सर्वमित्रा सुरजन
भारत का पड़ोसी देश श्रीलंका इस वक्त अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। अंग्रेजों की 150 साल की हुकूमत के बाद 1948 में श्रीलंका को आजादी मिली, यानी भारत से महज एक साल बाद श्रीलंका भी आजाद हो गया। आजादी का अमृतकाल वहां भी अगले साल मनाया जा सकता था, लेकिन उससे पहले यह सुंदर देश नर्क की आग देख रहा है। और यह आग एक दिन में नहीं लगी है। इसकी चिंगारी कई महीनों से सुलग रही थी। महिंदा राजपक्षे ने धर्म और राष्ट्रवाद की उग्र राजनीति के बूते सत्ता तो हासिल कर ली, राजपक्षे परिवार का श्रीलंका की सरकार पर एक तरह से कब्जा भी हो गया, लेकिन मौजूदा हालात बताते हैं कि देश और सरकार चलाने के लिए दूरदृष्टि और व्यापक हितों वाले फैसले करने होते हैं, केवल धर्म के नाम पर देश को नहीं बचाया जा सकता। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक श्रीलंका के हालात ऐसे हैं कि वहां कोई सरकार नहीं है। महिंदा राजपक्षे ने इस्तीफा दे दिया है। राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे ने एक महीने में दूसरी बार आपातकाल लगा दिया है। 16-16 घंटों तक बिजली की कटौती हो रही है। एटीएम खाली हैं। लोगों के लिए अनाज नहीं है, इलाज के लिए दवाइयां नहीं हैं। देश का विदेशी मुद्रा भंडार खाली है और विदेशी कर्ज चुकाने के लिए पैसे नहीं हैं। और इन कठिन हालात को संभालने के लिए कोई जिम्मेदारी उठाने वाला नेता भी नहीं है।
महिंदा राजपक्षे से इस्तीफे की मांग लंबे वक्त से हो रही थी। लेकिन वो कुर्सी से चिपके बैठे रहे और अब कह रहे हैं कि अगर उनके इस्तीफे से देश का मौजूदा आर्थिक संकट ख़त्म होता है तो वो इसके लिए तैयार हैं। ये नजर आ रहा है कि महिंदा राजपक्षे ने इस्तीफे का फैसला भी अपनी सुविधा के लिए ही लिया है। क्योंकि अगर जनता की या देश पर मंडराए संकट की उन्हें फिक्र होती तो यह कदम वो काफी पहले उठा चुके होते। अब जबकि जनता बेकाबू हो कर सड़कों पर उतर चुकी है और सरकार में भी कोई साथ देने वाला नहीं मिल रहा तो श्री राजपक्षे झोला उठाकर चलने के लिए तैयार हो गए हैं। लेकिन उनके इस्तीफे से देश को जो नुकसान हुआ है, वो क्या भर पाएगा? क्या लोगों को रोटी, दवाई, बिजली, पानी, रोजगार, शिक्षा मिल पाएगी, ये बड़ा सवाल है।
श्रीलंका में एक अरसे से हालात बिगड़ रहे थे। पिछले कई महीनों से देश में महंगाई दर दहाई अंकों में है। रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध छिड़ने के बाद श्रीलंका का संकट और ज़्यादा बढ़ गया। क़ज़र्दारों को कर्जों की अदायगी ‘असंभव’ बन गई है। लेकिन ये तो तात्कालिक कारण हैं, इस संकट के मूल में सरकार की अदूरदर्शी नीतियां और फैसले हैं। पिछले एक दशक के दौरान श्रीलंका की सरकार ने सार्वजनिक सेवाओं के लिए विदेशों से बड़ी रक़म कर्ज के रूप में ली। इसके अलावा भारी बारिश जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण अर्थव्यवस्था पर संकट बढ़ा और इसके बाद रासायनिक उर्वरकों पर सरकार ने प्रतिबंध लगाया तो किसानों की फसल बर्बाद हो गई और आम जनता के सामने भोजन का संकट आ गया। लोग कंगाल होते गए और सरकार उनके कष्ट दूर करने के लिए कोई प्रयास करती नजर नहीं आई। लोग अपना आक्रोश दिखाने सड़कों पर उतरे, तो उनके विरोध को कुचलने की कोशिश हुई। और अब घोर अराजकता की स्थिति श्रीलंका में बन चुकी है। पिछले दो दिन में लोगों का गुस्सा अब जमकर प्रदर्शित हो रहा है। जगह-जगह आगजनी और गोलीबारी की घटनाएं हो रही हैं। हिंसक झड़पों में एक सांसद समेत पांच लोगों की मौत की खबर है और लगभग 2 सौ लोग घायल हैं। सत्ताधारी पार्टी के 15 से अधिक सदस्यों के घरों और दफ़्तरों को प्रदर्शनकारियों ने आग के हवाले कर दिया जिसमें राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे का पैतृक घर भी शामिल है।
प्राकृतिक सुंदरता के धनी देश श्रीलंका की धरती फिर राजनैतिक और आर्थिक अस्थिरता से कांप रही है। इस देश ने भी राजनैतिक उथल-पुथल के बहुत से दौर देखे। उग्रवाद का भयावह दौर देखा। लेकिन अब जैसे हालात पहले कभी नहीं बने। संकट की इन घड़ियों में श्रीलंका के पास विदेशी मदद लेने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा है। लेकिन मददगार देश भी इसमें अपना स्वार्थ साधने की कोशिश करेंगे ही। चीन की नजर एक अरसे से श्रीलंका पर है। भारत को दबाव में लाने के लिए श्रीलंका के कंधे पर बंदूक रखना उसके लिए आसान होगा। लिहाजा भारत के सामने ये बड़ी चुनौती है कि वह किस तरह श्रीलंका को उसके पैरों पर वापस खड़ा करने में मदद करे और चीन को श्रीलंका का इस्तेमाल करने से रोके।
श्रीलंका की चुनौती से भारत के लिए सबक भी निकल कर आया है।
हमारे खुद के आर्थिक हालात इस वक्त डांवाडोल हैं। रुपया तो सबसे निचले स्तर पर पहुंच ही गया है, सरकार की ओर से ऐसा एक भी प्रयास नजर नहीं आ रहा जिससे आम जनता को राहत मिले। देश अभी कर्ज में तो नहीं डूबा, लेकिन सार्वजनिक संपत्तियों को बेचना भी कोई समझदारी का फैसला नहीं है, क्योंकि ये एक तरह से लॉकर में रखे सुरक्षित धन की तरह थे।
अब इन्हें बेचकर सरकार जिस कमाई में लगी है, उसे किन लोगों पर लुटाया जा रहा है, ये भी सबको पता है। भारत की जनता अभी सारी तकलीफें धर्म के नशे में सहन कर रही है। लेकिन कभी न कभी नशा उतरेगा और तब लोगों को रोजगार, कमाई और बचत की जरूरत होगी। फिर जनता क्या करेगी और जनता के साथ सरकार क्या करेगी, इस बारे में भी विचार कर लेना चाहिए। पड़ोस में आग लगी हो, तो निश्चिंत होकर बैठा नहीं जा सकता।