द्वारा : इं. एस. के. वर्मा
दिनभर में आप और हम इस आध्यात्मिक खोज का कितना लाभ लेते हैं?
मसलन कहीं जाना हो तो ट्रेन,बस और बाईक का इस्तेमाल नहीं करना पड़ता है?
घर में एसी, कूलर पंखा,गैस और बल्ब अर्थात बिजली का काम आध्यात्मिक होने के बाद नही करना पड़ता है?
हो सकता है कि आपकी रोजमर्रा की जरूरते आध्यात्मिक से ही पूरी हो जाती हों किन्तु वास्तव में तो लाभ कम बल्कि नुकसान ज्यादा नजर आते हैं।
क्योंकि आध्यात्मिक के नाम पर करोड़ों की संख्या में साधू महाराज, महात्मा,संयासी और संत बने लोग खुद से कोई भी पुरुषार्थ नहीं करते बल्कि खाने के लिए भी मेहनतकश लोगों पर निर्भर रहते हैं!
किसी भी महात्मा, साधू,संत के पास ऐसा कोई मंत्र, सिद्धि या तंत्र मौजूद नहीं है जिसका इस्तेमाल देश की सीमाओ की सुरक्षा की जा सके ताकि सेना के ऊपर होने वाला अरबों रुपए का सालाना खर्च बच सके साथ ही सैनिकों को शहीद होने की जरूरत न पड़े?
मिसाइल,टैंक, तोप,गोला, बारूद, राकेट लांचर तथा सुरक्षा संबंधित उपकरणो सहित समस्त तकनीकी के लिए देश को विदेश़ो की आउटडेटेड तकनीकी पर आश्रित रहना पड़ता है।
फिर आध्यात्मिक ज्ञान का क्या लाभ है?
यह भी कड़ुआ सच है कि जितने परजीवी और मुफ्त का खाने वाले लोग भारत में है, जापान जैसे देश की जनसंख्या उससे भी कम है!
आध्यात्म के नाम पर कुछ लोगों ने भूत-प्रेत, चुडैल-डायन,टोने-टोटके, तंत्र-मंत्र और चमत्कार की कहानियां सुनाकर लोगों को ठगने के अलावा और दिया ही क्या है?
लोगों को गुमराह करके केवल आडंबरों और पाखंडों में फंसाकर,नर्क और पाप न पुण्य का भय दिखाकर तथा स्वर्ग और मोक्ष पाने के नाम पर केवल ठगा जाता है।
क्योंकि जो इन सबको दिलाने की गारंटी देते हैं उनको खुद भी उसकी असलियत मालूम नहीं है कि है भी या नहीं,केवल काल्पनिक चरित्र बनाकर लोगों को मूर्ख बनाया जाता है।
जिस प्रसिद्ध तीर्थ स्थलो, मंदिर में बामुश्किल तीन से पांच मिनट खड़े रहने की इजाजत मिलती है या उठाकर बाहर फेंक दिया जाता है।
मात्र दो चार मिनट भगवान के दर्शन करने मात्र से ही लोगों की मनोकामनाए पूरी हो जाती है, तो जो पुजारी उनकी ईश्वर की सेवा में दिन रात लगे रहते हैं उनकी मनोकामना तो पूरी करना ईश्वर का परम कर्तव्य और दायित्व बन जाता है?
परन्तु अफसोस कि वो भी मनुष्यो द्वारा दिये गये दान और चंदे के धन पर ही आजीविका चलाने को मजबूर हैं?
यदि इस सच्चाई पर भी यकीन न हो तो दानपेटी और दानपात्र हटवाकर इसका प्रमाण देखा जा सकता है।
सभी धार्मिक स्थलो पर से दानपात्र और दानपेटी हटाकर केवल एक बोर्ड लटका दिया जाए।
जिसमे बडे-२ अक्षरो में लिखा हो कि ईश्वर सर्वशक्तिशाली, सर्वगुण संपन्न और संपूर्ण ब्रह्मांड का स्वामी है।
उसे आप जैसे तुच्छ प्राणी द्वारा पाप कर्म करके तथा दूसरो को सताकर कमाये गये धन का कोई भी लालच या इच्छा नहीं है।
उसे केवल आपकी श्रृद्धा और आस्था ही पर्याप्त है, उसकी सबसे महत्वपूर्ण कृति इन्सान से प्रेम करिए और संपूर्ण प्राणियों की रक्षा और सेवा करके खुद को उस मालिक के प्रति अपनी वफादारी भी साबित करते रहिए।
क्योंकि मालिक को अपने सामान की रक्षा करने वाला वफादार सबसे अधिक प्रिय होता है।
इसलिए केवल श्रृद्धा और प्रेम से आईए,दर्शन करिए और मन में परोपकार व सेवा भाव लेकर जाईए।
आप चाहे तो ईश्वर को केवल एक फूल चढ़ा सकते हैं। हालांकि फूल को तोडने का भी पाप करना क्या ईश्वर माफ करेगा?
क्योंकि सुन्दर वस्तुओ को देखा जाता है उनकी सुगंध से वातावरण स्वच्छ और खुशनुमा होता है, फिर भगवान का सामान तोड़कर भगवान को ही अर्पण करना मूर्खतापूर्ण कृत्य नहीं होगा क्या?
साथ में लिखा जाए कि यदि कोई भी श्रृद्धालु यहां पर धन या फल अथवा द्रव्य अर्पित कर दिखा, उसे दंडित किया जाएगा!
सब लोग जानते हैं कि भगवान भी प्रसन्न होगा और भक्त यानि श्रृद्धालु भी। किन्तु तीर्थ स्थलों पर तोंद फुलाए बैठे मुफ्त की खाने वाले लोग दो चार दिन के बाद नजर भी नहीं आएंगे।
गृहस्थ जीवन का बोझ न उठा पाए या आजीविका चलाने का कोई सुलभ साधन न हो तो साधू बन जाए। फिर जिंदगी भर नकारा रहने के बावजूद भी सम्मान और संपन्नता कभी कम न होगी।
यही कारण है कि साधुओं की संख्या में दिनोदिन बढ़ोतरी होती जा रही है।
यक्ष प्रश्न यह है कि यदि लोग इन साधूओ को दान देना बन्द कर दें तो क्या यें भूखों नहीं मर जाएंगे?
या फिर अपनी आजीविका चलाने हेतू राष्ट्र हित में कुछ ना कुछ काम तो करेंगे ही जिससे देश भी विकसित होगा।
एकबार एक व्यक्ति अपने मित्र से मिलने गया। काफी समय बाद गया था उससे मिलकर मालूम पड़ा कि अब उसके मित्र की शादी भी हो चुकी है।
बहरहाल मित्र धनाढ्य और संपन्न भी था इसलिए ड्राइंग रूम में बैठाकर जलपान की व्यवस्था करने और अपनी पत्नी को बुलाने दूसरे कमरे में गया।
तब तक उस व्यक्ति को अहसास हो चुका था कि यदि उसे पहले पता चल जाता कि उसके मित्र की शादी है चुकी है तो वह जरूर कुछ उपहार लेकर आता।
यह विचार आते ही उसने मित्र के ही ड्रांइग रुम से एक सुंदर सी पेंटिंग उतारी और अपने साथ सोफे पर रखकर बैठ गया।
जैसे ही उसका मित्र और पत्नी जलपान लेकर आये और अभिवादन किया तो उस व्यक्ति ने भी उठकर सोफे से उठकर दोनों का अभिवादन स्वीकार किया, साथ ही वह पेंटिंग (जो कुछ देर पहले उस मित्र के ड्राइंग रूम में लगी थी) भी उपहार स्वरूप भेंट की।
पति पत्नी ने एक दूसरे की ओर देखा और मित्र का स्वागत किया।
मित्र के जाने के बाद पत्नी ने अपने पति से पूछा कि यह तो बिल्कुल वैसी ही पेंटिंग है जैसी हम लोग खरीदकर लाए थे।
यह सोचकर उसने ड्राइंग रूम में जाकर देखा तो वह वही पेंटिंग थी जो उसके मित्र के आने से पहले उनके ड्रांइग रुम में टंगी थी।
पति की तो बोलती बंद थी कि किस अपने मित्र की इस हरकत को अपनी पत्नी के सामने कैसे बताएं ताकि मित्र का सम्मान बरकरार रहे और पत्नी उसे चोर न समझे?
मित्रों आप स्वयं भी चिंतन अवश्य ही करना कि यदि आपका भी कोई मित्र अथवा रिश्तेदार ऐसा ही करें तो क्या आपको अपने ही घर में रखा आपका सामान, दुसरे से उपहार स्वरूप पाकर प्रसन्नता होगी?
शायद कभी नहीं!
बस ऐसा ही कुछ सिद्धांत हम भगवान के लिए भी अपनाया करते हैं। उसी के द्वारा बनाए गये समानों को तोडकर भगवान को चढ़ाते हैं और सोचते हैं कि भगवान खुश हो जाएगा!क्या भगवान को यह अच्छा लगेगा?
दो मिनट पहले जिस भगवान के सामने याची बनकर हाथ जोड़कर बहुत कुछ मांग रहे होते हैं चलते समय कुछ रुपये चढ़ाकर क्या उसे रिश्वत देने जैसा कार्य नहीं करते हैं? दिनभर पाप समान कृत्य करके लोगों को लूटते हैं और फिर भगवान पर कुछ रुपए और प्रसाद चढ़ाकर उम्मीद करते हैं कि भगवान सजा नहीं देगा?
यदि वास्तव में ही भगवान ऐसा करता है तो उससे बड़ा रिश्वतखोर कोई दूसरा नहीं हो सकता है!