मजदूर किसान क्रांति (अक्टूबर क्रांति) की अपरिहार्यता परन्तु, किनके लिए और क्यों? । मंथन अंक (प्रथम) विशेषांक

दैनिक समाचार

लेखक: श्यामनरायन सिंह (आजमगढ़)


1917 में रूस में सम्पन्न हुई दुनिया की पहली मजदूर किसान क्रांति जो अक्टूबर क्रांति के नाम से विख्यात है का शताब्दी वर्ष पूरे होने के निकट है। लिहाजा, ऐसे सभी को शताब्दीवर्ष को यादगार बनाने हेतु तैयारिया अगले वर्ष से शुरू कर देनी चाहिए जिनका उद्देश्य क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन है। आप सज्जन उस क्रांति के रूस (एवं रूसी जारशाही की पराधीन राष्ट्रीयताओं) एवं अन्तराष्ट्रीय जगत में आये प्रभावों व परिणामों को जानते होगे। वैसे इसके संबध में अंग्रेजों की गुलामी के विरूद्ध चले हिन्दुस्तानियों के संघर्ष के बारे में इतिहास की कोई पुस्तक पढ़गे तो उसमें इंग्लैण्ड, फांस, अमरीका की सम्पन्न क्रान्तियों (पूजीवादी) के साथ ही साथ रूस की अक्टूबर क्रांति (समाजवादी) के पड़ने वाले प्रभावों व उनके महत्व पर चर्चा मिलेगी। इस लेख में उस क्रांति को बीते काल को तीन भागों में (पहला 1917-1956/57/60. दूसरा 1955/57/60 से 1985 व 1989/90/91 तथा तीसरा 1989/90/91 से आज 2015 तक) बाँटकर चर्चा की गयी है। इस चर्चा का उद्देश्य है कि तीसरा (वर्तमान दौर जो दूसरे (प्रतिक्रांतिकारी, प्रतिगामी, प्रतिक्रियावादी) दौर की संतान है का जल्द से जल्द खात्मा हो और चौथे दौर (क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तन) के आगमन की पुनः शुरूआत हो। इस संबंध में पहले कालखण्ड को देखा जाय —–

आप जानते हैं कि अक्टूबर क्रांति का उद्देश्य था (व है) पूजीवादी समाज व्यवस्था को उखाड़कर समाजवादी (मजदूरवादी) समाज व्यवस्था की स्थापना करना। इस उद्देश्य पूर्ति हेतु एक काम था (व है) पूंजीपतियो (व सामंतों) के हाथ से जबरिया उनकी ताकत से ज्यादा ताकत का इस्तेमाल करते हुए उनसे सत्ता छीनकर (ध्वस्तकर) मजदूरों किसानों द्वारा अपनी अनन्य (तानाशाही) सत्ता अपने हाथ में लेना व स्थापित करना। ताकि इस समाजवादी (या जनवादी) सत्ता की तानाशाही ताकत से उत्पादन के आधुनिक बड़े-बड़े साधनों को पूंजीपतियों (देशी व विदेशी) व सामतों के जैसे निहत्ले हरामखोर गैर-उत्पादक मालिक वर्गों के हाथ से छीनकर मेहनतकश उत्पादक वर्गों-मजदूरों किसानों के मालिक बनने का दूसरा काम सम्पन्न हो। इन दोनों की बदौलत ही निजी-मालिकाने और निजी लाभ वाली पूंजीवादी प्रणाली की जगह सामाजिक मालिकाने व सामाजिक लाभ वाली प्रणाली यानी समाजवादी प्रणाली (व साम्यवादी प्रणाली) वाली अगली क्रांतिकारी समाज व्यवस्था में मानव समाज अग्रसर हो।

आप यह भी जानते हैं कि इस क्रांति (व ऐसी) क्रातियों का पथ-प्रदर्शक, निर्देशक सिद्धान्त व व्यवहार मार्क्सवाद लेनिनवाद था (व रहेगा)। यह सिद्धान्त व व्यवहार किसी राष्ट्र देश की सीमा या धर्म नस्ल जाति से बंधा नहीं है, बल्कि विश्वव्यापी एवं मेहनकश वर्ग का ही है अन्य वर्ग या तबके का नहीं है। इसकी उत्पत्ति किसी की बुद्धि या मन से नहीं हुई है, बल्कि अन्य प्राकृतिक व भौतिक विज्ञानों की तरह यह एक सामाजिक विज्ञान है जिसकी खोज मार्क्स एंगेल्स ने की। उन्होंने पूंजीवादी समाज व्यवस्था में विद्यमान परस्पर दुश्मनागत विरोधी वर्गों जैसे शासक-शासित, शोषक-शोषित, उत्पीड़क-उत्पीडित, गैर उत्पादक किन्तु मालिक और उत्पादक किन्तु गैर मालिक इत्यादि के जैसे मौजूद अन्तर्विरोधों से उत्पन्न गैर बराबरी अमीरी-गरीबी इत्यादि का कारण व समाधान का रास्ता व तरीका बताया। इस क्रांति का रूसी महत्व के साथ ही साथ अन्तर्राष्ट्रीय महत्व था (व है)।

उदाहरणार्थ, अक्टूबर क्रांति से प्रेरित व उत्साहित होकर दुनियाँभर में मजदूरों, किसानों व अन्य मेहनतकश तबकों में अपने-अपने देशों में वैसी ही क्रांति करने की प्रेरणा जागृति व मार्गदर्शन मिला। भारत व चीन इत्यादि देशों में विदेशी (व देशी) गुलामी से मुक्ति पाने की नई दिशा देने वाला मार्क्सवाद लेनिनवाद मिला। इस सिलसिले में चीन, कोरिया व वियतनाम में सफल क्रातियां सम्पन्न करने वाले नेताओं की चंद उक्तियां प्रस्तुत है —-

माओ त्से-तुंग (चीन) रूसियों के जरिए चीनियों ने मार्क्सवाद को पाया। अक्टूबर क्रांति से पहले चीनी जनता सिफ लेनिन, स्टालिन को ही नहीं, बल्कि मार्क्स, एंगेल्स को भी नहीं जानती थी। अक्टूबर क्रांति की तोपों की गूंज के साथ मार्क्सवाद-लेनिनवाद हमारे देश में पहुंचा। अक्टूबर क्रांति ने संसार के अन्य भागों की तरह चीन के प्रगतिशील तत्वों को भी अपने देश के भविष्य का अध्ययन करने के लिए सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण लागू करने में मदद दी। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे-रूसियों के रास्ते पर चलो।

1921 में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की गयी। अक्टूबर क्रांति के बाद ही चीनी मजदूर वर्ग के अगुवा दस्ते ने मार्क्सवाद, लेनिनवाद सीखा और कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की।” (माओ की संकलिप्त रचनाएं (हिन्दी) भाग 4 पेज 528

हो ची मिन्ह (वियतनाम) “शुरू-शुरू में साम्यवाद नहीं बल्कि देशभक्ति मुझे लेनिनं व “तीसरे अन्तर्राष्ट्रीय संघ” में विश्वास करने की ओर खींच लायी थी। लेकिन कदम-ब-कदम संघर्षों के दौरान, मार्क्स, लेनिन का अध्ययन करते-करते, और व्यावहारिक कार्रवाइयों में हिस्सेदारी करते-करते मै धीरे-धीरे समझने लगा कि केवल समाजवाद और साम्यवाद ही उत्पीड़ित राष्ट्रों तथा मेहनतकशों को पूरे विश्व में दासता से मुक्ति दिला सकता है।

“हमारे देश में और वैसे ही चीन में भी जादुई “ब्रोकेडेड बैग (Brocaded Bag) की दत्तकथा है। जब कभी बड़ी कठिनाईयों का सामना हो तो इस झोले को खोल लो। इसमें हर कठिनाई का रास्ता निकल आयेगा। वियतनामी लोगों व क्रांतिकारियों के लिए लेनिनवाद न केवल जादुई झोला है, एक दिशा सूचक है, बल्कि एक ऐसा दगदगाता सूरज है जो साम्यवाद की ओर अंतिम जीत पाने का प्रकाशमय मार्ग भी दिखाता है।”
(यह उद्धरण वियतनामी राष्ट्रपति हो ची मिन्ह के अप्रैल 1960 के लेख” वह रास्ता जो मुझे लेनिनवाद की ओर ले गया” का श्री जी.डी. सिंह (गुरदर्शन सिंह) द्वारा 28 सितम्बर 2007 के अनुवादित व वितरित लेख से है।

किम इल सुंग (कोरिया) 1917 की रूसी अक्टूबर समाजवादी क्रांति के बाद मार्क्सवाद लेनिनवाद के विचारों का हमारे देश में व्यापक प्रसार हुआ। वे (विचार) जापानी साम्राज्यवादियों के विरूद्ध राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष का एक शक्तिशाली हथियार या उसका फरहरा बन गये।

मजदूर वर्ग ने जो सबसे क्रांतिकारी जनगण है, इस क्रांतिकारी विचारधारा में एक नया रास्ता पाया जो उन्हें गौरवशाली विजय की ओर ले जाता था और बिना किसी हिचकिचाहट के वे इस नये मार्ग पर बढ़ चले। (किम इल सुग की जीवनी (हिन्दी) के पृष्ठ 64 से- लेखक श्री बैक बोंग) जो अमेरिका की साम्राज्यी आँख में किरकीरी की तरह है।

इनकी उदाहरण देने का महत्व खासकर तीसरे काल से जुड़ा है जिस पर आगे चर्चा करेंगे। यहाँ इतना ही कह दिया जाय कि ये तीनों देशों की घरेलू व वाह्य स्थितियां रूस से भिन्न थी-उपनिवेशिक व अर्द्ध उपनिवेशिक थी। इन देशों की कम्युनिस्ट पार्टियों व उनके क्रांतिकारी नेताओं ने अक्टूबर क्रांति और उसके मार्ग दर्शक मार्क्सवाद लेनिनवाद को अपने अपने देशों की परिस्थितियों में लागू कर जनवादी क्रांतियां सम्पन्न की। इसी तरह पूर्वी यूरोपीय देशों से लेके लाओस, कम्बोडिया क्यूबा में क्रांतियों सम्पन्न हुई कम्युनिस्टों की अगुवाई में इन क्रांतियों का ही भय था कि ब्रिटिश अमरीकी साम्राजी ताकतें भारत जैसे अन्य उपनिवेशिक देशों में चल रहे संघर्षों को कम्युनिस्टों के हाथों में जाने से रोकने व छीनने के लिए उन देशों में अपने दलाल पिठ्ठू सहयोगी पूंजीपतियों सामंतों को समझौता-मार्का आजादी सौंपने लगे जो हिन्दुस्तान से लेकर दुनिया के बहुत सारे उपनिवेशिक देशों को 1950 के आस-पास हासिल हुई। फिर भी इन देशों में स्थापित हुई कम्युनिस्ट पार्टियों ने जनवादी क्रातियों का उद्देश्य बनाये रखा जो स्टालिन के जीवन काल तक चलता रहा। इस संघर्ष में शिथिलता, विचलन व भटकाव तब आया जब विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन की अगुवा रूसी कम्युनिस्ट पार्टी में 1950/57 में स्टालिन की आलोचना करते हुए परमाणु युग में विश्व युद्ध रोकने विश्व शांति व पूजीवादी खेमा बनाम समाजवादी खेमा इत्यादि इत्यादि जैसे “बदलती हुई परिस्थितियों का हवाला देते हुए मार्क्सवाद लेनिनवाद की मौलिक प्रस्थापनों में सुधार बदलाव की नयी नयी व्याख्यायें प्रस्तुत की ? सो भी मार्क्सवाद-लेनिनवाद के विकास के नाम पर

यहीं से अक्टूबर क्रांति उपरांत के दूसरे काल खण्ड की शुरूआत होती है। दूसरा काल खण्ड (1956/67 से 1985/89/90)- हो सकता है किसी सज्जन के समक्ष यह प्रश्न उत्पन्न हो कि स्टालिन की मृत्यु के महज 3-4 साल बाद ही मार्क्सवाद-लेनिनवाद में सुधार संशोधन में पेश करने वाले नेता खुश्चचे आदि कैसे एकाएक पैदा हो गये। कहीं ऐसा तो नहीं कि स्टालिन की जालिम तानाशाही की डर से वो नेतागण इन सुधारों संशोधनों को पेश करने की हिम्मत ही न कर पाये हो जैसाकि उन्होंने खुद कबूला भी। हाँ, यह सच्च है कि मजदूर वर्ग से गद्दारी करने मार्क्सवाद लेनिनवाद में सुधार संशोधन पेश करने की हिम्मत इन कायरों में नहीं थी। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि मार्क्सवाद में “बदली हुई परिस्थितियों के नाम पर सुधार संशोधन की शुरूआत मार्क्सवाद खेमे में रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के खुश्चवे आदि ने 1956/57 में पहली बार किया अथवा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने 1978/79 में या गोर्बाचेव ने 1985 / 86 में पहली बार किया अथवा आज के नूतनवादी मार्क्सवादियों की पैदाइस 1989 / 90 के बाद पहली बार किया हो ऐसी बात नहीं है। सच्चाई देखें —–

ऐतिहासिक सच्चाई यह है कि मार्क्सवाद का जन्मकाल अगर कम्युनिस्ट घोषणा पत्र के प्रकाशन (1848) से माने तो उसके विरोध निन्दा आलोचना की शुरूआत उसके जन्मकाल से ही हो गयी थी क्योंकि यह जन्म से ही वर्गीय अन्तर्राष्ट्रीय क्रांतिकारी उद्देश्य लिए हुए है। इसका एक सबूत है “सभी देशों के मजदूरों, एक हो जाओ!” मार्क्सवाद का जन्म व विकास तीन प्रकार के दुश्मनों से लोहा लेते हुए हुआ है-एक है. राजशाही सामंतशाही व पुरोहितशाही दूसरा है, पूंजीशाही व उसके समर्थक तीसरा है, विभिन्न प्रकार के समाजवादी रुझानों के खिलाफ माक्सवादी, एंगेल्स के चलाए संघर्ष (इन संघर्षों के अनुभवों से निकले निचोड़ मार्क्सवाद की मूलभूत प्रस्थापनाए हैं। इसलिए पाठकों को यह जानना ही नहीं बल्कि मानना भी चाहिए कि मार्क्सवाद का दुश्मनागत विरोध उसके जन्म काल से होता आ रहा है और जब तक वर्गीय समाज रहेगा तबतक होता रहेगा। इसमें तीसरा खेमा जो विभिन्न प्रकार के समाजवादियों का था यह ज्यादा खतरनाक था क्योंकि यह अपने को मजूदरों किसानों का हितैषी होने के लबादे में छिपाकर उन्हें उदारवादी पूजीवादियों की पूंछ में बांधने का काम कर रहा था। इसके विरूद्ध मार्क्स एंगेल्स की अगुवाई में 40/50 साल तक संघर्ष चला जिसमें सफलता 1889 में मिली जब दूसरे अन्तराष्ट्रीय संघ की पुर्नस्थापना में मार्क्सवाद की सौद्धान्तिक विजय हुई। जिसने पहले के समस्त समाजवादी रुझानों को निम्न पूजीवादी व पूंजीवादी (समाजवादी) रूझान साबित कर दिया। लेकिन 1989 के महज 9 साल बाद?

1898 में (एंगेल्स की मृत्यु के महज तीन साल बाद, मार्क्स की मृत्यु के 15 साल बाद और अक्टूबर क्रांति के 19 साल पूर्व) मार्क्स एंगेल्स के अनुवाई के रूप में विश्व ख्याति प्राप्त जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के नेता श्री बर्नस्टीन ने बदली हुई परिस्थितियों के नाम पर मार्क्सवाद की मौलिक प्रस्थापनाओं में सुधार बदलाव पेश कर दिया। उसका कहना था कि अब पूंजीवादी व्यवस्था को उखाड़़कर समाजवादी व्यवस्था की स्थापना हेतु मजदूर वर्ग को वर्ग संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं रह गयी है जैसाकि मार्क्सवाद का असूल है।
बल्कि मजदूर वर्ग को आज की जनतांत्रिक व्यवस्था में जो जनतांत्रिक अधिकार मिले हैं उनका इस्तेमाल करके वह अपने जीवन सुधार की लड़ाईया लड़ते हुए शांतिपूर्ण ढंग से समाजवाद ला सकता है। उसके चार साल बाद 1902 में जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के सामने मार्क्सवाद को पुराना व कट्टर कहकर संशोधित करने का सुझाव भी रखा जो बहुमत से खारिज हो गया। यह मार्क्सवादी खेमे के भीतर गैर-मार्क्सवादी (पूंजीवादी) रुझान व व्यवहार की पहली मिसाल है। कई देशों में श्री बर्नस्टीन के इस मार्क्सवाद विरोधी-सुधारवादी व संशोधनवादी दृष्टिकोण का विरोध व समर्थन दोनों शुरू हो गया। जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कार्ल काउत्स्की व कई अन्य देशों के कम्युनिस्ट नेताओं ने 1899 में ही विरोध व आलोचना करके उसे मार्क्सवादी खेमें में फैला गैर-मार्क्सवादी (पूंजीवादी) रुझान साबित कर दिया। लेकिन ?

यही मार्क्सवादी काउत्स्की व कई अन्य नेता जिन्होंने क्रांतिकारी वर्ग संघर्ष की आवश्यकता को स्वीकार करते हुए उसे नकारने वाले श्री बर्नस्टीन की आलोचना व विरोध किया, उतना ही नहीं इन सबने 1907 में स्टुटगार्ट में सेकेन्ड इंटरनेशनल के सम्मेलन में तथा 1912 में वैसेल (स्विटजरलैंड के) नगर में सम्पन्न सम्मेलन में तय किया कि आसन्न साम्राज्यवादी युद्ध में समाजवादी ताकतों का काम होगा कि विश्व युद्ध में फंसी पूंजीवादी ताकतों के संकटों का फायदा उठाकर अपने-अपने देशों में पूंजीवादी विरोधी समाजवादी क्रांति हेतु गृहयुद्ध शुरूकर सफलता की मंजिल तक पहुँचा जाये। इन दोनों प्रस्तावों के प्रमुख सूत्रधार लेनिन थे। परन्तु हुआ क्या? दो साल बाद जब 1914 में प्रथम विश्व युद्ध छिड़ गया तब अधिकांश समाजवादी 180° उल्टा रूख अख्तियार कर अपने-अपने देशों के पूंजीवादी साम्राजी शासकों के साथ खड़े हो गये। सिवाय लेनिन की अगुवाई में बोल्शेविक पार्टी जिसने अक्टूबर 1917 में मजदूर किसान क्रांति सम्पन्न की स्टुटगार्ड व बैसेल कांग्रेस के प्रस्तावों का व्यावहारिक हस्र ऐसा कैसे हुआ? इसकी मूल वजह थी व है मार्क्सवादी खेमे में पूंजीवाद का विकास साम्राज्यवादी अवस्था में होने पर तो सहमति थी किन्तु साम्राज्यवाद के चारित्रिकगुणों एवं उसके प्रति अपनाये जाने वाले व्यावहारिक असूलों को लेकर मतभेद था। इस सिलसिले में श्री काउत्स्की एवं लेनिन की साम्राज्यवाद की व्याख्याओं में उत्पन्न मतभेदों व उनके कारणों को जानना चाहिए। जो आज 2022 में भी वामपंथियों में विद्यमान हैं।

(नोट-इस सिलसिले में लेनिन के लेख व पुस्तकों खासकर, साम्राज्यवाद, पूंजीवाद की चरम अवस्था, (1918). साम्राज्यवाद तथा समाजवादी आंदोलन में फूट (1916) व अन्य आज के बारे में जी.डी. सिंह (गुरदर्शन सिंह) की पुस्तक खासकर मार्क्सवाद-लेनिनवाद की प्रासंगिकता-अप्रासंगिक कौन मार्क्सवाद लेनिनवाद या पूजीवाद साम्राज्यवाद? (1998)

लेनिन ने काउत्स्की के साम्राज्वाद के विश्लेषण का विरोध करते हुए कहा कि काउत्स्की का कहना कि साम्राज्यवाद का काल पूंजीवाद का शांतिकाल बना रहे, सरासर मार्क्सवाद-विरोधी क्रांति विरोधी। चरित्र में पूंजीवादी है। लेनिन के साम्राज्यवादी अवस्था की व्याख्या की सच्चाई तथा काउत्स्की की व्याख्या की झुठाई व्यवहार में प्रथम विश्व युद्ध व राष्ट्र मुक्ति संघर्षों ने साबित कर दिया जो सच्चाई आज 2022 में चाहे जितनी झुठलायी जाये परन्तु देश व दुनिया में घटित होने वाला हर घटनाक्रम से सच्च साबित हो रही है। चाहे आर्थिक, राजनीतिक, कूटनीतिक सैन्य हो या सामाजिक, शैक्षिक, सांस्कृतिक हो। श्री बर्नस्टीन हो या काउत्सकी अथवा ट्राटस्की, खुश्चेव, ब्रेजनेव, गोर्योचेय तेंग सियाओं पिंग या अन्य कोई मार्क्सवादी कहलाने वाला व्यक्ति संगठन हो तब से लेके आज तक जब भी उसने “देश काल की परिस्थितियों में आये बदलाव के नाम पर मार्क्सवाद की मौलिक प्रस्थापनों में से कुछ को पकड़कर और कुछ को छोड़कर पूंजीवाद या पूंजीवादी साम्राज्यवाद की व्याख्या विश्लेषण किया और उसी अनुसार मार्क्सवाद (व लेनिनवाद) को सुधारने बदलने का काम किया व करते आ रहे हैं तो व्यावहारिक घटनाक्रमों ने उन्हें बार-बार मार्क्सवादी पातों में गद्दार साबित किया है। जैसे प्रथमविश्वयुद्ध ने काउत्स्की को पूंजीवाद का पक्षधर साबित कर दिया जिसके कारण मार्क्सवादी खेमा ने माना कि लेनिन की प्रस्थापनाए सही है। इसी कारण लेनिन की प्रस्थापनाओं को पूंजीवादी साम्राज्यवाद के युग का मार्क्सवाद (यानी मार्क्सवाद-लेनिनवाद) कहा गया। यह भी माना गया कि सुधारवाद व संशोधनवाद एक वैचारिक ही नहीं, व्यावहारिक रूझान है जो मार्क्सवादी खेमे में फूटता आ रहा है। उसका काम था व है मार्क्सवाद को विकृत करो, मेहनतकशों को पूंजीवाद का दास बनाओ, उसके विरुद्ध होने वाले संघर्षों को रोको, मद्धिम दिग्भ्रमित करो ताकि पूंजीवाद टिका रहे।

रूसी बोल्शेविक पार्टी ने लेनिन की अगुवाई में अक्टूबर क्रांति-समाजवादी क्रांति करने में सफल रही जबकि प.यूरोप की सुधारवादी संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियां गद्दार साबित हुई। इतना ही नहीं अक्टूबर क्रांति को झटके पटके में होने वाली क्रांति कहने व मानने वालों ने देखा कि नवजात मजदूर किसान राज्य को उखाड़ने हेतु प. साम्राजी 14 देशों की सेनाओं द्वारा थोपे साम्राजी युद्ध तथा उनके शह सहयोग समर्थन व भागीदारी से रूस के चार साला गृह युद्ध में विजयी होकर सोवियत समाजवादी राज्य के टिक गया, तब सुधारवादी- संशोधनवादी रूझान व प्रयास भी दबने लगे। इसको दबाने में 1919 में लेनिन की पहल कदमी पर स्थापित ‘कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल ने दुनियाभर में पूजीवादी साम्राज्यवाद के खिलाफ छिडे संघर्षो ने. एक देश में समाजवाद के निर्माण की सफलता ने द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत संघ की विजय तथा चीन, कोरिया, पूर्वी यूरोपीय देशों में होने वाली जनवादी क्रातियों ने सर्वप्रमुख भूमिका निभाई। इन सुधारवादी व संशोधनवादी रुझानों की मौजदूगी की झलक स्टालिन के विभिन्न लेखों व पुस्तकों के अलावा रूसी कम्युनिस्ट पार्टी की कांग्रेस के विभिन्न प्रस्तावों में मिल जायेगी। (कृपया पढ़़ने का कष्ट करें।)

आप जानते होंगे कि अमरीकी व पश्चिमी साम्राजी ताकतों ने सोवियत समाजवादी राज्य को उखाड़ने का प्रयास व षडयंत्र कभी नहीं छोड़ा। द्वितीय विश्व युद्ध को इन्होंने एक तीर से दो शिकार करने की मंशा से नई उभरती पूंजीवादी साम्राजी ताकत जर्मनी को प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष समर्थन सहायता देकर समाजवादी रूस पर साम्राजी युद्ध थोपवा दिया। इस युद्ध में समाजवादी रूस ने स्टालिन के नेतृत्व में जर्मनी की फ़ौजों को जब पराजित करना शुरू किया तब मानवता व जनतंत्र के बगुला भगत ब्रिटिश अमरीकी पूंजीवादी साम्राजी ताकतें खुल के सोवियत संघ के साथ खड़ी हुई और मरे साप पर लाठी पीटने लगी जिसमें नया उभरा मक्कार अमरीकी साम्राज्यवाद सबसे आगे रहा, जिसने जापान पर परमाणु बम का परीक्षण किया और एशिया में उसे अपना पालतू कुत्ता बना लिया। मंशा थी समाजवादी रूस को हड़काना ताकि दुनिया में मजदूरों किसानों की होने वाली जनवादी व समाजवादी क्रांतियों को रोका जाये। इसके लिए नाटो सीटों, सेन्टों जैसे सैन्य संगठन भी खड़े किए। मगर उनको सफलता नहीं मिली। समाजवादी रूस व उसके नेता स्टालिन ने डटकर पूर्वी यूरोपीय देशों व अन्य देशों में जनवादी क्रांतियों का समर्थन व सहयोग किया।

नतीजन, 1945 में ही पूर्वी यूरोपीय देश पं. यूरोपीय साम्राजी ताकतों की गुलामी से पहली बार मुक्ति पाये। अक्टूबर क्रांति की प्ररेणा व समाजवादी रूस की मदद से गतिमान जनवादी व समाजवादी क्रांतियों एवं उपनिवेशिक राष्ट्रों के राष्ट्र मुक्ति संघर्षो से जान बचाने के लिए नई पूंजीवादी साम्राज्यवादी ताकत के रूप में उभरे अमरीका की सलाह व दबाव पर ब्रिटेन, फ्रांस जैसे कमजोर हुई यूरोपीय साम्राजी ताकतों ने उपनिवेशों को ‘समझौता मार्का’ आजादी देने का सिलसिला 1947 / 50 के दौर में शुरू किया जिसमें भारत की 1947 की आजादी भी शामिल है (इस संबंध में पाठक अमरीकी कूटनीतिज्ञ श्री जान फोस्टर डलेस की पुस्तक वार आर पीस” (“युद्ध या शांति”) से भी जानकारी हासिल कर सकते हैं, साथ ही स्टालिन और कम्युनिस्टों के बारे में उनके दृष्टिकोण भी)। इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझकर ही मार्क्सवादी कतारों में फैले व फैलते आ रहे सुधारवादी संशोधनवादी रूझानों व प्रयासों को समझा जा सकता है कि स्टालिन की मृत्यु के महज तीन साल बाद रूसी कम्युनिस्ट पार्टी में खुश्चवे आदि नेताओं ने “देश काल की परिस्थितियों में आये बदलाओं के नाम पर मार्क्सवाद लेनिनवाद विरोधी सुधार संशोधन कैसे पेश कर दिया यह कहते हुए कि मार्क्सवाद लेनिनवाद का आगे का विकास है?यह विकासवादी सुधार संशोधन का काम हुआ रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता गोर्बाचेव के दौर में किए गये खुलेपन और पुननिर्माण के नाम पर मगर नतीजा ? अन्ततः 19991 / 90 में गोर्वाचव-येल्तसिन की अगुवाई वाली रूसी कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने खात्मे की घोषणा के साथ ही बचे खुचे समाजवादी अवशेषों को उखाड़कर पूंजीवाद की पुनर्स्थापना करने का प्रतिगामी प्रतिक्रांतिकार प्रतिक्रियावादी कार्य मुकम्मल किया जिसकी शुरूआत 1956/57 से की गयी थी-मार्क्सवाद-लेनिनवाद का बदली परिस्थितियों के लिहाज से विकास करना जिसका अंत हुआ गोर्वाचव के इस कथन से कि आज़ मार्क्सवाद-लेनिनवाद पुराना व अप्रासंगिक हो गया है।

लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के 1956/57 से लेकर 1985 / 89 तक के सुधारों व संशोधनों का विरोध नहीं हुआ विरोध तो हुआ, इसी विरोध के चलते 1964 में पूरा विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन दो फाड़ हो गया। जैसे, भारत में एक हिस्सा, रूसी सुधारवाद व संशोधनवाद का पक्षधर व हिमायती बना तथा दूसरा हिस्सा उसे मार्क्सवाद व लेनिनवाद का विरोधी मानके सख्त विरोध किया विरोधी खेमें की अगुवाई चीनी व अल्बानियाई कम्युनिस्ट पार्टी ने किया जिसके नेता माओ व अनवर होकजा थे मगर 1977 / 78 आते-आते चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने “देशकाल की परिस्थितियों में आये बदलाव के नाम पर “तीन दुनियाओं का सिद्धांत पेश कर दिया जो रूसी कम्युनिस्ट पार्टी के 1956/57 के सुधारों-संशोधनों जैसा ही मार्क्सवाद लेनिनवाद विरोधी था। इसका बढ़ा भयंकर नुकसान रूसी सुधारवाद संशोधनवाद के विरोधी खेमे पर पड़ा। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सिद्धान्त का विरोध अल्बानियाई कम्युनिस्ट पार्टी के अलावा भारत में चंद क्रांतिकारी मार्क्सवादियों ने ही किया। उन्होंने इसे मार्क्सवाद-लेनिनवाद विरोधी सिद्धान्त व व्यवहार साबित किया। इस सिलसिले में आप पाठक श्री जी.डी. सिंह (गुरदर्शन सिंह) की लिखी पुस्तक “चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का तीन दुनियाओं का सिद्धांत – एक आलोचनात्मक विश्लेषण (1979)” देख सकते हैं जिन्होंने भारत में मार्क्सवाद-लेनिनवाद की क्रांतिकारी राजनीति में 1950 / 70 के दशक से लेकर 2013 तक पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उन्होंने गोर्बाचेव के खुलापन व पुनर्निर्माण के सुधारों व संशोधनों के विरोध में भी पुस्तिका व लेख लिखकर तथा मीटिंग करके उसे मार्क्सवाद-लेनिनवाद विरोधी व समाजवाद विरोधी पूंजीवादी साबित किया जबकि बहुतेरे क्रांतिकारी मार्क्सवादी तक गोर्वाचेव के सुधारों के समर्थक बनके समाजवाद को जनतांत्रिक व मानवीय बनाने के पक्षधर बन गए। इस प्रकार आप पाठक देख सकते हैं कि मार्क्सवाद व लेनिनवाद की कतारों में सुधारवाद व संशोधनवाद के फैलने एवं उसका कसकर विरोध करने का क्रम इतिहास में 1898 से 1985 / 87 तक चलता रहा। मगर आज 1988 / 90 के

बाद? यही तीसरा काल है। इस काल पर चर्चा फिर कभी होगी। नोट- यह लेख श्री जी.डी. सिंह (गुरदर्शन सिंह) की पुस्तक मार्क्सवाद लेनिनवाद की प्रासंगिकता…. (1998) के सहयोग से लिखा गया है

श्यामनरायन सिंह। (आजमगढ़)

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