आज से ठीक एक साल पहले जो श्रीलंकाई अपने देश में बुर्का बैन कर थे और मदरसों पर ताले लगा रहे थे.. आज वो अपना ही देश छोड़कर भाग रहे हैं या सड़कों पर आक्रोशित भीड़ से पिट रहे हैं।
सालभर पहले तक इस्लामोफोबिया में गले तक डूबे श्रीलंकाई सरकार और राजपक्षे-भक्तों को मुस्लिमों से दिक्कत थी, हलाल से ऐतराज़ था, अज़ान से चिढ़ थी, मदरसों के नाम से खून खौलता था, पर्दे/हिज़ाब में खुद की आबरू ढंके हुई ख़्वातीन इन्हें काटने दौड़तीं थीं.. आज वो पूरा मुल्क जल रहा है।
मजहबी नफरत में डूबे श्रीलंकाई बहुसंख्यकों को पता भी नहीं चला कि कब उनकी अंधभक्ति ने विकास की रफ्तार रोककर उन्माद की आग में पूरे देश को तबाह कर डाला।
अंधभक्ति में चूर श्रीलंका की जो अवाम कहती थी कि “राजपक्षे नहीं तो और कौन ?
वही अवाम आज राजपक्षे का महल फूँक रही है, उनके मंत्रियों को कार समेत झील में फेंक रही है, उनके अंधसमर्थको को दौड़ा-दौड़ाकर सड़कों पर पीट रही है, उनके सांसद बन्द कमरों में आत्महत्या कर रहे हैं।
अफसोस श्रीलंकाई अवाम का नशा तब उतरा है जब उनके पास खोने को कुछ नहीं बचा.. आज उनके सामने मस्जिद-मदरसे, अज़ान-बुर्का से ज्यादा अहम मुद्दे पेट की भूख है. अब उनकी प्रायोरिटी किसी मदरसों पर ताला लगाने की जगह अपने भूखे बच्चों के लिए रोटी जुटाना है, किसी मस्जिद को खोदकर उसके नीचे मूर्तियाँ तलाशने से पहले वो अपने लिए रोजगार तलाशना बेहतर समझेगा।
जिन नेताओं ने अंधभक्तों का झुंड पैदा करके देश में नफरत की आग फैलाई और राज किया, वो नेता अब मुल्क छोड़कर भाग गए या भाग रहे हैं.. जनता से पिटने के लिए अब वही समर्थक और अंधभक्त बचे हैं, जिन्हें धर्म बचाने का कीड़ा था.. अब अगर वो जनता से बच भी गए तो बेरोजगारी और भुखमरी मार देगी।
श्रीलंका और म्यांमार की तबाही पूरी दुनिया के लिए उदाहरण बन गई है, जो भी मुल्क इनसे सबक लेना चाहें उनके लिए वक़्त अभी भी हाथ से फिसला नहीं है।
(साभार)