राजसत्ता और इसका आधुनिक स्वरुप (भारत के संदर्भ में) भाग -(2) व अंतिम भाग

दैनिक समाचार

गर्वनर कौंसिल से लेकर प्रांतीय कौंसिलों में जनप्रतिनिधि बनकर बैठने, बहस करने के अधिकार मिले थे। जो बाद में 1935 / 37 के सुधारों के द्वारा विधान मण्डलों में चुनकर जाने व संसदीय सरकार चलाने के रूप में विकसित होता रहा था। देशभक्तों. जनसाधारण वर्गों की कुर्बानियों व संघर्षो से भयभीत साम्राज्यवादियों ने हिन्दुस्तान के पूँजीपतियों व धनाढ्य वर्गों से अपने हितों की रक्षा सुरक्षा की गारंटी पाकर समझौता कर लिया तो वही हिन्दुस्तान के पूँजीपतिवर्ग व संभ्रान्त तबके साम्राज्यवाद के हितों वाली व्यवस्था में ही अपने हितों की सुरक्षा देखकर जनसाधारण वर्गों के साथ गद्दारी करके राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन को तिलांजलि दे दी। ये दोनों, वर्ग की दृष्टि से चूँकि पूँजीपति है, दोनों के हित मजदूरों किसानों के शोषण से ही पूरे होते हैं जो पूँजीवादी राज्य व व्यवस्था में ही पूरे हो सकते हैं। इसके विपरीत मजदूर-राज्य व समाजवाद में इन दोनों के आर्थिक राजनीतिक सारे अधिकार छिन जाने होते हैं, जिससे दोनों भयभीत थे क्योंकि 1917 की रूसी क्रांति से जनमें मजदूर-राज्य समाजवाद में यह सब हो चुका था और मजदूर वर्ग जैसे दुनिया में वैसे ही भारत में भी समाजवाद की आवाजें उठा रहा था। इसी कारण कांग्रेसी व मुस्लिम लीगी नेतागण ‘स्वशासन’व स्वराज से ज्यादा कभी नहीं माँगे, पूर्ण आजादी की माँगें भी उनकी दिखावटी व षड़यंत्रपूर्ण थीं। यह बात ब्रिटिश साम्राज्यवादी बखूबी समझते थे इसीलिए वे बार-बार राजनीतिक सुधार करके हिन्दुस्तानियों के ऊपरी हिस्से को बाकायदा सुशिक्षित प्रशिक्षित करके दिये हुए अपनी देख-रेख व निगरानी में स्वशासन के तौर तरीके सिखा पढ़ा करके इन्हें सत्ता 1947 में सौंपी थी।

भारत की सत्ता पाई कांग्रेस और भारतीय पूँजीपतियों ने विदेशी पूँजी, विज्ञान व तकनीकि की मदद से देश की गरीबी, बेकारी, मुखमरी, अशिक्षा आदि दूर करके स्वतंत्र व आत्मनिर्भर बनने के दावे करते रहे जो दावे 20/30 साल बीतते-बीतते फेल हो गये, झूठे साबित हुए, विदेशी व्यापार घाटा बढ़ता रहा. न गरीबी मिटी ना बेकारी। अलबत्ता साम्राज्यवादी विदेशी पूँजी (कर्जे), विज्ञान तकनीकि पर देश की परनिर्भता बढ़ती गई। तब शासक वर्गों ने अपने पुराने दावे छोड़कर नये दावे वादे पकड़ लिए। अब वे कहते हैं कि विदेशी पूँजी, विज्ञान, तकनीकि जितनी ही ज्यादा लायेंगे उतना ही ज्यादा देश का विकास होगा और निर्यात बढ़ा कर उसकी तुलना में आयात कम कर लेंगे जिससे व्यापार घाटा खत्म हो जायेगा और जितना ही ज्यादा विकास होगा उतना ही ज्यादा हम आत्मनिर्भर व स्वतंत्र होते जायेंगे। इसे वे परनिर्भता व परतंत्रता मानना व बताना ही छोड़ दिये और अपने पूँजीवादी हितों को ही राष्ट्रहित बताते. समझाते हैं। अमरीका, इंग्लैण्डआदि साम्राज्यवादी देश जो कभी प्रभुत्ववादी, शोषक लुटेरे व शत्रु थे अब बराबरीवादी, जनतंत्रवादी एवं मित्र बताये जाते हैं। इसका यह मतलब नहीं कि उनका चरित्र सचमुच बदल गया है, सच तो यह है कि हमारे देश के शासक वर्गों पूँजीपतियों व उनके राजनीतिक व सांस्कृतिक तबकों व उनकी नुमाइन्दगी करने वाली सत्ता सरकारों के चरित्र कमजोर होने के नाते जो पहले छिपे थे, बहाने की आड़ लिये थे, अब छिपकर नहीं खुलकर इनका दुमछल्लापन सामने आ गया है। इसका दूसरा राजनीतिक सबूत देखें।

इस देश की समूची जनता को वोट देकर अपने प्रतिनिधि चुनने व चुनाव लड़ने एव जनप्रतिनिधि बनकर सत्ता सरकार बनाने के अधिकार मिले हुए है इसी नाते यह देश जनतांत्रिक देश कहलाता है। परन्तु व्यवहार में पहले तो सभी वोट नहीं दे पाते थे अब अगर वोट दे पाते हैं तो अपनी मांगों व मूल्यों पर नहीं, या तो जातिवादी धर्मवादी, नस्लवादी, इलाका व भाषावादी माँगों व मूल्यों पर अथवा पूँजी पैसे के मालिकों, शासक वर्गों के हितों की माँगों व मूल्यों पर उदाहरणार्थ, चुनावों में पूँजी पैसे का बोलबाला रहता है। चुनावी खर्चे लाखों करोड़ों में इतना ज्यादा है कि जनसाधारण वर्गों के किसी व्यक्ति के बस का अपने बूते पर चुनाव लड़ना नहीं है। वोटरों से लेके जनप्रतिनिधि तक सरे बाजार खरीदे बेचे जा रहे है। ठीक वैसे जैसे बाजार में जिसके हाथ में पैसे है, वही माल सामान खरीद सकता है परन्तु जिसके पास पैसे नहीं है, वह खरीदने की स्वतंत्रता के होते हुए भी सामान नहीं खरीद सकता। यही बाजारवाद का असूल पूँजीवादी व्यवस्था में जनतंत्र पर भी लागू होता है। मतलब, पैस पूँजी के मालिक पूँजीपतियों को हर तरह के अधिकार व स्वतंत्रतायें है और संसद-सरकार में अधिकार होते हुए भी जनसाधारण न ही हिस्सेदारी पा सकता और न ही अपने हितों में सत्ता का उपयोग कर सकता है, वैसे ही राजसत्ता के दो अन्य अंगों न्यायपालिका और कार्यपालिका में भी।

राजसत्ता के समूचे परिदृश्य को और उसके 100/70 साला आधुनिक इतिहास को देखने से पता चलता है. कि राजसत्ता के हर अंग में पीढ़ी-दर-पीढ़ी अमीर व संभ्रान्त लोग बैठे हैं और राजसत्ता साम्राज्यवादी वर्गों एवं देशी पूँजीवादी वर्गों के हितों अनुसार नियंत्रित व संचालित होती है जो जनसाधारण मेहनतकश वर्गों के हितों की विरोधी है। फिर भी केंद्रीय व प्रान्तीय सत्ता सरकारें जनतात्रिक मात्र इसलिए कहलाती है क्योंकि उन्हें जनता चुनती है और विभिन्न राजनीतिक पार्टिया हर 5 साल पर सरकारें बनाने व बदलने का मौका पाती हैं तो भी यदि जनसाधारण मजदूर किसान अपने हितों की विरोधी अमीर वर्गों के हितों में काम करने वाली सरकार चुनती है तो वह अपने संकटों व समस्याओं के लिए खुद ही दोषी है, मध्यमवर्गी बुद्धिजीवियों से लेकर प्रचार माध्यमी विद्ववानों, राजनीतिज्ञों तक में यही पाठ-प्रचार बैठा रहता है। अपने इसी ज्ञान से वे जनसाधारण आबादी को बेवकूफ मुच्चड जातिवादी, धर्मवादी, पिछड़ी हुई मानकर आलोचनायें करते रहते हैं और जनसाधारण में बार-बार आशायें जगाते हैं कि यदि जनसाधारण आबादी अपने हितों को ध्यान में रखकर जन प्रतिनिधियों का चुनाव करे तो इसी जनतंत्रातिक प्रणाली में समस्याओं व संकटों से मुक्त उसका जीवन सुधर जायेगा। क्या ऐसा समय कभी है? वहाँ जहाँ यह जनतंत्रातिक प्रणाली आज से 200/ 300 साल पहले आ चुकी थी. क्या उन ब्रिटेन, फ्रांस, अमरीका आदि देशों में जनसाधारण वर्गों का जीवन सुधर बदल गया ? क्या उन देशों में शासक वर्गों द्वारा मजदूरों व अन्य जनसाधारण का शोषण, दमन बन्द हो गया ? नहीं। आप भी मानेंगे कि उन देशों की जनसाधारण आबादी भारत जैसे पिछड़े देशों की जनसाधारण आबादी की तरह बेवकूफ, भूच्चड़ पिछड़ी हुई नहीं है तो भी उन देशों में जनसाधारण वर्गों के हितों अनुसार नीतियों क्यों नहीं बन पातीं, उनमें तो कई अपनी राष्ट्र मुक्तियाँ भी करवा चुके हैं ?!

इन सारे प्रश्नों का जवाब पूँजीवादी राजनीतिज्ञ व विद्वान नहीं दे सकते क्योंकि उनके वर्गीय स्वार्थ उन्हें पूँजीवादी व्यवस्था का समर्थक एवं सुधारों का पक्षघर बना देते हैं। विभिन्न प्रकार के सुधार पेश करके वे सत्ता में बैठी सरकार का विरोध करते हैं तो दिखावटी और मात्र सत्ता का अंग बनने के लिए। दूसरे, अधिकाशं वामपंथी राजनीतिज्ञ व विद्वान हैं जो पहले किसानों मजदूरों के संकटों व समस्याओं को लेकर आन्दोलन, प्रदर्शन करते रहते थे और इसके लिए उन्हें सचेत व संगठित करते रहते थे परन्तु यह काम उन्होंने अब बन्द कर दिया है, अब वे दलितवादी, पिछडावादी, महिलावादी, धर्मनिरपेक्षतावादी कभी इस कभी उस दल या गठबंधन से तालमेल करते रहते हैं ताकि उन्हें सत्ता राजनीति में भागीदारी हिस्सेदारी मिल जाये ये वामंपथी पूँजीवाद से समाजवाद में संसदीय रास्ते से शांतिपूर्ण संक्रमण के पक्षधर है। जो पूँजीवादी राज्य को जनता के लिए कल्याणकारी राज्य बताते रहते हैं। इस व्यवस्था में सुधार पेश करते हैं। जैसे- मनरेगा योजना, काम के बदले अनाज योजना, गरीबी रेखा के नीचे के कार्डधारकों को मुफ्त या सस्ता राशन योजना, दलितों, पिछड़ों, अगड़ों के उत्थान कल्याण हेतु आरक्षण, मुफ्त आवास, मुफ्त शिक्षा व चिकित्सा आदि। ये सारी सुधारक योजनायें चलाकर पूँजीवादी राज्य मजदूरों किसानों और पूँजीपतियों में सामंजस्य बैठाने का प्रयास करते हैं ताकि मजदूरों किसानों के विरोध व आक्रोश को अपने पूँजीवादी नेताओं व सुधारक वामपंथियों के पीछे संगठित करके उनके आक्रोश को ठण्डा कर सकें। हकीकत इस व्यवस्था में मजदूरों, किसानों की समस्यायें, गरीबी, बेकारी न कभी दूर हुई है, और न ही दूर हो सकती है ।बढ़ती ही रहेगी, उसकी जन कल्याणकारी योजनाये मात्र दिखावा ही साबित होती रहती है। दूसरे ये कल्याण, दान की योजनायें कोई नई चीज नहीं है। पुराने जमाने में राजा महाराजा भी दान-दक्षिणा गरीबों असहायों को बाँटा करते थे। वैसे ही मौजूदा पूँजीवादी राज्य व सरकारें भी समूचे जनसाधारण को लूट निचोड़ कर इक्ट्ठा धन के एक अंश को गरीबो असहायों में खैरात बॉटकर वाहवाही लूटती है।

राज्य के कल्याणकारी सुधारक कार्यक्रमों से जनसाधारण वर्गों का उसके किसी हिस्से का तातकालिक फायदा तो हो सकता है, लेकिन दरअसल किसानों, मजदूरों का समूचे वर्ग के रूप में भला नहीं हो सकता। यह मला तभी हो सकता है जब उत्पादक किसान, मजदूर अपनी पैदावारों और पैदावार के साधनों औजारों का स्वयं नियंत्रणकर्ता व मालिक बने। लेकिन यह काम तभी हो सकता है जब पैदावारों का व उसके साधनों का मौजूदा गैर उत्पादक पूँजीपति अपना नियंत्रण व मालिकाना छोड़ दे, चाहे विदेशी पूंजीपति हो या देशी क्या वे अपना नियंत्रण व मालिकाना छोड़ देंगे? क्या वे मजदूरों, किसानों को शांति से बिना संघर्ष के अपना नियंत्रण व मालिकाना सौंप देंगे? गाँधी जी की माने तो उन्हें ट्रस्टी होने के नाते मजदूरों व किसानों के लिए अहिंसक तरीके से राजकाज, बैंक व्यापार सब छोड़ देना चाहिए। किन्तु ये ऐसा नहीं करेंगे। ऐसा सोचना ख्याली पुलाव है। जैसे ही किसान-मजदूर पैदावार के साधनो औजारों-बैको उद्योगों, खेतियों पर से पूँजीपति वर्ग का मालिकाना छीनना चाहेंगे तो वे अपने राज्य की मशीनरी के साथ उनपर हमलावर हो जायेंगे और उनका ताकतवर राज्य पुलिस, फौज, जेल आदि) संघर्षरत मजदूरों, किसानों का दमन कर देगा जैसेकि करता आ रहा है। इसलिए शासित-शोषित वर्गों का शासक शोषक वर्गों के विरूद्ध चलने वाला वर्ग संघर्ष का काम एक राजनीतिक काम है। इसमें मजदूर वर्ग पूँजीपति वर्ग की राजसत्ता को उखाड़ कर खुद सत्ता में आता है। मजदूर वर्ग को अपनी राज्य सत्ता बनाये बगैर उत्पादन के साधनों पर कब्जा कर पाना संभव नहीं होगा। यह फ्रांस की क्रांति (1871) का सबक भी है जो मजदूर वर्ग के हर क्रांति के लिए सीख है।

दूसरी बात, क्या खुद पश्चिमी यूरोप का पूँजीवाद सामंती व्यवस्था में मात्र सुधारों की माँगे करता हुआ नीतियाँ योजनायें बदल कर आया था? नहीं। वह तो सामंतशाही, राजशाही एवं उसकी धर्मशाही, पादरीशाही के विरूद्ध निर्मम वर्ग संघर्ष चलाते तोप-तलवार से खूनी युद्धे लड़ता हुआ आया है, सो भी एक दो बार नहीं, दसियो बार 17वीं / 18वीं सदी में 200 वर्शों तक तभी पूंजीवाद ने नीतियों, योजनायें बनाने व बदलने वाला कानून का राज और संविधान व कानून बनाने, बदलने वाली संस्थायें एवं समूची संसदीय प्रणाली स्थापित कर पाया। सो भी जैसे-जैसे खुद पूँजीपति वर्ग के रूप में ताकतवर बनता गया वैसे-वैसे उसकी राजसत्ता भी ताकतवर बनती गई। याद रखें पूँजीवादी राज्य मशीनरी बनी बदली तो पुरानी सामंती शासन शोषण की जगह पूँजीवादी शासन व शोषण की नई मशीनरी ही स्थापित हुई। आज शासन शोषण के हर सिकजे को उखाड़ फेंके बिना मजदूरों, किसानों की शासन शोषण से मुक्ति नहीं होने वाली है। जबतक की वह स्वयं मजदूर-राज्य स्थापित नहीं कर लेगा और वर्गों के खात्मे तक उसे बनाये नहीं रखेगा, तबतक वह कोई नियम नीतियों व योजनायें अपने हित में नहीं बना सकता न ही लागू कर सकता है। जैसाकि वह रूस, चीन व पूरबी यूरोपीय देशों में 1917-1980 तक करता रहा था। लेकिन जब उन जनवादी व समाजवादी देशों के पूँजीवादी वर्गों व साम्राज्यवाद की मिलीभगत से उन देशों में कायम मजदूर राज्य गिरा दिया गया और उसे सुधारते बदलते 1985 / 90 तक रूस, चीन व पूर्वी यूरोप के बचे खुचे जनवादी व समाजवादी राज्यों को उखाड़ के पूँजीवाद की पुनर्स्थापना कर दी गई उसके बाद साम्राज्यवाद की लूट-पाट का राज-काज और अधिक फैलता गया। इससे आज साम्राज्यवाद व उसका सरगना अमरीका व दीगर पूँजीवादी इतना धन्नाढ्य व ताकतवर हो गये हैं कि 1945 / 60 तक जो स्वतंत्रायें व अधिकार उन्होंने अपने उपनिवेशों को दिये थे उसे उदारीकरण निजीकरण व विश्वीकरण के आर्थिक सुधारों के नाम पर छीन लिए और जो राष्ट्र व राज्य इसका विरोध किये उन्हें सभी साम्राज्यवादी इक्ट्ठे मिलकर अपनी सैन्य व कूटनीतिक ताकत से कुचल दिये। जिसकी ताजा उदाहरणे यूगोस्लाविया, इराक, सीरिया, लीबिया, लेबनान आदि है। स्वतंत्र से स्वतंत्र कहलाने वाले देशों में अपने गुर्गे बैठाना उसके तख्ते उलटाना और अपने पिठ्दुओं को सत्ता में चढ़ाने और टिकाने के षड़यंत्र करते रहते हैं। ये दुनियाँ भर में नस्ली, जातिय, धार्मिक झगडे उकसा, भड़का कर अपने विरुद्ध उठने वाले संघर्षो को दबाते हैं, अपने नियंत्रण व प्रभुत्व की सरकारें बनाते व बदलते रहते हैं।

निचोड़ मतलब, राजसत्ता व सरकारे मजदूरों किसानों जैसे जनसाधारण वर्गों की नहीं है, वह पूंजीपति वर्गों की है। पूंजीपति उत्पादन के साधनों का मालिक है और मजदूर किसान साधनों से वंचित उत्पादक वर्ग है. मालिक वर्गों का लाभ व पूँजी मजदूरों व मेहनतकशों के शोषण व लूट से बढ़ता है, फलतः मजदूरों किसानों में गरीबी, महगाई व बेकारी फैलती रहती है। पूँजीपति वर्गों और मजदूरों किसानों के हित आपस में परस्पर विरोधी है। इनके मध्य असाध्य वर्ग विरोध है। इन्हीं वर्ग विरोधों को दबाने व कुचलने एवं शोषण व दमन जारी रखने हेतु राजसत्ता शासक पूँजीपति वर्गों के हाथ में हथियार है। उसकी फौज, पुलिस, शासन प्रशासन व संसदीय प्रणाली उसकी सुरक्षा कवच है। इन दोनों दुश्मन वर्गों के बीच होने वाली हर टकराहट या वर्ग संघर्ष को रोकने हेतु उसकी राजसत्ता अपनी पूरी मशीनरी के साथ मजदूरों किसानों पर हमलावर रहती है तब क्या राजसत्ता के सवाल को नजरअन्दाज कर कोई वर्ग संघर्ष चलाया जा सकता है? नहीं। इस सवाल को छोड़ कर या इसपर चुप्पी मार कर न तो कोई वर्ग संघर्ष चलाया जा सकता है और न ही वर्ग संघर्षो को नेतृत्व प्रदान करने वाला कोई जनवादी संगठन ही बनाया जा सकता है। कोई संगठन जनवादी कहलाने का तभी हकदार हो सकता है जब वह पूँजीपति वर्गों द्वारा राष्ट्र की लूट-पाट व मजदूरों किसानों के शोषण व दमन का विरोध करे और इस विरोध को दबाने कुचलने वाली उसकी राजसता से भी लड़े और उसकी राजसत्ता को पूरी राज्य मशीनरी को नष्ट करके उसकी जगह मजदूर राज्य जनवादी / सामाजवादी राज्य व व्यवस्था कायम करने को अपना लक्ष्य बनाये मार्क्सवाद लेनिनवाद की यह प्राथमिक शिक्षा है। लेनिन ने राज्य और क्रांति” नामक पुस्तक में बताया है कि प्लेखानोव/काउत्सकी आदि सुधारवादी व संशोधनवादी नेतागण राजसत्ता के सवाल से कन्नी काटते थे अराजकतावाद की आलोचना तो करते थे लेकिन इसलिए कि उन्हें पूँजीवाद की पक्षधरता करनी थी हमारे अपने कई वामपंथी विद्वान भी मजदूर राज्य व मजदूर वर्ग की तानाशाही के महत्व को नजरअंदाज करते हैं तब क्या वे पूँजीवाद के साथ खड़े नहीं हैं। पूँजीवाद के साथ खड़े बहुत से वामपंथी जनवादी व मार्क्सवादी कहलाते हैं आप भी कहला सकते हैं लेकिन याद रखें, मजदूर वर्ग के साथ यह घात है मजदूरों किसानों को ऐसे वामपंथी जनवादियों व मार्क्सवादियों से सावधान रहने की जरूरत है।

आजमगढ़

ओम प्रकाश सिंह ।

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