जाति तोड़कर कोई भी शादी नहीं कर रहा है ( यहाँ अपवादों पर बात न की जाए!). वो शूद्र हो या ब्राह्मण या अशराफ़ या पसमांदा! इसे धर्म के दायरे में बहस करके नहीं हल किया जा सकता!
इसी तरह थोड़ी सी आर्थिक स्थिति बेहतर हो जाए, तो पसमांदा अशराफ़ बनने लगता है और शूद्र सवर्ण.
मुसलमानों पर शूद्रों के हमलों को इस नज़रिये से भी देखा जाना चाहिए कि शूद्र इसे खुद को “अच्छा हिन्दू या ज़्यादा हिन्दू” साबित करने के अवसर के रूप में भी लेता है!
इसी तरह कावंड़ हो या अन्य धार्मिक कार्यक्रम, दलित और पिछड़ा ही यहाँ भीड़ के रूप में दिखाई दे रहा है.
ऐसा करके वो “अच्छा हिन्दू” बन कर उस तिरस्कार से मुक्त होना चाहता है जो हिन्दू धर्म के भीतर धर्म सम्मत है.
मुसलमान भले इस बात पर खुश होते हों कि उनकी मस्जिदों और दस्तरखानों पर जातिवाद नहीं है, ये भी सच है कि मुसलमानों के जातिवाद में हिन्दुओं के जातिवाद की क्रूरता भी नहीं है, लेकिन जातिवाद सम्मान के जिस श्रेणीक्रम पर आधारित है वो कम ही सही लेकिन मुसलमानों में भी है.
इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो जातीय श्रेष्ठता के मूल्यबोध से भारतीय मानस ग्रस्त है, जातीयता के इर्द गिर्द हो रही बहस, इस मूल्यबोध को केंद्र में नहीं रख पा रही है, उल्टे ये बहस बहुसंख्यक की साम्प्रदायिकता को ताकत पहुँचा रही है.
कुछ लोग नाराज़ हैं कि इस बहस को आज ही क्यों होना था, क्यों इस बहस के ज़रिए मुसलमानों को “अपमानित” किया जा रहा है जबकि हिन्दू जाति व्यवस्था जैसी क्रूरता मुसलमानों की जातिव्यवस्था में नहीं है !
लेकिन मैं इसे ठीक मानता हूं. कोई भी बुराई जिसकी मात्रा कम ही क्यों न हो, उसे भी देखना, पहचानना और खत्म करना ज़रूरी है, इसके लिए मुहूर्त देखने के सुझाव दरअसल इस बुराई को बनाये रखने की कोशिश है.
Dr. Salman Arshad