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दैनिक समाचार

द्वारा : हरीश चंद्र गुप्ता

पिछली शताब्दी के छठे दशक के पूर्वार्ध में भारत और चीन जो दोनों एक नए राष्ट्रीय का निर्माण करने की राह पर थे , एशिया के दो बड़े देश थे , उनके बीच यह नारा आपसी प्रेम को प्रदर्शित करने के लिए खूब लगा ।

कुछ शताब्दियों में ही दुनिया के दो सबसे समृद्ध देश – भारत और चीन – यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों के हाथों के खिलौने बन कर चरम दरिद्रता पर पहुंच चुके थे । अब पुनर्निर्माण के मार्ग पर थे – बहुत उम्मीद थी दोनों देशों के लोगों को कि आपसी सहयोग से फिर एक बार पुरानी बुलंदियां वापस आएंगी।

दोनों देशों के बीच आपसी युद्धों का कोई इतिहास नहीं था । दोनों देशों के बीच तिब्बत का पठार एक स्वभाविक बफ़र जोन था।महात्मा बुद्ध के प्रभाव की साझी विरासत भी थी बीच में। इसी से प्रेरित होकर नेहरू और झाउ एन लाई के बीच में पंचशील समझौता भी हुआ । सब कुछ ठीक ही था परंतु कुछ ही सालों में सीमा पर तनाव शुरू हुआ और फिर 1962 में खुल्लम-खुल्ला युद्ध जिसमें भारत धराशाई हुआ। आख़िर क्यों ?

उस समय की हर वैश्विक घटना की तरह यहां भी पश्चिमी देशों की साजिश और पुरानी हरकतों का परिणाम था। पश्चिमी पूंजीवादी देश चीन में साम्यवादी सरकार स्थापित होने से बेचैन थे। आकार में सबसे विशाल सोवियत संघ के बाद सबसे बड़ी आबादी वाला चीन का साम्यवादी हो जाना उनके सामने अपनी मौत का भयावह संकेत था ।

साम्राज्यवाद के शीर्षकाल में ब्रिटिश अफसरों ने जैसे मर्ज़ी सीमाएं तय कर दीं भारत – तिब्बत और चीन की , दफ्तर में ही पेंसिल कलम लेकर। कोई इतिहास – भूगोल का सम्मान नहीं , भाषा और संस्कृति की समझ नहीं। न खाता न बही जो हम कहें वही सही । आपसी विवादों का रास्ता खोल दिया था।

चीन के खिलाफ़ तिब्बत का मुद्दा खड़ा किया गया। दलाई लामा की भारत में डिलीवरी कराई गई। भारत चीन के संबंधों में कड़वाहट पैदा हो गई। भारत को उकसा कर चीन को चुनौतियां दिलवाई गयीं। जो चाहते थे वही हुआ – खुला युद्ध 1962 में। एक महीने का सीमित युद्ध जो अमेरिका की हवाई सहायता आने की बात सुनते ही युद्ध विराम में बदल गया।

मकसद पूरा हुआ। भारत और चीन जो स्वभाविक मित्र होने चाहिएं थे और यदि हो जाते तो दुनिया के इतिहास में विकास का एक नया अध्याय लिखा जाता उस पर रोक लगा दी गई और उसके बदले शत्रुता का नया अध्याय लिख दिया गया।

कहानी आज भी वहीं अटकी हुई है । दोनों देशों के बीच शत्रुता बनी रहे इसी में तथाकथित पश्चिमी लोकतांत्रिक देशों का लाभ है । पर क्या भारत और चीन का लाभ इसी में है ?

वर्तमान वातावरण में इस बात की संभावना बहुत कम है कि दोनों देशों के बीच विश्वास का वातावरण पैदा होगा। परन्तु इतिहास ने यह भी देखा है कि इंग्लैंड और फ्रांस दो पड़ोसी देश दशकों तक बल्कि शताब्दियों तक एक दूसरे के शत्रु रहे जिसका प्रभाव भारत से लेकर अमेरिका तक में देखा गया परंतु प्रगति तभी हुई जब मित्र बन गए। दोनों देशों ने दोनों विश्व युद्धों में साथ मिलकर संघर्ष किया । इतिहास की गति बहुत धीमी होती है परंतु होती निश्चित ही है। भारत और चीन जिस दिन हाथ मिला लेंगे उस दिन पश्चिमी देशों का खेल खत्म हो जाएगा। यह बात हम नहीं जानते परंतु वे समझते हैं और ऐसा ना हो इसके लिए सब कुछ संभव प्रयास करेंगे।

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