द्वारा : आभा शुक्ला
बिछड़ा कुछ इस अदा से की रुत ही बदल गयी।
इक शख्स सारे शहर को वीरान कर गया।।
डॉ. शहाबुद्दीन साहब जेल में थे… ज़मानत होती है, बाहर आते हैं…। दो – ढाई हजार गाड़ियों का काफिला उन्हें रिसीव करने जाता है… सिर्फ सीवान ही नही पूरा बिहार खुश होता है… ।
जानते हैं क्यों …? क्यूंकि वही शहाबुद्दीन अराजक तत्वों/भ्रष्ट अधिकरियों/लापरवाह डॉक्टर्स/ असंवेदनशील जन प्रतिनिधि के लिए काल था… उनके काम करने का तरीका अलग था… आप जाकर सिवान में पूछ लीजिये की जनता इनके बारे में क्या राय रखती है…आप सोचिये की ब्राह्मणवादी मीडिया जिसे माफिया गुंडा कह कर प्रचारित करती हो, जनता के जिस असीम प्यार/आशीर्वाद को वो शहाबुद्दीन का खौफ कहकर प्रचारित करती हो वो मीडिया कब उनके मृत्यु की सही ख़बर देती।
याद कीजिये वो दिन जब जेल से बाहर आते ही शहाबुद्दीन साहब से नीतीश को लेकर सवाल पूछा गया था, उन्होंने तुरंत स्पष्ट कर दिया था कि नीतीश परिस्थितियों के कारण मुख्यमंत्री हैं…मेरे नेता लालू जी थे लालू जी ही हैं…
यह वो समय था जब राजद स्वयं जदयू के साथ गठबंधन में थी… लालू जी भी नीतीश को समझ नही पाए थे… लालू यही चाहते थे कि नीतीश ब्राह्मणवाद के चंगुल से बाहर आये लेकिन नीतीश को सत्ता लोलुपता ने जकड़ लिया था… जिसका डर था वही हुआ बिहार चुनाव में ब्राह्मणवाद नीतीश के कंधे पर सवार होकर तांडव कर रहा है, खैर यह अलग विषय है…
बात शाहबुद्दीन साहब की थी, इतना तो वो भी जानते थे कि नीतीश को नेता ना मानने का जुर्म उन्हें भुगतना होगा…लेकिन फिर भी “साहेब” नही झुके…
सोचिये अगर फासिस्टों के आगे झुक गए होते तो क्या उन्हें मौत ना आती …? फिर भी आती दोस्त…मौत से किसकी यारी है… लेकिन कुछ लोग जीते जी ज़मीर का सौदा करते हैं और कुछ शाहबुद्दीन जैसे भी होते हैं कि परिस्थितियां अनुकूल हों या प्रतिकूल अपने सिद्धांतों पर टिके रहते हैं…
शुक्रिया डॉ शहाबुद्दीन… आप झुक गए होते तो भी आपको एकदिन मरना ही था… ना झुककर आप अमर हो गए।
अलविदा…