– शंभुनाथ शुक्ल
चाणक्य ने लगभग दो हजार साल पहले अपने ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में राजाओं को शासन करने और धन उगाही के उपाय बताए थे. उसकी शिक्षा का सबसे ज्यादा फायदा आज उठाया जा रहा है.
चाणक्य के ‘अर्थशास्त्र’ के 5वें अध्याय की राजनीतिक शिक्षाओं पर गौर करें :
(1) राजा भूमि में किसी देवता को छिपाकर दिखाए कि देवता जमीन फाड़कर निकले हैं, राजा वहां मंदिर बनवाए.
(2) कोई जासूस पेड़ पर राक्षस के रूप में नरबलि की मांग करे, फिर प्रेतात्मा की शांति के नाम पर राजा धन उगाही करे.
(3) राजा किसी प्रधान देवता को बकरे के रक्त से नहला दे, फिर राज्य के विनाश का भय दिखाए. आदि आदि…ये 2000 साल पहले की तरकीबें हैं!
आजकल धार्मिक ध्रुवीकरण के जरिए सत्ता को सुदृढ़ रखने के लिए हथियारबंद धार्मिक जुलूस निकाले जा रहे हैं, वैसे ही नारे बनाए जा रहे हैं और धार्मिक पाखंड धर्म पर हावी है.
इसके अलावा, अतीत के दुखद विषय उठाकर भारत के परिवेश को जिस तरह जहरीला और हिंसात्मक बनाया जा रहा है, उसका खराब असर अंततः विकास, रोजगार- सृजन और शान्तिपूर्ण नागरिकों के जीवन पर पड़ रहा है.
गरीब ही मार रहा है, गरीब ही मर रहे हैं और सभी धर्मों के अमीर, शक्ति सम्पन्न लोग, अपने विलास महल में मस्त हैं!
चिंताजनक है कि बच्चों तक के दिमाग में ज्ञान की भूख की जगह बदले की भावना भरी जा रही है!?
नए चाणक्यों की सांप्रदायिक रणनीति क्यों सफल है?
आजकल बाघ की तरह मेमनों के सामने तर्क रखा जाता है कि “तुमने नहीं तो तुम्हारी माँ ने पानी गंदा किया होगा! अब तुम्हें मेरा आहार बनना है!”
देश की हालत कुछ यही है!
सांप्रदायिक ताकतों ने भोले मन को प्रभावित करने वाला एक प्रभावशाली तर्कशास्त्र गढ़ लिया है!
वह अपने सौ साल की सधी राजनीतिक यात्रा में एक खास वैचारिकता से सुसज्जित है, जबकि विपक्ष वैचारिक रूप से रूढ़िग्रस्त है– करीब- करीब खोखला !
नए चाणक्यों की सांप्रदायिक रणनीति अब तक सफल है, इसमें संदेह नहीं.
संपूर्ण विपक्ष इनके धार्मिक चक्रव्यूह में फंस गया है, वह एक गहरे राजनीतिक ट्रैप में है.
वह बिलकुल वैसा ही आचरण करता है, वैसा ही बोलता है जैसा सांप्रदायिक रणनीतिकार चाहते हैं. वे लोग अपने वैचारिक गड्ढे से बाहर नहीं निकल पा रहे हैं और बॉल हमेशा जहर फैलाने वालों के पास रहता है!
गौर करने की चीज है, सांप्रदायिक रणनीतिकारों के धार्मिक चक्रव्यूह में, गरीब मुसलमान जनता ज्यादा फंसी हुई है!
दरअसल उसमें राजनीतिक चेतना पैदा करने की कोशिश कभी नहीं की गई.
मुसलमानों के रूढ़िबद्ध और घेटो-टाइप जीवन को सुरक्षा स्थल बताया गया, उसे ग्लैमराइज (महिमा मंडित) किया गया और सामाजिक सुधारों से दूर रखा गया.
निःसन्देह उन्हें अपराधी और माफिया वृत्ति के मुस्लिम नेताओं ने और कठमुल्ले धार्मिक नेताओं ने अब तक भुलावे में रखा है. कट्टरवादी मुस्लिम नेता, मुसलमानों को उकसा कर सांप्रदायिकता के ही हाथ मजबूत करते हैं और ध्रुवीकरण का अवसर देते हैं.
–यह सब अब कहना होगा.
मीडिया ओवैसी जैसे नेताओं के बयान जानबूझ कर उछालती है, ताकि हिन्दू उसे ही मुसलमानों का प्रतिरूप समझकर उत्तेजित हों, अन्यथा उसकी कितनी हैसियत है!
(असलियत में) आम मुसलमान डरे हुए हैं, निस्सहाय हैं. सभी आम लोग असुरक्षित हैं..
इन सारे मामलों पर फिर से विचार करने की जरूरत है.
म्यूजियम में रखे तोप लेकर सफल संघर्ष संभव नहीं है!
चिंताजनक है कि देश के लोकतांत्रिक राजनीतिक दल मुसलमानों से सीधे नहीं जुड़ पा रहे हैं. इनके नेता सांप्रदायिकता का सामना करने के लिए मुसलमानों को अहिंसात्मक प्रतिरोध का कार्यक्रम नहीं दे पा रहे हैं.
विपक्ष के नेता मुसलमानों का समर्थन पाने के लिए मुख्यतः अपराधी माफिया नेताओं पर निर्भर हैं. वे शिक्षित और जागरूक मुसलमानों को आगे नहीं करते.
उनकी पुरानी पद्धति, पुरानी घिसीपिटी राजनीतिक भाषा साम्प्रदायिक उकसावे के चक्रव्यूह को लगातार मजबूत बनाती है. यही वजह है कि बॉल लगातार नए चाणक्यों के पास है!
धर्मनिरपेक्ष नेता मुंह बाए खड़े रहते हैं! उनके पास आमतौर पर चुनाव के पहले कोई जन- कार्यक्रम नहीं होता, कोई आंदोलन नहीं होता. सिर्फ अखबारी बयान होते हैं!
समाधान क्या है?
समाधान यह है कि सांप्रदायिकता से प्रेरित धार्मिक चक्रव्यूह के भेदन के लिए सारे विपक्षी दल आपस में संवाद और एकता स्थापित करें. वे अपनी राजनीतिक भाषा बदलें. वे आम हिंदुओं और आम मुसलमानों को लामबंद कर तब-तब सामने आकर गांधी की तरह अहिंसक प्रतिरोध करें, जब- जहां सांप्रदायिक उकसावे की घटनाएं संभावित हों.
सबकुछ प्रशांत किशोर जैसे रणनीतिकारों की टेक्नोलॉजी पर छोड़ देना वैचारिक दिवालिएपन का चिन्ह है.
यह गांधी के लौटने का समय है!
विपक्ष के नेता अपने को हिन्दू धर्माचार्यों की तरह ही मुल्ला- मौलवियों से भी दूर रखें और कूपमंडूकता के खिलाफ शालीनता से मुखर हों.
मुस्लिम समाज के शिक्षित नौजवानों का सामने आना वक्त की मांग है. हर तरफ सुधार वक्त की मांग है.
यह बिल्कुल संभव है कि पर्व-त्योहारों के दिन राजनीतिक लोग मिलकर मुसलमानों की रक्षा में जगह- जगह ह्यूमन चेन बनाएं, ताकि उपद्रवी अपने मकसद में कामयाब न हों. वे शांति आंदोलन शुरू करें. महंगाई और सरकारी संस्थानों के राजनीतिकरण के विरुद्ध ऐक्यबद्ध आंदोलन शुरू करें. वे जनता को बताएं कि उनका अपना भिन्न आर्थिक कार्यक्रम क्या है, वे कैसा प्रशासन देंगे.
इन आंदोलनों में कलाकारों, संस्कृतिकर्मियों तथा वकीलों -डॉक्टरों , लेखकों सभी तरह के नागरिकों का साथ लें. वे गाएं, नृत्य करें और हाथ में चित्र – बैनर लें.
न कि हथियारों का जवाब हथियारों में खोजे जाएं या धार्मिक दिखावे का जवाब धार्मिक दिखावा करके दिया जाए!
इस समय यही सब ज्यादा हो रहा है.
नई चुनौतियों का सामना पुरु की तरह नहीं किया जा सकता जिसकी सेना उसके ही हाथियों द्वारा कुचली गई थी.
दरअसल राजनीति की पूरी भाषा को बदलना होगा, फिलहाल हर विपक्षी बयान सांप्रदायिकता को ही बल प्रदान कर रहा है और साधारण हिंदू लोग अधर्म को ही धर्म समझ रहे हैं!
देश में आज जो अराजकता है, उसके लिए एक दिन सबसे अधिक जिम्मेदार वे माने जाएंगे जो बंधुत्व, स्वतंत्रता और न्याय की बात करते रहे हैं!