पश्चिमी दुनिया के देश उन्नति इसलिए कर पाए कि वहां वैचारिक खमीर काफी देर पहले ही उठना शुरू हुआ. जर्मनी में मार्टिन लूथर ने पोप और उसके प्रतिनिधियों को सोलहवीं शताब्दी में ही चुनौती दे दी. मार्टिन लूथर ने कहा, हम लोग चोर को फांसी देते है, ठगो को तलवार के घाट उतारते है तो अध:पतन के के मुख्य कारण – पोप और पादरियों – को हर प्रकार के दंड से क्यू न दंडित करें? यदि अग्नि वर्तमान रही तो किसी न किसी दिन मै पोप के समस्त नियमो को जला दूंगा.
लूथर ने आवाज उठाई की वर्तमान मठ की संख्या दस प्रतिशत कम कर देनी चाहिए. इन में रहने वाले यदि प्राप्त लाभो से संतुष्ट न हों तो उन्हें इन से संबंध तोड़ने की स्वतंत्रता होनी चाहिए.
लूथर ने लोगो को समझाया कि तीर्थयात्रा तथा धार्मिक अवकाशों से दैनिक कार्य कि हानि होती है. इस से आर्थिक नुकसान होता है.
लूथर के साथी हुटन ने सम्राट से कहा था, “पोप का पद समाप्त कर देना चाहिए, इस धर्मसंस्था की संपूर्ण सम्पत्ति राज्य में मिला लेनी चाहिए और सौ में से निन्यानबे पादरियों को व्यर्थ समझकर निकाल देना चाहिए. केवल यही एक तरीका है जर्मनी के पादरियों तथा उन की बुराइयों से मुक्ति पाने का. उन की सम्पत्ति जब्त करने से राज्य कि पुष्टि होगी, उस की आर्थिक दशा उन्नत होगी और उस पैसे से सेना को शक्तिशाली बना कर देश की रक्षा की जा सकेगी.”
आखिर लूथर ने पोप के सब नियम जला डाले.
इसके साथ ही इंग्लैंड में भी उस के मत – प्रोटेस्टेंट मत का प्रवेश होने लगा. अष्टम हेनरी ने १५३४ में संसद के द्वारा पोप के पर कतरवा दिए. उस ने राजा को समस्त पादरी नियुक्त करने तथा उस राशि को अपने पास रखने का अधिकार दे दिया जो पहले पोप के पास रोम भेजी जाती थी. साथ ही राज्य के हर कर्मचारी के लिए यह शपथ लेना अनिवार्य बना दिया गया की वह पोप के आधिपत्य को स्वीकार नहीं करेगा!
हेनरी ने मठो की धार्मिक अवस्था की जांच करने के लिए निरीक्षक भेजे. मठाधीश महंत आलसी और दुष्ट थे. जब छोटे छोटे मठ की सम्पत्ति जब्त की गई तो धर्म के इन ठेकेदारों – संतो, महंतो आदि नें विद्रोह करवा दिया. राजा ने वे सब मठाधीश मौत के घाट उतार दिए जो इस विद्रोह में शामिल हुए थे. उन की सम्पत्ति जब्त कर ली गई. भय के मारे दूसरों ने भी स्वीकार कर लिया की हम लोग दुराचारी है और अपने अपने मठ राजा को सौंप दिए. मठ की सारी सामग्री बेच दी गई. भूमि को या तो राजा ने अपने कब्जे में लिया या फिर बेच दिया. इन मठ के नाश के साथ ही धर्ममंदिरो की उन प्राचीन मूर्तियों को तक तोड दिया गया जिन्हे पोप का आशीर्वाद प्राप्त था. यहां तक कि गिरजाघरों में लगे रंगीन शीशे भी तोड दिय गए, क्यू की बहुधा उन में भी मूर्तियां बनी रहती थी. चुनाव की प्राचीन प्रथा को तोड कर अब यह निश्चित हुआ कि राजा स्वयं ही बिशप को नियुक्त करेगा.
इस मामले में कई अभूतपूर्व कदम उठाए गए. कैंटरबरी के महात्मा (साधु) टामस की मूर्ति तोड डाली गई और उस (महात्मा) की हड्डियां जला दी गई. वेल्स में काठ की एक मूर्ति पूजा होती थी. उस तोड कर एक ऐसे साधु को जलाने के लिए इस्तेमाल किया गया जिस ने राजा की आज्ञा न मान कर पोप की आज्ञा मानी थी. इस तरह धर्मगुरु के चंगुल से मुक्त होने और उसे सताच्युत करने के बाद ही इंग्लैंड विज्ञान में प्रगति कर सका. १८ वी शताब्दी के अंतिम और १९ वी शताब्दी के आरंभिक दशकों में वहां हुई औद्योगिक क्रांति उसी वैचारिक व धार्मिक क्रांति का फल थी जिस के बीज पिछली – १६वी, १७वी – शताब्दियों में बो दिए थे.
१९वी शताब्दी में यूरोप के अनेक देशों में स्वतंत्र चिंतकों, वैज्ञानिकों, आविष्कारकों को तंग किया जाता था. वे सब इंग्लैंड पहुंच कर निर्भय हो कर अपना अपना काम आगे बढ़ा पाए, क्यू कि वहां वैचारिक स्वतंत्रता थी, कठमुल्लापन नहीं था. जिस मार्क्स के विचारो को मानने वालों का पिछली शताब्दी में (१९९०) तक आधी से ज्यादा दुनिया पर राज था, वह भी इंग्लैंड में आकर ही अपने क्रांतिकारी और युगांतरकारी चिंतन को तर्कसंगत परिणीती तक पहुंचा पाया था. मार्क्स को १८४३ में जर्मनी छोड़ कर पैरिस जाना पड़ा. वहां से उसे निकाल दिया गया तो वह ब्रुसेल्स में आ गया. परन्तु जब उसे वहां से भी निकाल दिया गया तब वह १८४९ में लंदन आ गया और सारी उम्र वहीं रह कर अपने शोध कार्य को पूरा करता रहा. ऐसे और कई उदाहरण भी दिए जा सकते है. यहां यह उल्लेखनीय हैं कि
इंग्लैंड प्रोटेस्टेंट कभी भी धार्मिकता का गुलाम नहीं बना; बल्कि यह विश्वभर में धर्मनिरेक्षतावाद की जन्मभूमि बना. १८५१ में जैकब होलियाक ने इस शब्द (सेकुलरिज्म) का सर्व प्रथम प्रयोग किया और इसे एक आंदोलन का रूप दिया. उसका धर्मनिरेक्षतावाद हमारे जैसा नहीं बल्कि वास्तविक था जो सांसारिक समस्याओं के समाधान में ईश्वर सहित किसी अलौकिक सत्ता के हस्तक्षेप अथवा उस की प्रासंगिकता को स्वीकार नहीं करता. इसीलिए यह अलौकिक सत्ताओं पर अनिवार्यतः आधारित धर्म का निषेध करने वाला सिद्धांत माना जाता है. जिसे आसान भाषा में नास्तिकता कहा जाता हैं.
होलीयाक ने धर्मनिरेक्षतावाद के द्वारा इंग्लैंड के वातावरण को तर्कसंगत, वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न, कट्टरता मुक्त और विरोधी विचारों के प्रति सहिष्णुता बनाया तो ब्रैडलाफ ने कानूनों को धर्म की जकड़बंदी से मुक्त करवाने में अपना योगदान दिया. उन्होंने अपने प्रयत्नों से ईश्वर के नाम पर शपथ लेने की बाद्यता खत्म करवाई और “ओथस बिल” पास करवाया, जिस से ईश्वर की सत्ता में विश्वास ने करने वालों के सत्यनिष्ठा के नाम पर शपथ लेना संभव हो गया.
ऐसे वातावरण में ही डार्विन के विकासवाद का युगांतरकारी सिद्धांत विकसित हो सका, जिस ने सारे संसार के परंपरागत चिंतन की चूले हिला दी.
भारत में ऐसा वातावरण कभी नहीं बना इसलिए यहां आकर बसने की इच्छा किसी विदेशी विचारक और वैज्ञानिक ने कभी जाहिर नहीं की. इस के विपरित भारत के आला दिमाग भी जिस शिखर को विदेशो में जा कर छूते हैं, उसे भारत में छूने में वे एकदम असफल रहते है, हालांकि गाया यह जाता है कि यहां की धरती को ऋषियों मुनियों, पिरो फकीरों, गुरुओं भक्तो आदि के चरण स्पर्श का गौरव प्राप्त है. डॉ हरगोविंद खुराना भारत में किसी गिनती में नहीं रहे परन्तु विदेश अपने अनुसंधान से नोबेल पुरस्कार प्राप्त किया. कल्पना चावला भारत में कुछ भी नहीं सिद्ध हुई, परन्तु अमेरिका में एक सितारे कि भांति चमकी. लेकिन हमारे दिमाग में यह प्रश्न कभी नहीं उठता की ऐसा क्यू है? हमे ऐसे प्रश्न क्या कभी परेशान करते है?
(संकलक राजेश्वर पांचाल)
संदर्भ :- क्या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्दू धर्म?