यह समाज लगता है पगला चुका है।आज पढ़ा कि अयोध्या में बन रहे राममंदिर से डेढ़ गुना बड़ा रामायण मंदिर पूर्वी चंपारण में बन रहा है।स्कूल बनाना, अस्पताल बनाना और उन्हें ठीक से चलाना छोड़कर यह समाज और सरकार उससे बड़ा वह और उससे बड़ा वह बनाने में लगी है।फिर खबर आएगी कि उससे बड़ा वह और उससे भी बड़ा वह बन रहा है।जो समाज आस्था के नाम पर धन की ऐसी निर्मय बर्बादी कभी यहाँ और कभी वहाँ करता रहेगा, वह निश्चय.ही गड्ढे में जाएगा और एक दिन डूब जाएगा।तब ये मंदिर बनाने वाले बचाने नहीं आएँगे।
हर शहर,हर गाँव में राममंदिर, हनुमान मंदिर, कृष्ण मंदिर हैं।हर खातेपीते हिंदू के घर में ऐसे मंदिर स्थापित हैं।हर हाउसिंग सोसायटी में मंदिर बनाने की होड़ है।मंदिर -मस्जिद बड़ी और बड़ी बनाने से भारत का गौरव नहीं बढ़ता।कोई भी देशी विदेशी, जिसमें थोड़ा भी विवेक बचा है,वह यह सब देखकर दुखी होगा या हँसेगा।
हिंदी पट्टी में आज भी बिहार की हालत सबसे खराब है मगर वहाँ विश्व का सबसे बड़ा मंदिर बनाने की होड़ है।सवाल करो तो आस्था पर चोट कर रहे हैं।सांप्रदायिक वैमनस्य फैला रहे हैं।सोचो,अगर सोचने की सामर्थ्य बाकी हो तो यह कर क्या रहे हो।कौन इसे बढ़ावा दे रहा है।संपन्न समाज ऐसी प्रतियोगिताओं में नहीं पड़ते।तुम बनाते रहो,यह सब वे बिल्कुल परेशान नहीं हैं।उनकी नाक इससे कट नहीं रही है। वे हथियार बना कर मुनाफा कमाएँगे।तुम उनसे हथियार खरीदोगे और देश में मंदिर- मस्जिद बनाओगे।यह हो क्या रहा है?सारा विवेक हम गँवा चुके हैं क्या?
विष्णु नागर की ✍ से