एक सच और भी !

तथ्यों का विश्लेषण

द्वारा : विमल शर्मा ‘पांचाल’

                बहुत तकलीफ होती है, जब यह सुनता हूँ कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद से भारत की आजादी मुख्यतः कांग्रेस और उसके कुछ नेताओं द्वारा मिली या दूसरे शब्दों में कहूँ तो कांग्रेस को ही प्रमुख भूमिका के रूप में चित्रित किया जाता है। इतिहास को पढ़ना-जानना इसलिए जरूरी होता है कि इतिहास में जो भी गलतियाँ हुई हैं तथा जो गद्दारियां हुई हैं, उससे वर्तमान और भावी पीढ़ियां सबक लें और उन गलतियों को न दोहराएं। दूसरा, इतिहास के सच को वह जाने और अपनी दिशा तथा दशा पर चिन्तन करते हुए आगे बढ़ें।

                माना जाता है कि लगभग सन् 1600 में ईस्ट इण्डिया कंपनी भारत में व्यापार करने के बहाने भारत में घुसी थी। धीरे-धीरे उसने पूरे भारतवर्ष में “फूट डालो, राज करो” और तलवार व बंदूक के जोर पर अपना साम्राज्यवादी राज्य स्थापित किया तथा सैकड़ों वर्ष भारत को अपनी चंगुल में बनाऐ रखा। ऐसा भी नहीं है कि उसने यह काम एक दिन में किया हो और ऐसा भी नहीं है कि छुटमुट संघर्ष से लेकर व्यापक संघर्ष न हुआ हो।

                कांग्रेस की स्थापना 25 दिसम्बर, 1885 में ए.ओ. ह्यूम के जरिये हुआ था, जो एक रिटायर्ड अंग्रेज अधिकारी था और ब्रिटिश साम्राज्यवाद का एक वफादार भक्त था, जबकि भारत का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम 1857 में हो चुका था, जिसे प्रथम असफल क्रांति और संगठित विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है। जबकि सही मायने में कांग्रेस का आन्दोलन अपवाद स्वरूप इक्का-दुक्का छुटमुट विरोध को छोड़ दिया जाये तो सन् 1919 में गांधी जी के आने के बाद शुरू होता है, जिसे क्रांन्तिकारियों ने समझौतावादी आन्दोलन बताया है। सन् 1919 के पहले तो कांग्रेस का स्वरूप कुछ छूटें अथवा रियायतें मांगने तक सीमित रहा। 1919 के बाद चले आन्दोलन भी ज्यादातर घुटनाटेकू आन्दोलन ही रहे, किन्तु इन आन्दोलनों ने जनता में चेतना जरूर फूंकी थी, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। दूसरी ओर कांग्रेसी आन्दोलन के साथ-साथ क्रान्तिकारी आन्दोलन भी H.S.R.A. (हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोशिएशन) जैसे विख्यात व अन्य क्रान्तिकारी गुटों द्वारा व्यापक पैमाने पर चले, जो ख्यातिप्राप्त आन्दोलन रहे हैं। यहाँ तक कि डा. पट्टाभि सीतारमैया जैसे कांग्रेसियों व इतिहासकारों ने भी स्वीकारा है कि हाँ 1929, 1930, 1931 के वर्ष ऐसे वर्ष रहे है, जहाँ गांधी जी की ‘जय’ फीकी पड़ गयी थी और ”इन्कलाब जिन्दाबाद, साम्राज्यवाद मुर्दाबाद, क्रान्ति -चिरंजीवी हो” का नारा पूरे देश में गुंजायमान था।

                ’कांग्रेस का इतिहास’ नामक पुस्तक में पट्टाभि सीतारमैया द्वारा इसका जिक्र है। जवाहरलाल नेहरू को भी इस बात को स्वीकारना पड़ा था। इतना ही नहीं, सन् 1919 के पहले कई क्रान्तिकारी गुट रहे, उनमें से क्रान्तिकारी अनुशीलन समिति, जो पूरे भारतवर्ष में व्यापक स्वरूप ग्रहण कर चुकी थी। यह बात उस समय पकड़े गये क्रांन्तिकारी के दस्तावेजों से पता चलता है। इसके अलावा अभिनवभारत, युगान्तर दल का भी प्रमुख स्थान है। इतना ही नहीं, कांग्रेसी आन्दोलन के पहले गदर पार्टी का निर्माण हो चुका था। रोटी- रोटी के लिए विदेशों में रह रहे श्रमजीवी भारतीयों ने इसका निर्माण किया था। गदर पार्टी के कई नौजवानों को फांसी दी गई। लेखक सोहन सिंह ’जोष’ द्वारा लिखित पुस्तक बाबा सोहन सिंह ’भकंना की संक्षिप्त जीवनी’ में साभार स्वरूप पेज नंबर 16 पर दिया गया है कि ’’गदर पार्टी के महान नेता अक्सर शिकायत किया करते थे कि कांग्रेसी इतिहासकारों ने जान-बूझकर इतिहास के उस स्वर्णिम अध्याय पर पर्दा डालने की कोशिश की है, जिसे क्रान्तिकारी देशभक्तों ने अपने खून से लिखा था। उदाहरण के तौर पर 1914-15 के दौरान 250 क्रान्तिकारियों को फांसी पर लटकाया गया तथा अनेक फौजियों को गोली मार दी गयी थी। सैकड़ों व्यक्तियों को आजीवन कारावास हुआ और उन्हें अण्डमान के नारकीय जेलों में वर्षों तक अपने दिन गुजारने पड़े। सैंकड़ों गदरवादियों की सम्पत्ति जब्त कर दी गई। वस्तुतः ब्रिटिश राज्य को उखाड़ फेंकने के उद्देश्य से गदर पार्टी द्वारा किया गया संघर्ष कांग्रेस द्वारा किये गये कार्य से कहीं ज्यादा है। गदर पार्टी के प्रमुख नेता बाबा सोहनसिंह, लाला हरदयाल, बरकत उल्ला, पंडित कांशीराम प्रमुख थे (’दुख’ पृष्ठ 18)। इन विप्लवी नेताओं और क्रान्तिकारी संगठनों का अपने जन्मकाल से ही पूर्ण स्वतंत्रता की मांग रही है, जबकि कांग्रेस में ऐसा नहीं देखने को मिलता है कि पूर्ण स्वतंत्रता की मांग उनकी शुरू की से रही हो।

                आरएसएस और उसके गर्भ से बनी भाजपा जैसी पार्टियों का तो अच्छा या बुरा आजादी आन्दोलन का कोई इतिहास ही नहीं है। मुस्लिम लीग जैसे संगठनों का भी इतिहास अपने साम्प्रदायिक एजेंडे तक ही सीमित रहा। आरएसएस के संस्थापक डा. हेडगेवार से जुड़ी एक घटना का यहां जिक्र करना जरूरी समझता हूँ। यह बात उस समय की है कि जब डा. हेडगेवार छात्र थे। बंगाल के जाने-माने क्रान्तिकारी त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती के अधीनस्थ एक सदस्य की हैसियत से क्रान्तिकारी संस्था में काम करते थे। तब डा. हेडगेवार ने क्रान्तिकारी त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती से अपने हजारों की तादात में संगठित युवाओं का प्रतिनिधित्व की हैसियत से कहा था कि उचित समय पर हम आपका पूरा सहयोग करेंगे, किन्तु 1942 के आन्दोलन में वायदे की याद दिलाते हुए जब त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती ने मदद मांगी, तो वे साफ मुकर गये। इन बातों का जिक्र त्रैलोक्य नाथ चक्रवर्ती ने अपनी पुस्तक आत्मकथा ’30 साल जेल में’ बड़े दुख के साथ व्यक्त किया है। यह था उनका असल चरित्र। इस घटना का जिक्र उदाहरण स्वरूप जाने माने क्रान्तिकारी और कम्युनिस्ट नेता झारखंडेय राय ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय क्रान्तिकारी आन्दोलन : एक विश्लेशण’ पृष्ठ 106 पर किया है।

                1942 के अगस्त आन्दोलन में आरएसएस के भाग न लेने पर 15 फरवरी, 1944 को बम्बई के गृह सचिव वी. अयंगर ने उसे सर्टिफिकेट देते हुए ब्रिटिश सरकार के केन्द्रीय गृह मंत्रालय को आश्वस्त करते हुए लिखा था, “बडी निष्ठा से संघ सरकारी कायदे कानून की चौहद्दी में खुद को सीमित रखे हुए है और ये काबिले जिक्र है कि 1942 में जो उथल-पुथल मची थी, उसमें उसकी किसी भी किस्म की कोई भागीदारी नहीं थी।” गौरतलब है कि 1933 में हिन्दू महासभा के अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में भाई परमानन्द ने खुलेआम कहा था “सरकार का विरोध कर सरकारी कृपा दृष्टि खोना हिन्दुत्व के लिए असंगत होगा।” आरएसएस के संस्थापक गुरु गोलवलकर ने कहा था “भौगोलिक राष्ट्रवाद और आम खतरे के सिद्धांत के आधार पर हमारा जो राष्ट्रीय सिद्धांत निर्मित हुआ है, उसने हमें हमारे हिन्दू राष्ट्रवाद के सिद्धांत के सकारात्मक और प्रेरणादायक तत्व से वंचित कर दिया है और हमारे स्वाधीनता आन्दोलन को दरअसल अंग्रेज विरोधी आन्दोलन में तब्दील कर दिया है। इस प्रतिक्रियावादी धारणा ने सम्पूर्ण स्वधीनता आन्दोलन, उसके नेतृत्व और आम लोगों पर विनाशकारी असर डाला है।” (वी आर आवर नेशनहुड-गोलवलकर)। ये कितने खतरनाक शब्द हैं। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ जो राष्ट्रीय आन्दोलन खड़ा हुआ, उसे उन्होंने विनाशकारी बताया। गुरू गोलवलकर ने यह भी कहा “हिन्दुस्तान के सभी गैर हिन्दुओं को या तो हिन्दू भाषा और संस्कृति अपनानी होगी। उन्हें हिन्दू धर्म का आदर करना होगा और उसे पवित्र मानना सीखना होगा। वे हिन्दूराष्ट्र की गौरवगाथा के अतिरिक्त अन्य किसी विचार को प्रश्रय नहीं देंगे और हिन्दू नस्ल में मिल जाने के लिए अपने पृथक अस्तित्व को उन्हें खो देना होगा या उन्हें बगैर किसी मांग, किसी विषेशाधिकार, किसी तरह की रियायत के, यहाँ तक कि बगैर किसी नागरिक अधिकार के इस देश में पूरी तरह से हिन्दूराष्ट्र के अधीन रहना होगा।” (वी आर आवर नेशनहुड-गोलवलकर)

                इतना ही नहीं विवेकानन्द की बात करने वाले आरएसएस, भाजपाई कहते हैं कि इस देश में इस्लाम का विस्तार मुसलमान बादशाहों ने हथियार के बल पर किया है, जबकि विवेकानन्द ने इसके उलट बात लिखी थी। “मुस्लिमों की भारत विजय पद-दलितों और गरीबी का मानो उद्धार करने के लिए हुई थी। यही वजह है कि हमारे देश की आबादी के पांचवे हिस्से की जनता मुसलमान बन गयी थी। यह सारा काम तलवार से नहीं हुआ था। यह सोचना कि यह सब तलवार और आग का काम था, बेहद पागलपन के सिवाय कुछ नही था।” (भारत का भविष्य, वाणी और रचना संग्रह – स्वामी विवेकानन्द)

                “यह सब मिथ्या बकवास है कि तलवार की धार पर उन्होंने धर्म बदला। जमीदारों और पुरोहितों से अपना पिंड छुड़ाने के लिए ही उन्होंने ऐसा किया।” (पत्रावली भाग 3 पृ. 330, नया भारतगढ़ी, पृष्ठ 18)

                अब आप ही बताइये कौन सही है? आरएसएस या विवेकानन्द! यह बात स्वयं विवेकानन्द कह रहे हैं। विस्तृत जानकारी के लिए पढ़ें-सर्वहारा दृष्टिकोण, 8 जनवरी 2016।

                स्वामी विवेकानन्द जी का कहना था “पहले रोटी, बाद में धर्म” (आमार समरनीति, स. रचनायें, बंगाली, 5वां खण्ड – स्वामी विवेकानन्द)।

                12 मई, 1940 को झाड़ग्राम की एक सभा में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था “हाथ में त्रिशूल देकर संन्यासी-संन्यासिनों को हिन्दू महासभा ने वोट मांगने के लिए भेजा है। त्रिशूल और भगवा देखने मात्र से हिन्दू सिर झुका लेते हैं। धर्म का सहारा लेकर उसे कलुषित करते हुए हिन्दू महासभा ने राजनीति के मैदान में कदम  रखा है, इसकी निन्दा करना हर हिन्दू का फर्ज है……। इन गद्दारों को आप राष्ट्रीय जीवन से निष्काषित कर दें……। धर्म को राजनीति से अलग कर इसे व्यक्तिगत बनाएं। (नेताजी सुभाषचन्द्र बोस के प्रसंग में पृष्ठ -29)

                यही नहीं, मेरा मानना है कि इनके साम्प्रदायिक एजेण्डे और आजादी के प्रति इनके नकारात्मक रवैये से सम्बन्धित तमाम बातें क्रान्तिकारी लेखक फूलचन्द्र जैन, सुभाषचन्द्र बोस द्वारा रचित ‘दि इन्डियन स्ट्रगल’ प्रो. एनके निगम व अन्य लेखकों, इतिहासकारों के रचनाओं में भी भरपूर मिलेगा। हम तो कहते हैं क्रान्तिकारी आन्दोलन के इतिहास पर गहन और निष्पक्ष शोध होना चाहिए। 15 अगस्त, 1947 को भारत की ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति वास्तव में क्रान्तिकारी संघर्षों का ही दूरगामी परिणाम था।

                बात यहीं खत्म नहीं होती। जिन सपनों को लेकर भगतसिंह, सुभाषचन्द्र बोस जैसे क्रांन्तिकारियों ने संघर्ष किया था, उनका यह सपना, सपना ही रह गया। जिस आजादी की उन्होंने बात की थी, उस आजादी के साथ धोखा किया गया। आम शोषित जनता को आज भी उस आजादी का एहसास नहीं हुआ है। उन सपनों को पूरा करने का दायित्व आज भी युवा पीढ़ी पर है।

                भगतसिंह के बारे में आज बच्चों को देशभक्त (हालांकि उस स्तर पर और उन सभी जरूरी शिक्षाओं का इतना प्रचार नहीं होता, जिस स्तर पर होना चाहिए) तो बताया जाता है, लेकिन यह नहीं बताया जाता कि उन्होंने अपने संगठन में समाजवादी शब्द क्यों जोड़ा। यह भी नहीं बताया जाता है कि क्रान्ति का मतलब क्या होता है? यह भी नही बताया जाता कि आजाद भारत में भगतसिंह और सुभाषचन्द्र बोस किस सामाजिक व्यवस्था का निर्माण करना चाहते थे। यह भी नहीं बताया जाता कि पहली बार कांग्रेस का अध्यक्ष बनने पर सुभाषचन्द्र बोस ने यह क्यों कहा कि “जनता की वास्तविक आजादी तो तब सम्भव होगी, जब हम समाजवाद तक पहुंचेंगे।” हिंसा अहिंसा के बारे में व्यक्त किये गये उनके विचारों को भी नहीं बताया जाता, ताकि वर्तमान और भावीपीढ़ी की समझदारी बढ़े।

                भगतसिंह ने कहा था कि “कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारा शोषण कोई देशी करे अथवा विदेशी करे या दोनों मिलकर करें।” आज भारतीय आम जनता को दोनों मिलकर लूट रहे हैं। बहुराष्ट्रीययकरण कम्पनियां इसका प्रमाण है। आज बनावटी मुद्दों को खड़ाकर और असल मुद्दों से भटकाकर भ्रमित किया जा रहा है, यह इसलिए कि उनकी नजर में “क्रान्तिकारी छुतहा रोग” आम शोषित-पीड़ित जनता को न लगने पाये, इसलिए क्रान्तिकारी संघर्षों व उसके इतिहास को तोड़ना-मरोड़ना व इतिहास के पन्नों से उसे गायब करने की कुचेष्टा चल रही है। किन्तु सत्य का सूरज छिपता नहीं, भले ही कुछ देर के लिए बादल उसे ढंक ले।

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