बुद्ध के अनुयायियों को सत्ता क्यों सुहाने लगी?

दैनिक समाचार

— पुष्परंजन

वाशिंगटन डीसी स्थित पीईडब्ल्यू रिसर्च सेंटर की एक रिपोर्ट 2020 में आई, जिसमें दुनिया के 10 बौद्ध बहुल देशों का ब्योरा दिया गया था.

बुद्ध को मानने वाले सर्वाधिक कंबोडिया में 96.8 प्रतिशत लोग हैं. थाईलैंड में 92.6, म्यांमार में 79.8, भूटान में 74.7, श्रीलंका में 68.6, लाओस में 64 फीसद, मंगोलिया में 54.5, जापान में 33.2, सिंगापुर में 32.3 और दक्षिण कोरिया में 21.9 प्रतिशत बौद्ध रहते हैं.

इन दसियों देशों में बुद्ध ने कभी भ्रमण नहीं किया. बुद्ध जहां जन्में, आज के उस नेपाल में कुल जमा 10 फीसद बौद्ध मिलेंगे, और जिस भारत में उन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई, एक फीसद भी बौद्ध नहीं मिलेंगे. भारत में 0.7 प्रतिशत बौद्ध मतावलंबी रह गये हैं, यह सुनकर हैरानी होती है!

महाभिनिष्क्रमण से लेकर महापरिनिर्वाण तक, बुद्ध ने सत्ता से कोई संबंध नहीं रखा.

राजकुमार सिद्धार्थ को राजगद्दी संभालने के लिए पर्याप्त रूप प्रशिक्षित करवाया था राजा शुद्धोधन ने..भोग-विलास का पूरा प्रबंध. पत्नी यशोधरा और पुत्र मोह में भी नहीं बंध पाये सिद्धार्थ! सबकुछ त्यागकर तपस्या और ज्ञान की खोज में चल पड़े.

इतनी आसान सी बात को बुद्ध के सभी अनुयायियों ने क्या ग्रहण किया है?

कंबोडिया से ही शुरू करते हैं, जहां विश्व में सर्वाधिक 96.8 फीसद बौद्ध जनसंख्या है.

पहली सदी के फुनान राजाओं ने बौद्ध व हिंदू धर्म को एक साथ चलने दिया, जिससे मेकोंग डेल्टा में सियासी माहौल बना रहा. बाद के 802 से 1431 के ख़मेर साम्राज्य में बौद्ध मठों के समर्थन से सत्ता चलती रही.

उस ज़माने में एस्ट्रो-एशियाटिक भाषा और संस्कृति का सृजन हुआ. खमेर गणराज्य में जयवर्मन से सूर्यवर्मन जैसे राजा भी हुए.

अमेरिका के मेरीलैंड में वाल्टर्स आर्ट म्यूज़ियम में मैंने कंबोडियाई किंग जयवर्मन की बारहवीं सदी में निर्मित प्रतिमा देखी थी, जिन्हें ब्रह्मा के रूप में प्रस्तुत किया गया था. एक हाथ में चक्र लिये जयवर्मन की अष्टभुजाधारी कांस्य प्रतिमा, यह बता रही थी कि वो हिंदू राजा थे!

इसके बरक्स अंकोरवाट की वास्तुकला में राजा सूर्यवर्मन बौद्ध रूप में नुमायां हुए हैं.

पांचवी सदी में भारत से बौद्ध धर्म का प्रवेश कंबोडिया में होता है. सम्राट और साम्राज्ञियों की लंबी सूची देखिये, हिंदू मिलेंगे या फ़िर बौद्ध. जयवर्मन सप्तम (1181 से 1218) महायान मत को मानने वाले थे.

उनके समय कंबोडिया में बौद्ध धर्म को राजकीय मान्यता दी गई.

लगभग 800 वर्षों तक कंबोडिया में “थेरेवाद बौद्ध मत” उरूज पर रहा था, मगर इनके अच्छे दिनों का अंत 1975 से 1979 तक खमेर रूज़ के शासन में हुआ, जिसका नेतृत्व वामपंथी नेता पोल पॉट, लेंग सारी, सोन सेन और खिऊ सम्फान प्रकारांतर से कर रहे थे.

क़त्लेआम की वजह से बौद्ध मिक्षु हज़ारों की संख्या में कंबोडिया छोड़कर वियतनाम व थाईलैड भाग गये.

1979 में वियतनाम के समर्थन से हेंग सेमरिन कंबोडिया के राष्ट्रपति बने, उनके बाद से बौद्धों के अच्छे दिन वापिस हुए.

तीन साल तक राष्ट्रपति बनने के बाद से 21 मार्च 2006 को हेंग सेमरिन कंबोडिया के निचले सदन नेशनल असंेबली के अध्यक्ष बने.

हेंग सेमरिन को राजनीति में टिकाये रखने में बौद्ध घर्मगुरूओं की बड़ी भूमिका रही है.

कंबोडिया में जिस भी दल को सत्ता में रहना है, सबसे पहले उसे बौद्ध धर्म गुरू परम पावन तेप वोंग का आशीर्वाद प्राप्त करना होता है.

थेरेवादी लामा 90 साल के तेप वोंग को ‘संघराजा‘ बुलाते हैं. इसे विडंबना ही कहिए, शाक्य मुनि ने राजपाठ त्याग दिया, उनके अनुयायियों को राजा बनना पसंद है!

बाहर से आधुनिक दिखने वाले थाईलैंड की राजनीतिक रगों में भी बौद्ध धर्म तेज़ी से दौड़ता है. सत्ता में रहना है तो ‘संघम शरणम गच्छामि‘ का मंत्र थाई नेता जपते हैं.

किसी को सत्ता से बाहर करना है, तो बौद्ध धर्मगुरू ही इनके काम आते हैं.

यह सब देखते हुए 2017 के संविधान के अनुच्छेद 96 (चैप्टर सात) में यह स्पष्ट किया गया कि बौद्ध लामाओं को चुनाव में वोट देने का अधिकार नहीं है.

सोचिए कि क्या ऐसा भारतीय संविधान में संभव है कि जो साधु संत हो जाए, वो चुनाव लड़ना तो भूल जाए, वोट तक नहीं दे सकता!

11 नवंबर 2020 को बौद्ध धर्मगुरूओं की शासी निकाय ‘सुप्रीम संघ कौंसिल‘ की बैठक में प्रस्ताव पास हुआ कि बौद्ध भिक्षु और माई ची (भिक्षुणियां) विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा नहीं लेंगे.

ऐसा करने की वजह थाकसिन शिनवात्रा को सत्ता में आने से रोकना है.

19 सितंबर 2006 को थाकसिन शिनवात्रा प्रधानमंत्री पद से सेना द्वारा हटाये गये थे.

थाकसिन के विरूद्ध उन दिनों येलो शर्ट आंदोलन हुआ, जिसे मीडिया मुग़ल सोंघी लिमथोंगकुल, चामलोंग श्रीमुआंग का समर्थन था.

जनवरी 2011 के बाद यही येलो शर्ट आंदोलनकारी थाकसिन को माफी देने और देश वापसी की मांग पर दो हज़ार की संख्या में सड़क पर उतर आये थे.

विगत दस वर्षों में थाकसिन शिनवात्रा ने रेड शर्ट आंदोलनकारी भी तैयार किये. थाकसिन समर्थक प्रदर्शकारियों में बौद्ध लामाओं की संख्या अच्छी ख़ासी बताई जाती है.

सच यह है कि बौद्ध धर्मगुरू अपने मार्ग से पहले भी कई बार भटक चुके हैं.

1962 में संघ एक्ट थाईलैंड में आयद हुआ था, जिसमें राजा को धर्म प्रधान नियुक्त करने का अधिकार मिला.

1992 में थाई संसद में इस क़ानून को संशोधित कर यह तय किया गया कि संघ सुप्रीम कौंसिल की अनुशंसा और प्रधानमंत्री की सहमति के बाद धर्माधिपति नियुक्त किये जाएंगे.

सर्वोच्च घर्मगुरू सोमदेत छुआंग का मामला बड़ा विवादास्पद था, जिन्हें संघ की सुप्रीम कौंसिल द्वारा अनुशंसा के बाद भी नियुक्ति पर प्रधानमंत्री की मुहर नहीं लग पा रही थी. बौद्ध घर्मगुरू सोमदेत छुआंग ने अकूत धन इकट्ठा कर रखा था, मर्सडीज़ बेंज विदेश से मंगाकर वो और उलझ गये थे.

9 दिसंबर 2021 को 96 साल की उम्र में घर्मगुरू सोमदेत छुआंग की मृत्यु हो गई. मगर, थाईलैंड में बौद्ध घर्माचार्यों की सर्वोच्च संस्था, ‘संघ सुप्रीम कौंसिल‘ में वर्चस्व की लड़ाई थमती नहीं दिखती है.

सरकार को अपने आइने में उतारने, और करप्शन पर मिट्टी डालने के वास्ते बौद्ध धर्मगुरू कुछ भी कर जाने पर आमादा दिखते हैं.

मगर, जब हम म्यांमार की ओर झांकते हैं, बेशर्मी और बर्बरता में बहुत से बौद्ध धर्मगुरू एक दूसरे से होड़ लेते दिखते हैं. म्यांमार के सैन्य शासक मिन आंग हिलिंग विश्व में अपनी छवि सुधारने के वास्ते राजधानी न्येपी दो में पालथी मार कर बैठी विश्व में सबसे बड़ी बुद्ध प्रतिमा बना भर देने से सोचते हैं कि रोहिंग्या नरसंहार का पाप धुल जाएगा, ऐसा केवल भ्रम है.

मेखतिला, तातकोन, ग्योबिंगौक, मिन्हला नरसंहारों के अपराधियों को उकसाने में किन-किन बौद्ध धर्मगुरूओं के हाथ थे, इसकी ख़बरें वो छिपा नहीं पाये. क्रूरता के मामले में कुख्यात बौद्ध धर्मगुरू आशिन विराथु को जब सितंबर 2021 में म्यांमार की सेना ने रिहा किया, दिल्ली के जंतर-मंतर तक पर विरोध प्रदर्शन हुए.

विराथु वही धर्मगुरू है, जिसने सितंबर 2012 में तत्कालीन राष्ट्रपति थेन सेइन के समर्थन में मंडाले में बौद्ध लामाओं की रैली कराई थी, उसके कुछ माह बाद, 2013 में व्यापक दंगे कराये, जिसमें डेढ़ लाख लोग उजड़ गये.

इस कांड का अफसोसनाक पहलू यह है कि विराथु को ‘सन ऑफ बुद्धा‘ की उपाधि मिली!

यह कौन सी सोच वाला बौद्ध धर्म है? कोई समझा दे.

म्यांमार के सैन्य शासक मिन आंग हिलिंग जून 2021 में रूस गये. अपने साथ बौद्ध धर्मगुरू सितागू सायादो और कुछ अन्य भिक्षुओं को राजकीय यात्रा पर लेते गये. बहाना क्या था कि मास्को के उपनगर में थेरेवदा बौद्ध मठ के उदधाटन के वास्ते धर्मगुरूओं की टीम जा रही है.

9 सितंबर 2021 को प्रमुख दैनिक इरावदी ने एक दिलचस्प तस्वीर छापी थी. बौद्ध धर्मगुरू सितागू सायादो कुर्सी पर विराजे हुए, सामने ज़मीन पर सैन्य शासक की पत्नी बैठी हुई, और वो ख़ुद सेना के बड़े अधिकारियों के साथ लाइन में पीछे खड़े हुए.

म्यांमार में धर्म के आगे सेना भी नतमस्तक है, या फिर धर्मगुरू अपने कंधे को लोकतंत्र कुचलने के वास्ते इस्तेमाल करने दे रहे हैं, दोनों में से कुछ तो हैं, उस तस्वीर में!

बौद्ध धर्म की दो प्रमुख शाखाओं में पहला है महायान, जिसमें बुद्ध को पूजने की परंपरा है, और दूसरा है हीनयान, जिसे मानने वाले बुद्ध को देवता नहीं स्वीकार करते.

इसी हीनयान के गर्भ से निकला है थेरवाद, जिसका अर्थ है, ‘श्रेष्ठजनों की बात.‘

थेरवादी धर्मगुरूओं में राष्ट्रवाद को आगे बढ़ाने और सत्ता को अपने वश में करने का जुनून रहा है, यही समझने के वास्ते कंबोडिया, थाईलैंड, म्यांमार और श्रीलंका की चर्चा होनी ज़रूरी है.

ये ‘अहिंसा परमो धर्म” को खारिज़ करते हैं, उसके कई उदाहरण आपको श्रीलंका में भी मिलेंगे. तालदुवे सोमरामा थेवो का नाम आप किसी श्रीलंकाई से पूछिएगा वह तुरंत बताएगा कि उस हत्यारे बौद्ध भिक्षु ने 25 सितंबर 1959 को श्रीलंका के चौथे प्रधानमंत्री एसडब्ल्यूआरडी भंडारनायक के सीने में गोली दाग दी थी!

इस साजिश में सात और लोग पकड़े गये, उनमें से केलेनिया महाविहार के मुख्य धर्माधिकारी मपितिगमा बुद्धरखिता थेरो भी थे.

आपको ताज़ा दृश्य याद दिला दें, जब 20 अक्टूबर 2021 को कुशीनगर अंतरराष्ट्रीय एयरपोर्ट के उदधाटन के अवसर पर महिंदा राजपक्षे के पुत्र नमल राजपक्षे के साथ एक दर्जन श्रीलंकाई धर्मगुरू पधारे थे; तब जो बयान आये उसमें नवंबर 2019 के संसदीय चुनाव परिणाम के हवाले से ‘सिंहाला-बुद्धिस्ट राष्ट्रवाद‘ को जमकर बधारा गया था!

कोई पूछे, आज की तारीख़ मंे ये राष्ट्रवादी बौद्ध धर्मगुरू क्यों नहीं दिखते श्रीलंका की सड़कों पर?

आम चुनाव में राजपक्षे कुनबे को विजय दिलाने वाले बोडू बल सेना के नेता गलगोडा गणसारा अब कोई राष्ट्रवादी बयान नहीं दे रहे.

नाम क्या रखा है, ‘बोडू बल सेना‘ जिसका अर्थ है ‘बुद्धिस्ट पावर फोर्स‘!

क्या बुद्ध ने कभी कल्पना की थी कि उनके नाम एक प्राइवेट आर्मी श्रीलंका में बनेगी, जिसके भगवाधारी भिक्षुओं ने 14 अक्टूबर 2012, व जून 2014 के दंगों में कत्लेआम किया, और हज़ारों लोगों को उजाड़ दिया था!

(ईयू-एशिया न्यूज़ के नई दिल्ली संपादक)

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