पूरा दिन रात चलता ही रहता है, आँख भी इन्हें ही देखकर बन्द होती है। ये ऐसे मन-मस्तिष्क-हृदय का निर्माण कर रहे हैं जिससे किसी प्रकार की उदात्तता, महानता, इंसानियत तथा मानवीय ऊँचाई की उम्मीद न की जा सके। दोनों संस्कृतियाँ मिलकर मनुष्य को पिशाच बनाने में लगी हुई है। इन दोनों पतनशील संस्कृतियों की नापाक दुरभिसन्धि से इनकी ताकत कई गुना बढ़ गई है। ये हर मानवीय मूल्य को रौंदते हुए आगे बढ़ रही हैं।
इन दो संस्कृतियों में पहली ठेठ वैदिक-सनातन संस्कृति है, जिस पर अधिकांश भारतीयों को गर्व है, उसे ‘हिन्दू संस्कृति’ कहते हैं, उसे सनातन संस्कृति, वैदिक संस्कृति, आर्य संस्कृति तथा द्विज संस्कृति के नाम से भी पुकारा जाता है। इस संस्कृति के गौरव-ग्रन्थ आदिकवि वाल्मीकि के रामायण से लेकर तुलसीदास का रामचरितमानस तक हैं। वेद, पुराण, स्मृतियाँ, संहितायें इसके पूजनीय ग्रन्थ हैं। वेदों के रचयिता तथाकथित ऋषियों से लेकर स्मृतियों के रचयिता गौतम, मनु, नारद, याज्ञवल्क्य, तथा शंकराचार्य इसके महान पूजनीय नायक हैं। जब-जब इस संस्कृति को कोई खतरा पैदा हुआ है, स्वयं ईश्वर ने अवतार लेकर (राम एवं कृष्ण) इसकी रक्षा की है। आधुनिक युग में तिलक, सावरकर, हेडगेवार और गोलवरकर जैसे लोग इसके सबसे बड़े रक्षक के रूप में सामने आए । आज आरएसएस इस संस्कृति का सबसे बड़ा संरक्षक है। इस संस्कृति की रीढ़ है, वर्णव्यवस्था, जाति व्यवस्था तथा जातिवादी पितृसत्ता, जिसके अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने चारों वर्णों की रचना की। खून चूसने वाले परजीवियों(ब्राह्मणों) को अपने मुँह से पैदा किया तथा मेहनतकश शूद्रों को अपने पैर से। पता नहीं स्त्रियों को कहाँ से पैदा किया, यह तो वही जाने या हो सकता है उनके ऋषियों-महात्माओं को पता हो। इस संस्कृति को, इसके असली चरित्र एवं रूप को ढँकने के लिए जाने या अनजाने यूरोपीय नाम ‘सामन्ती संस्कृति’ भी कुछ लोग कहते रहे हैं। इसको इसके असली नाम से पुकारा जाना चाहिए जो इसके अन्तर्य एवं रूप को ठीक-ठीक प्रकट करता है और वह नाम है मनुवादी-ब्राह्मणवादी संस्कृति। इस संस्कृति का जन्मजात बुनियादी लक्षण है कि हर व्यक्ति जन्म से ऊँच या नीच पैदा होता है अर्थात् किसी से ऊँच तथा किसी से नीच पैदा होता है। चार वर्णों में सबसे ऊँचा वर्ण है ‘ब्राह्मण’ तथा सबसे नीचा वर्ण है ‘शूद्र’। बाद में एक वर्ण और बना दिया गया, जो महानीच ठहराकर है ‘अन्त्यज’ कहा गया तथा जिसकी छाया के स्पर्श से भी अन्य लोग दूषित हो जाते हैं। स्त्री भी नीचों में शामिल की गईं। । नीच कहे जाने के चलते जितने पैमाने शूद्रों-अन्त्यजों के लिए थे, उनमें से अधिकांश स्त्रियों पर भी लागू होते हैं।
इस संस्कृति की सबसे पहली बुनियादी विशेषता है- श्रम, विशेषकर शारीरिक श्रम करने वालों से घृणा। कौन-कौन कितना और किस प्रकार का शारीरिक श्रम करता है, उसी से तय हो जायेगा कि वह कितना ‘नीच’ है। इस विशेषता का दूसरा पहलू यह है- जो व्यक्ति शारीरिक श्रम से जितना ही दूर है अर्थात् जितना बड़ा परजीवी है, वह उतना ही महान एवं श्रेष्ठ है। ब्राह्मण सबसे श्रेष्ठ एवं महान है क्योंकि उसके जिम्मे किसी प्रकार का शारीरिक श्रम नहीं था। मेहतर समुदाय सबसे घृणित क्योंकि वह बिष्ठा एवं गन्दगी साफ करता है। बिष्ठा एवं गन्दगी करने वाले महान तथा साफ करने वाले ‘नीच’। दलित ‘नीच’ क्योंकि वह मेहनत करता था अर्थात् उत्पादन-सम्बन्धी सारे श्रम वही करता था। उत्पादक, नीच और बैठकर खाने वाले परजीवी, महान। कपड़ा गंदा करने वाले, महान तथा उसे साफ कर देने वाले धोबी, ‘नीच’। बाल तथा नाखून काटकर इंसान को इंसानी रूप देने वाला नाऊ ‘नीच’ तथा जिन्हें उसने इंसान बनाया वे लोग, ऊँच। यही बात सभी श्रम-आधारित पेशों पर लागू होती रही है।
घर में स्त्री पुरुष से नीच, क्योंकि वह बच्चे से बूढ़ों तक की गूह-गन्दगी साफ करती है। धोबी का भी काम करती है, कपड़े धुलती है, घर की सफाई करती है, खाना बनाती है। जैविक उत्पादन(बच्चे जनती है) करती है, और ‘महान’ पुरुषों को अन्य सुख प्रदान करती है। इसलिए स्त्री, पुरुषों से नीच तथा उनके अधीन। शूद्र द्विजों से नीच तथा उनके अधीन।
मनुवादी-ब्राह्मणवादी संस्कृति की दूसरी विशेषता है कि कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के समान नहीं हो सकता अर्थात् समानता की अवधारणा का पूर्ण निषेध। चार वर्णों में सभी एक दूसरे से ऊँच या नीच हैं। चारों वर्णों में शामिल हजारों जातियाँ एक दूसरे से ऊँच-नीच हैं। परिवार में ऊँच-नीच का श्रेणीक्रम बना हुआ है। इस संस्कृति में गर्ग गोत्र के शुक्ल सबसे ऊँच है, लेकिन स्थान-विशेष के शुक्ल दूसरी जगह के शुक्ल से नीच हैं या ऊँच है। सबसे निचली कही जाने वाली जातियों में शामिल दलितों ( चमारों) में भी उत्तरहा तथा दखिनहा हैं। उत्तरहा दखिनहा से ऊँच हैं। बाभनों में भी नान्ह जाति के रूप में चौबे-उपधिया हैं। इनका अपराध यह है कि ये अपने खेतों में शारीरिक श्रम करते रहे हैं। असमानता या गैर-बराबरी इसके केन्द्र में है। इस संस्कृति की तीसरी विशेषता है अधीनता। ब्रह्मा ने शूद्रों-अन्त्यजों तथा स्त्रियों को क्रमशः द्विजों(सवर्णों) तथा पुरुषों के अधीन बनाकर भेजा है। शूद्रों-अन्त्यजों तथा स्त्रियों का दैवीय कर्तव्य है कि वे सवर्णों तथा पुरुषों की आज्ञा का पालन करें तथा उनकी सेवा करें । अधीनता की इस व्यवस्था का उल्लंघन करने का अर्थ है- ईश्वरीय विधान का उल्लंघन।
इस संस्कृति की चौथी विशेषता है- अतार्किकता। जन्मजात श्रेष्ठता का कोई तार्किक आधार नहीं है। लेकिन महान से महान वैज्ञानिक, प्रोफेसर, न्यायाधीश, वकील, डॉक्टर, पत्रकार, राजनेता तथा अन्य ज्ञानीजन अपनी जन्मजात जातीय श्रेष्ठता के दम्भ में फूले हर कहीं मौजूद हैं। सोचने का यह तरीका तार्किकता की बुनियाद को ही खोखला कर देता है। अलोकतान्त्रिक सोच इसकी पाँचवीं विशेषता है। जातीय तथा लैंगिक श्रेष्ठता और निकृष्टता की भावना, इस संस्कृति की रीढ़ है। जनवाद तथा लोकतान्त्रिक भावना की अनिवार्य शर्त है- इंसान-इंसान के बीच मनुष्य होने के चलते बराबरी का भाव। बराबरी के इस भाव के बिना जनवादी या लोकतान्त्रिक विचार-भाव की कल्पना भी नहीं की जा सकती। सरोकारहीनता तथा असंवेदनशीलता इस संस्कृति की छठी विशेषता है। जब यहाँ एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को मनुष्य के रूप में देखने की जगह जाति-विशेष या लिंग-विशेष के रूप देखता है तो गहरी मानवीय संवेदनशीलता की जमीन ही कमजोर पड़ जाती है। एक दूसरे के प्रति इतनी सरोकारहीनता शायद ही किसी समाज में मौजूद हो। इस संस्कृति की सातवीं विशेषता है- जो जितना शारीरिक श्रम करे, उसे उतना ही कम खाने-जीने का साधन प्रदान किया जाए तथा जो जितना ही शारीरिक श्रम से दूर रहे, उसे उतना ही बेहतर भोजन तथा जीवन जीने के अन्य साधन प्रदान किए जाएँ। मेहनत करने वाला उत्पादक भूखा जीने को विवश तथा श्रम से दूर, खून चूसने वाला खा के आघाया हुआ।
वर्णव्यवस्था-जातिवाद के साथ ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति की दूसरी बुनियादी अभिलाक्षणिकता है- जातिवादी पितृसत्ता। इसकी पहली विशेषता है कि पुरुष श्रेष्ठ तथा स्त्री दोयम दर्जे की है। पुरुष-श्रेष्ठता की इस संस्कृति का ही परिणाम है- पुत्र लालसा जिसके चलते हर वर्ष करोड़ों लड़कियों को गर्भ में पहचान कर मार दिया जाता है, इस अपराध के लिए कि उनका लिंग स्त्री का है। यह सर्वव्यापी संस्कृति है। मारने वालों में शिक्षित-अशिक्षित, ब्राह्मण-दलित, शहरी-ग्रामीण तथा पुरुष-स्त्री सभी शामिल हैं। सर्वश्रेष्ठ ज्ञान-सम्पन्न और तथाकथित महान लोग इन हत्यारों में शामिल हैं। यह संस्कृति स्त्री को भोग की वस्तु समझती है। स्त्री तथा स्त्री की योनि इसके सम्मान एवं प्रतिष्ठा की सबसे बड़ी वस्तुएँ हैं। यह स्त्री को किसी प्रकार का जनवादी या बराबरी का हक देने को तैयार नहीं है। स्त्री क्या पहनेगी, कैसे बोलेगी, कैसे चलेगी, किससे बात करेगी, किससे नहीं बात करेगी, और सबसे बड़ा अधिकार किसे अपना जीवन साथी चुनेगी अर्थात् किससे शादी करेगी, यह संस्कृति यह सारा अधिकार पुरुष समाज को प्रदान करती है। उसका पिता, पति, भाई, चाचा या बेटा अर्थात् घर का पुरुष यह तय करेगा कि वह क्या करेगी और क्या नहीं करेगी। यदि वह इसका उल्लंघन करती है, बराबरी के अधिकारों की माँग करती है तो हिंसा की शिकार बनेगी, उसे पीटा जाएगा। यदि वह अपनी मनपसन्द के लड़के से प्रेम करने या शादी करने की जुर्रत करेगी तो मार डाली जायेगी(ऑनर किलिंग), प्रेम करने से इंकार करेगी तो उसके ऊपर तेजाब फेंका जाएगा या उसकी हत्या कर दी जाएगी। यहाँ तक कि उसे अपने शरीर पर भी हक प्राप्त नहीं। यदि वह पति से शारीरिक सम्बन्ध बनाने से इंकार करती है तो वह उसके साथ जबर्दस्ती शारीरिक सम्बन्ध बना सकता है अर्थात् बलात्कार कर सकता है। भारतीय कानून इसको बलात्कार नहीं मानता। भारत सरकार इस कानून को बदलने के लिए तैयार नहीं है। यह तो घर की हालत है, बाहर दरिंदे कभी भी उसके ऊपर हमला बोल सकते हैं, उसके साथ बलात्कार, सामूहिक बलात्कार कर उसकी हत्या कर सकते हैं।
समाजशास्त्री कहते हैं कि स्त्री के सतीत्व अर्थात् यौनशुचिता की अवधारणा निजी सम्पत्ति की व्यवस्था के साथ आयी थी अर्थात् यदि निजी सम्पत्ति का मालिक अपने असली वारिस को अपनी सम्पत्ति सौंपना चाहता है तो स्त्री का उसके प्रति पूर्णतया एकनिष्ठ होना अनिवार्य है, वह स्वयं भले ही व्यभिचारी हो। लेकिन भारत में स्त्री की इस काम के अलावा एक दूसरी बड़ी जिम्मेदारी है- जातीय रक्त शुद्धता की रक्षा करना। इसकी अनिवार्य शर्त है- स्त्री अपनी जाति के बाहर के किसी पुरुष से प्रेम न करे, शादी न करे तथा शारीरिक सम्बन्ध न बनाये।
जाति रक्षा तथा योनि रक्षा ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति के दो सबसे बुनियादी मूल्य हैं। डॉ. लोहिया ने कहा था कि हिन्दुओं का दिमाग जाति तथा योनि के कटघरे में क़ैद है। इस समाज का दिमाग तब तक मुक्त नहीं हो सकता है, जब तक इस कटघरे को तोड़ न दिया जाए। वेद, पुराण, संहिताएँ तथा स्मृतियाँ ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति, जाति एवं जातिवादी पितृसत्ता की महानता का एक स्वर से गुणगान करती हैं। कौटिल्य,वेदव्यास, वाल्मीकि, गौतम, नारद, मनु, याज्ञवल्क्य, पराशर, शंकराचार्य इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं। आधुनिक युग के बहुत सारे तथाकथित महानायक इस पर गर्व करते हैं। देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जाति तथा पितृसत्ता के तोड़ने की कानूनी कोशिश, अन्तर्जातीय विवाह तथा माता-पिता की अनुमति के बिना बालिग लड़के-लड़कियों को मनमर्जी से शादी करने का कानूनी अधिकार (हिन्दू कोड बिल के माध्यम से) देने को भारतीय संस्कृति तथा पवित्र परिवार-व्यवस्था को नष्ट करने का प्रयास मानते थे।
क्या ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति की जातिवाद तथा पितृसत्ता-सम्बन्धी विशिष्टतायें अतीत की वस्तु बन गयी हैं? उसका उत्तर है बिल्कुल नहीं। कोई भी व्यक्ति जो व्यापक भारतीय जीवन-यथार्थ को देखता और समझता है वह बिना किसी सन्देह के कह सकता है कि भारतीय समाज का बहुलांश सार रूप में इन्हीं दो मूल्यों से बुनियादी तौर पर संचालित होता है। जाति और पितृसत्ता हिन्दू समाज का बुनियादी व्यावहारिक सच है। हाँ, इसमें पूंजीवादी पतनशील शक्ति भी घुसपैठ कर गयी है। इसमें मात्रात्मक तथा रूपगत परिवर्तन आए हैं लेकिन इससे सार पर गुणात्मक फर्क नहीं पड़ा है। साम्राज्यवादी पतनशील संस्कृति ने इसके सार एवं रूप को और विकृत और घिनौना बना दिया है। इसका मनुष्य-विरोधी रूप और ज्यादा घृणित एवं वीभत्स हो गया है।
जाति और जातिवादी पितृसत्ता ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति की जन्मजात बुनियादी विशेषता रही है। कालक्रम में इसमें एक और मनुष्य-विरोधी घृणित विचार एवं मूल्य जुड़ गया है जिसका आन्तरिक तत्व है- साम्प्रदायिक वैमनस्य, साम्प्रदायिक घृणा का विचार एवं मूल्य। मुसलमानों-ईसाइयों के खिलाफ नफरत, घृणा एवं वैमनस्य आज ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति का सबसे ऊपर दिखने वाला तत्व बन गया है। इन दोनों के खिलाफ घृणा, नफरत एवं दंगे के माध्यम से यह संस्कृति हिन्दू एकता के नाम पर अपने जातिवादी-पितृसत्तावादी घृणित मनुष्यविरोधी मूल्यों को ढँकना चाहती है। जबकि ये दोनों इसकी रीढ़ हैं। डॉ. आंबेडकर ने बिल्कुल ठीक कहा था कि जाति व्यवस्था के खात्मे के साथ ही हिन्दू धर्म का भी खात्मा हो जायेगा, क्योंकि वही इसका प्राण-तत्व है। मुसलमानों तथा ईसाईयों के प्रति घृणा, विशेषकर मुसलमानों के प्रति घृणा के पीछे धार्मिक विद्वेष के साथ ही दो अन्य तत्व काम करते हैं। पहला अधिकांश मुसलमानों का इस्लाम धर्म-ग्रहण करने से पहले वर्ण-व्यवस्था में शूद्र या अन्त्यज होना, दूसरा अधिकांश मुसलमानों का गरीब होना अर्थात् शारीरिक श्रम करना। दूसरे शब्दों में कहे तो मुसलमानों के प्रति घृणा के पीछे धार्मिक विद्वेष के साथ ही, जातीय तथा वर्गीय घृणा भी छिपी हुई है। हिन्दू संस्कृति में मुसलमानों के प्रति घृणा कितनी गहरी है इसका प्रमाण गुजरात जनसंहार में मिला। जहाँ खुलेआम भीड़ के बीच एक माँ बनने वाली स्त्री के साथ बलात्कार किया गया, उसका पेट फाड़ा गया है। , हिन्दुवादियों की स्त्री-विरोधी घिनौना चेहरा मुजफ्फरनगर दंगो में सामने आया जब गाँव के ही लोग जिन्हें कल तक मुस्लिम स्त्रियाँ अपना चाचा, ताऊ, भाई, बेटा कहकर पुकारती थीं, उनके साथ सामूहिक बलात्कार करने में इन ताऊओं, चाचाओं, बेटों, भाईयों को कोई शर्म नहीं आयी। शर्म की जगह गर्व की अनुभूति हुई। वे आज भी गर्व से फूले घूम रहे हैं, कई तो सांसद बन गये।
ये हैं ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति के तीन तत्व। इस संस्कृति का मुकम्मल गठजोड़ विश्वव्यापी पूँजी की संस्कृति से हो गया है। इस विश्वव्यापी पूँजी की संस्कृति को साम्राज्यवादी संस्कृति भी कहते हैं। इसकी सबसे पहली विशेषता है- हर चीज को माल में तब्दील कर देना अर्थात् खरीदने-बेचने की वस्तु बना देना। दुनिया एक बाजार है, हर आदमी एक विक्रेता या क्रेता है, हर चीज बिकाऊ माल है, ईश्वर बिकाऊ हैं, मूल्य बिकाऊ है, विचार बिकाऊ हैं, साहित्य-संस्कृति बिकाऊ हैं, साहित्यकर्मी-रचनाकर्मी बिकाऊ हैं, कला बिकाऊ है, कलाकार बिकाऊ हैं, न्यायालय बिकाऊ है, न्यायाधीश बिकाऊ हैं, राष्ट्र बिकाऊ है, राष्ट्र के नेता बिकाऊ हैं, बुद्धि बिकाऊ है, बुद्धिजीवी बिकाऊ हैं, अभिनय बिकाऊ है, अभिनेता-अभिनेत्री बिकाऊ हैं, निर्देशक बिकाऊ हैं, न केवल निर्जीव वस्तुएँ बिकाऊ हैं बल्कि सजीव इंसान बिकाऊ है, श्रम बिकाऊ है, श्रमिक बिकाऊ हैं, इस संस्कृति के लिए ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे बेचने लायक न बनाया जा सके, जिसे बेचा ना जा सके, जिसे खरीदा न जा सके। यहाँ सौन्दर्य का बाजार लगता है, आप बाजार से हुस्न खरीद सकते हैं, इश्क खरीद सकते हैं, इसे बेच भी सकते हैं। जो खरीदने-बेचने से इंकार कर देता है, उसे दुनिया में रहने का कोई हक नहीं है, उसे जीने का कोई हक नहीं है। वह यदि खरीदने-बेचने या बिकने का विरोध करता है तो उसे सभ्यता-विरोधी घोषित कर दिया जाता है, उसे विकास-विरोधी घोषित कर दिया जाता है, उसके ऊपर देशद्रोही, नक्सली या माओवादी आतंकवादी का लेबल लगाकर जेल में डाल दिया दिया जाता है या हत्या कर दी जाती है। इस संस्कृति के लिए हर वह इंसान देशद्रोही, मानवद्रोही है, सभ्यता-विरोधी तथा विकास-विरोधी है जो खरीदने-बेचने तथा बिकने की इस संस्कृति का विरोध करता है। इस संस्कृति की दूसरी विशेषता है- आदमी के भीतर की बुनियादी आदिम-मूल प्रवृत्तियों को ऐसी दिशा देना जिससे वह एक ऐसे जानवर या नर पिशाच में तब्दील हो जाए जिसे इंसान-विरोधी कोई कुकृत्य करने में थोड़ी भी हिचक न हो। यह संस्कृति मनुष्य की बुनियादी मूल प्रवृत्तियों को उभाड़कर उसे शैतानी दिशा देती है। मनुष्य की मूल प्रवृत्तियों में सबसे प्रबल प्रवृत्ति यौन-इच्छा या काम-भावना है। मनुष्यता के लम्बे समय के इतिहास में स्त्री-पुरुष के बीच प्रेम जैसी उदात्त प्रवृत्ति का विकास इसी से हुआ। साम्राज्यवादी संस्कृति अपनी फिल्मों, टीवी-चैनलों, पोर्नोग्राफी तथा विज्ञापनों के माध्यम से यौन-इच्छा को प्रेम से अलग कर देता है। इसे इस तरह उभाड़ती है कि यह कामपिपासु शैतान की इच्छा में बदल जाए। यह कामपिपासु शैतानों की रचना करती है, जिन्हें नन्हीं-सी बच्ची से लेकर दादी माँ सरीखी स्त्री से भी बलात्कार करने में जरा-सी हिचक नहीं होती। यह संस्कृति स्त्री के प्राकृतिक सौन्दर्य तथा आकर्षण को माल बनाकर वस्तुएँ बेचने के लिए इस्तेमाल करती है। अपने विज्ञापनों में यह स्त्री को एक ऐसे माल में तब्दील में कर देती है, जो यौन-इच्छा जगाने की जीती-जागती गुड़िया हो। जूता बेचना हों तो, गाड़ी बेचना हो तो, मकान बेचना हो तो, कपड़े बेचने हो तो, सबसे पहले विज्ञापन में एक स्त्री आती है, वह यौन पिपासा जगाती है, फिर कहती है कि यदि इस यौन पिपासा को शान्त करना चाहते हो तो इस वस्तु को खरीद लो। स्वयं स्त्री को विज्ञापनों में ऐसे पेश किया जाता है, ऐसे बताया जाता है कि तुम जितनी अधिक यौन-इच्छा को जगा सकती हो, उतनी ही तुम्हारी उपयोगिता है, नहीं तो तुम व्यर्थ और बेकार हो, तुम्हारा कोई मूल्य नहीं है। इस संस्कृति के लिए स्त्री यौन-इच्छा को जगाने वाली वस्तु है। इस संस्कृति की तीसरी विशेषता है- लोभ-लालच अथवा फायदे की संस्कृति। यह बाजारू संस्कृति इन मूल्यों और विचारों को लोगों के बीच कूट-कूट कर भरने की कोशिश करती है कि कुछ भी करो, कुछ भी सोचो तो सबसे पहले यह सोचो कि तुम्हारा क्या फायदा है? कुछ भी ऐसा न करो जिसमें तुम्हारा फायदा न हो। हर कार्यवाही-गतिशीलता का प्रेरणास्रोत लोभ-लालच होना चाहिए। व्यक्तिगत लोभ-लालच के इतर कुछ भी सोचना, करना मूर्खता और बेवकूफी के अलावा कुछ भी नहीं है।
पूंजी की संस्कृति का एक रूप है उपभोक्तावादी संस्कृति। एक ऐसी संस्कृति जिसमें मनुष्यों को ऐसी वस्तुएँ खरीदने के लिए विवश एवं प्रेरित कर दिया जाता है, जिसकी उसे कोई आवश्यकता नहीं है। इसी खरीद-बिक्री के आधार पर इसकी अर्थव्यवस्था चलती है। उपभोक्तावादी संस्कृति मनुष्य को एक हवसी इंसान में तब्दील कर देती है, जो खरीदने की हवस का शिकार हो जाता है। खरीदना ही उसके जीवन का लक्ष्य बन जाता है। वह कोई भी कुकर्म करके, कोई भी समझौता करके, कोई मूल्य छोड़कर चीजों को खरीद लेना चाहता है, उसे खरीदने में ही जीवन का सुख दिखाई देता है। एक चीज खरीदता है, कुछ समय बीता नहीं कि दूसरी चीज खरीदने के लिए लपक पड़ता है। लोभ-लालच आधारित यह उपभोक्तावादी संस्कृति मनुष्य को आत्मकेन्द्रित बनाती चली जाती है। स्वार्थपरता उसके व्यक्तित्व से अपने वीभत्स एवं घृणित रूप में टपकती रहती है। उसे देखकर घिन और उबकाई आती है। आत्मकेन्द्रित इंसान अपने रूप-रंग-आकार-प्रकार में इंसान तो दिखता है लेकिन पशु से भी गया गुजरा होता है, क्योंकि जानवर के स्वार्थ की प्रकृति ने सीमायें बना दी हैं। वह पेट भर जाने पर खाना इकट्ठा नहीं करता, लालच-लोभ जानवरों में नहीं होता, जानवर हवस के शिकार भी नहीं होते। यह संस्कृति मनुष्य का अमानवीकरण करती है। मार्क्स ने ‘कम्युनिस्ट घोषणा पत्र’ में कहा है कि जब निर्जीव वस्तु(पूँजी)सजीवों (मनुष्यों) की संचालक बन जाती है तो यह नित निरन्तर तीव्र गति से मनुष्यों का अमानवीकरण करती है। अमानवीकरण की इस प्रक्रिया की गति तथा ताकत पूँजी की गति तथा ताकत पर निर्भर करती है। आज पूँजी ने अबाध गति से पूरे विश्व में अपना प्रसार कर लिया है। उसका शैतानी खूनी पंजा दुनिया को अपनी गिरफ़्त में लेता जा रहा है। वह सभी मानवीय मूल्यों को नष्ट कर रहा है, सभी मानवीय समबन्धों को लेन-देन के सम्बन्धों(विनिमय के सम्बन्धों) में तेजी से तब्दील कर रहा है। हर इंसानी मूल्य पूँजी के मार्ग का अवरोध होता है। पूँजी अपने विस्तार तथा प्रभुत्व के लिए हर मानवीय मूल्य तथा सम्बन्धों की कब्र खोदती है। वह इतनी विकराल तथा खून की प्यासी हो चुकी है कि वह पूरी धरती को निगल जाने पर उतारु है। पूँजी के विस्तार तथा मुनाफे के लिए प्रकृति का जिस प्रकार दोहन किया जा रहा है उसके चलते धरती का विनाश या धरती का मनुष्यों के न रहने लायक हो जाना कोई सुदूर भविष्य की कल्पना मात्र नहीं है बल्कि निकट भविष्य की वास्तविकता है। यदि प्रकृति-विरोधी, मनुष्य-विरोधी पूँजी की इस संस्कृति की अबाध गति को रोका नहीं गया, जितना जल्दी सम्भव हो पूँजी के अस्तित्व को खत्म नहीं किया गया तो यह विनाश अवश्यम्भावी है।
प्रश्न यह उठता है कि क्या इन पतनशील संस्कृतियों के गठजोड़ प्रतिरोध किया जा सकता है, क्या इन्हें आगे बढ़ने से रोका नहीं जा सकता है? इनके विस्तार को सीमित नहीं किया जा सकता? क्या इनका समूल नाश नहीं किया जा सकता? क्या सिर्फ मनुष्यता को केन्द्र में रखने वाली संस्कृति का निर्माण नहीं किया जा सकता? क्या हमारे देश में ऐसी संस्कृति तथा परम्परा नहीं रही है जिसने ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति का प्रतिरोध किया हो? यदि वह रही है तो कौन सी परम्परा है? क्या दुनिया के पैमाने पर पूँजी की संस्कृति के विरोध की लम्बी परम्परा नहीं रही है? क्या आज बहुलांश लोगो, सच कहें तो पूरी मनुष्य-जाति का हित इसमें नहीं है कि इन दोनों संस्कृतियों का समूल नाश कर दिया जाए? क्या प्रगतिशील परम्परा के संस्कृतिकर्मियों-संगठनों-संस्थाओं से कुछ जाने-अनजाने ऐसी भूलें नहीं हुई हैं जिनसे इन प्रतिगामी संस्कृतियों को फलने-फूलने-विकसित होने तथा राष्ट्र के जीवन पर छा जाने का मौका मिला? क्या हमें उन भूलो-ं गलतियों को स्वीकार करके आगे नहीं बढ़ना चाहिए? क्या हमसे दोस्तों-दुश्मनों की सटीक पहचान करने में कुछ भूल-गलतियाँ नहीं हुई है? इन प्रतिगामी संस्कृतियों के प्रतिरोध की रणनीति क्या होगी, कौन-सी शक्तियाँ इसमें हमारा साथ देंगी, कौन-सी शक्तियाँ हमारे खिलाफ खड़ी होंगी, हमें इसकी भी जाँच-पड़ताल करनी होगी। साथ ही आज जो भी प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन चल रहे हैं, उनकी पहचान नये सिरे से करने की आवश्यकता है। हमें ठहरकर अपनी कमजोरियों तथा सामर्थ्य का मूल्यांकन करना चाहिए। हमें इन प्रश्नों का सही-सही उत्तर ढूँढ़ना ही होगा। इन प्रश्नों के उत्तर ढूढ़ने की अतीत तथा वर्तमान की तमाम कोशिशों को जानना-समझना होगा, जो हमारे काम का है, उन्हें आत्मसात करना होगा।
सबसे पहले मैं ठेठ भारतीय संस्कृति, ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति को लेता हूँ जितना पुराना इस प्रतिगामी संस्कृति का इतिहास है उतना ही पुराना इसके प्रतिरोध का भी इतिहास है। वर्ण-व्यवस्था आधारित पितृसत्तात्मक संस्कृति के जन्म के साथ ही वर्ण-व्यवस्था विरोधी श्रमण-लोकायत संस्कृति का भी जन्म हुआ। श्रमण संस्कृति का व्यापक प्रभाव पड़ा, राजे-महाराजे से लेकर सामान्य जनों तक ने इसे स्वीकार किया। प्राचीन काल में इसके महानायक के रूप में गौतम बुद्ध, महावीर स्वामी तथा चार्वाक सामने आये। श्रमण संस्कृति ने ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति को चुनौती दिया, पराजित भी किया। भले ही इतिहास के लम्बे दौर के बाद उसे पराजय का सामना करना पड़ा। फिर भी प्रतिरोध की यह परम्परा उठ खड़ी हुई, सिद्धों-नाथों के माध्यम से आगे बढ़ी है। इस परम्परा ने तथाकथित निम्न जातियों (मेहनतकश जातियों) के सन्तों- कबीर, रैदास के नेतृत्व में भक्ति आन्दोलन का रूप ग्रहण कर लिया तथा पुनः सामन्तवादी संस्कृति को, ऊँच-नीच की ब्राह्मणवादी-संस्कृति को चुनौती देते हुए आमजन पर गहरा प्रभाव डाला। भारी संख्या में लोग इन सन्तों के अनुयायी बने। ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति लड़खड़ाने लगी, उसने अपने को थोड़ा उदार तथा थोड़ा मानवीय बनाकर पेश करने की कोशिश किया। तुलसीदास इस नयी ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति के संरक्षक के रूप में सामने आए। वे रामचरितमानस में शम्बूक का वध नहीं कराते, वे सीता को निर्वासित नहीं कराते हैं, वे राम के प्रति पूर्ण समर्पित शबरी-निषाद की रचना करते हैं। सीता को राम की पूर्ण अनुगामिनी के रूप में पेश करते हैं, जहाँ सीता का अपना व्यक्तित्व ही नहीं रह जाता। इस तरह तुलसीदास ब्राह्मणवाद-मनुवाद को पुनर्जीवन देते हैं। फिर एक बार ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति की जीत होती है। फिर आता है आधुनिक काल। एक बार फिर ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति को जोतिबा राव फुले, शाहूजी महाराज, पेरियार तथा भीमराव आंबेडकर निर्णायक चुनौती देते हैं। इसके रक्षक के रूप में तिलक, महात्मा गाँधी, राजेन्द्र प्रसाद सामने आते हैं। पुनः एक बार फिर ब्राह्मणवादी-मनुवादी संस्कृति की कुछ सुधारों के साथ जीत होती है। फुले, पेरियार, आंबेडकर के अनुयायी इस संस्कृति को चुनौती देते हैं, लेकिन 1990 तक आते-आते राजनीतिक रूप में संगठित इनके अधिकांश नेता तथा पार्टियाँ ब्राह्मणवाद-मनुवाद के सामने आत्मसमर्पण कर दिया, हाँ साहित्य-संस्कृति तथा बौद्धिक-कर्म में रत इस धारा के अनेक संगठन, विचारक व चिंतक ब्राह्मणवाद-मनुवाद को छोटे स्तर पर ही सही, धीमे स्वर में ही सही, चुनौती दे रहे हैं।
वामपन्थी संस्कृति अपने जन्म के साथ ही सामन्ती संस्कृति का प्रतिरोध करती रही है लेकिन भारतीय सामन्ती संस्कृति को उसके सटीक अन्तर्य तथा रूप के साथ इसने बहुत बाद में पहचाना है। अब इस घेरे का भी एक हिस्सा ठेठ भारतीय प्रतिगामी संस्कृति को ब्राह्मणवादी-मनुवादी, द्विज संस्कृति कहता है, इसे अपने सांस्कृतिक हमले का निशाना बनाता है तथा अपनी प्रगतिशील सांस्कृतिक परम्परा को बुद्ध-सिद्ध-नाथ-कबीर-रैदास-फूले-पेरियार तथा डॉ. अंबेडकर के साथ जोड़ता है। इस सबके बावजूद भी प्रगतिशील संगठनों के एक बड़े हिस्से को बुद्ध-कबीर-फूले-पेरियार तथा अंबेडकर को अपनी प्रगतिशील परम्परा में शामिल करने में हिचक है, संकोच है। कई बार तो नफरत तथा दुराग्रह भी दिखाई पड़ता है। इस स्थिति को तोड़े बिना हम भारत की ठेठ प्रतिगामी-पतनशील संस्कृति का मुकाबला नहीं कर सकते हैं।
प्रतिगामी साम्राज्यवादी संस्कृति अर्थात् पूँजी की संस्कृति के प्रतिरोध की भी लम्बी विश्वव्यापी परम्परा रही है। हमारे देश में भी इसकी एक लम्बी परम्परा रही है। समाजवाद की सामयिक पराजय तथा हमारी भूल-गलतियों से इस परम्परा को धक्का लगा तथा यह कमजोर पड़ी। यह अभी बिखराव, निराशा, नाउम्मीदी के दौर से गुजर रही है। हमारे देश के कई इलाकों जनता वैकल्पिक मानवीय संस्कृति के निर्माण में लगी हुई है। हमें अपनी भूल-गलतियों को स्वीकार करते हुए, अपनी सामयिक पराजय से पूर्णतः मुक्त होकर अपनी शक्ति समेटनी होगी। हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ब्राह्मणवादी-मनुवादी तथा साम्राज्यवादी-पूँजीवादी, इन दोनों प्रतिगामी संस्कृतियों ने आपस में मुकम्मल गठजोड़ कर लिया है या यूँ कहें कि ये आपस में पूर्णतया घुल-मिल गयी हैं, लेकिन हमारे देश में दो प्रगतिशील संस्कृति- ब्राह्मणवाद-मनुवाद विरोधी संस्कृति तथा साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी संस्कृति की धाराएँ काफी अलग-अलग हैं। बहुत सारे सांस्कृतिक संगठन इन दोनों धाराओं का मेल कराने वाले संगठनों के रूप में सामने आए, लेकिन यह परिघटना व्यापक सांस्कृतिक कर्म का हिस्सा नहीं बन पायी । हम दोनों के दुश्मन एक हो गये हैं। हम अलग-अलग रहकर दुश्मन की ताकत को बढ़ा रहे हैं तथा चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने अपनी ताकत को कमजोर कर रहे हैं।
इन दोनों प्रगतिशील संस्कृतियों के मेल के बिना प्रतिगामी संस्कृतियों के गठजोड़ को चुनौती नहीं दी जा सकती है, उनका प्रतिरोध नहीं किया जा सकता है,उनका समूल नाश नहीं किया जा सकता है। प्रतिरोध की रणनीति का पहली जरूरत है- दोनों प्रगतिशील सांस्कृतिक धाराओं का मेल।
प्रतिगामी संस्कृतियों का गठजोड़ अपनी लाख विकरालता तथा पैशाचिक चरित्र के बावजूद भीतर से अत्यन्त कमजोर है क्योंकि वह मनुष्य विरोधी है। देश की बहुलांश आबादी मेहनतकश लोगों की है जो इन दोनों संस्कृतियों के जुए तले पिस रहे हैं। इन मेहनतकशों की वस्तुगत स्थिति इन संस्कृतियों के खिलाफ है, भले ही ये विचार, संस्कारवश इनके पक्ष में दिखाई पड़ते हों। हम देश के बहुलांश मेहनतकशों पर भरोसा करके उनके बीच प्रगतिशील संस्कृति को स्थापित करके प्रतिगामी संस्कृतियों के नापाक गठजोड़ का प्रतिरोध कर सकते हैं और अन्ततोगत्वा उनका समूल नाश कर सकते हैं। ज़रूरत है अपने लोगों से सघन रिश्ता जोड़ने की ताकि वे हमें अपना समझ सकें और हम उन्हें सही अर्थों में अपना कह सकें।