कभी भी पढ़ना जरूरी नहीं हो सकता. जरूरी यह है कि हम क्या पढ़ते हैं?

दैनिक समाचार

शुरुआती दिनों में गणित और विज्ञान में रुचि होने के कारण एक लंबें अरसे के बाद मुझे पता चला कि उससे भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है, इतिहास और भूगोल को पढ़ना.

उससे भी कहीं महत्वपूर्ण है शोषितों, पीड़ितों और वंचितों के इतिहास को पढ़ना और समझना.

उससे भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है स्वार्थ, समाज, जाति और धर्म से उठ कर शोषितों, पीड़ितों और वंचितों के लिए कार्य करना.

एक ऐसी व्यवस्था का निर्माण करना जिसमे मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण का अन्त हो, ऊँच नीच की भावना का अभाव हो, अमीरी-गरीबी में अंतर न के बराबर हो, बेरोज़गारी की स्थिति न के बराबर हो, मजदूर-किसान आर्थिक रूप से सम्पन्न हो.

कुल मिलाकर एक ऐसे समाज और देश का निर्माण करना, जहॉं सभी सम्मान व गरिमापूर्ण जीवन जी सके. रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य के नाम पर पूंजीपतियों और सरकार द्वारा धन उगाही ना हो, बल्कि शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी आवश्यकताएँ सभी के लिए मुफ़्त हो.

यदि हम साहित्य प्रेमी हैं तो जरूरी है कि हमारे साहित्यिक किताबों/रचनाओं के चयन में दबे-कुचलों के इतिहास के साथ-साथ, उनके उत्थान पर आधारित साहित्यों का समावेश हो. एक ऐसे ही क्राँति का दस्तावेज़ है मक्सिम गोर्की का उपन्यास ‘माँ’.

‘पिछले 7-8 सालों से सुनते आया हूँ, “यदि आप साहित्य प्रेमी है तो आपका साहित्य प्रेम तब तक अधूरा है जब तक आप मक्सिम गोर्की का उपन्यास ‘माँ’ पढ़ नहीं लेते.”

मैं कहता हूँ, “आपका साहित्य प्रेम तब तक अधूरा है जब तक आप ‘माँ’ उपन्यास को पढ़ने के बाद व्यवस्था बदलने के लिए प्रेरित नहीं होते. एक ऐसी व्यवस्था जो सामन्तवाद और पूँजीवाद के विरुद्ध समाजवाद की स्थापना पर आधारित हो.

जैसा कि हमारे देश के संविधान की प्रस्तावना में भी समाजवादी पंथ-निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने की बात कही गयी है.

यह तभी संभव है जब समाज और व्यवस्था को समाजवाद की ओर मोड़ा जाय, जैसा कि ज्योतिबा फुले, सावित्री फुले, भगत सिंह, बाबा साहब भीमराव अंबेडकर, नागार्जुन, अदम गोंडवी, ओमप्रकाश वाल्मीकि, केदारनाथ सिंह, गोरखनाथ पाण्डेय आदि का सपना और प्रयास था.

मदर्स डे पर दुनिया की सारी क्राँक्तिकारी माँओं को सलाम✊ जिनके हम ऋणी हैं.
आप सभी को मदर्स डे की शुभकामनाएं
और इंक़लाबी सलाम✊
—अनिल कुमार ‘अलीन’

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