शिक्षा प्रकाश का प्रमुख स्तंभ

शिक्षा

द्वारा : प्रतीक जे. चौरसिया

       प्राचीन काल में सभ्यता व संस्कृति को बनाने तथा इसमें परिवर्तन लाने में राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक कारकों की अपेक्षा धर्म अधिक प्रभावशाली था। प्राचीन भारत में भारतीय समाज में विचार का केंद्र बिंदु धार्मिक व्यवस्था के अनुरूप होती थी, जिसके परिणामस्वरूप शिक्षा भी इससे अछूत नहीं थी।

       वैदिक काल में वेदों पर आधारित धार्मिक, सामाजिक एवं शैक्षिक व्यवस्था था। प्राचीन भारतीय शिक्षा का आरंभ वेदों से माना जाता है। वेदों का ज्ञान आज भी भारतीय संस्कृतियों, प्रभावों एवं परम्पराओं में विद्यमान है। वैदिक काल में शिक्षा के लिए विद्या, ज्ञान प्रबोध तथा विनय आदि शब्दों का किया गया है। प्राचीन काल के गर्न्थों में अशिक्षित मनुष्य को पशु के समान आर्थात विद्या विहीन पशु कहा गया है। वैदिक काल में शिक्षा को प्रकाश का मुख्य स्त्रोत माना गया है।

            परन्तु भारतीय समाज के विकास और उसमें होने वाले परिवर्तनों की रूपरेखा में शिक्षा की जगह और उसकी भूमिका को भी निरंतर विकासशील पाते हैं। प्राचीन भारत में जिस शिक्षा व्यवस्था का निर्माण किया गया था, वह समकालीन विश्व की शिक्षा व्यवस्था से समुन्नत व उत्कृष्ट थी; लेकिन कालान्तर में भारतीय शिक्षा का व्यवस्था ह्रास हुआ।

            भारत आए विदेशियों ने यहाँ की शिक्षा व्यवस्था को उस अनुपात में विकसित नहीं किया, जिस अनुपात में होना चाहिये था। अपने संक्रमण काल में भारतीय शिक्षा को कई चुनौतियों व समस्याओं का सामना करना पड़ा। आज भी ये चुनौतियाँ व समस्याएँ हमारे सामने हैं। भारत को शिक्षा और रोजगार संबंधी क्षमता वाली प्रणाली को बुनियादी रूप से बदलने की जरुरत है।

            हालाँकि हमारे पास गुणवत्ता, मात्रा या संख्या और समग्रता विरोधाभासी जैसी परिस्थियाँ है। विश्व और वैश्विक स्तर पर काम की प्रवृतियों में बुनियादी बदलाव का मतलब है कि शिक्षा और रोजगार संबंधी क्षमता में भी बुनियादी बदलाव की जरुरत है।

            शिक्षा, रोजगार और रोजगार क्षमता को लेकर सरकार की नीतियों का प्रारूप शिक्षा की तरफ भागने की बजाय, गुणवत्ता युक्त शिक्षा प्रदान करने से भागने की रही है। साथ ही जिम्मेदारी लेने के बजाए दूसरों को दोषित ठहराने को लेकर रही है। इस सिलसिले में एक कवि की पंक्ति अत्यंत प्रासंगिक हैं: ‘उमर भर ग़ालिब यही भूल करता रहा, धुल चहरे पर थी और आईना साफ करता रहा’। हालाँकि भारत में शिक्षा को लेकर प्रत्येक बजट के पूर्व बजट प्रतिशत को बढ़ाने की मांग होती है और सकल घरेलू उत्पाद का 6 प्रतिशत हिस्सा देने पर विचार किया जाता है।

            भारत अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शिक्षा के क्षेत्र में प्रभावी तभी हो सकता है, जब इसकी गुणवत्ता बढाई जाए। हम उच्च-स्तर की शिक्षा की तरफ ध्यान देते हैं, अनुसंधान और खोज पर भी ध्यान देते हैं। इसी तरह यदि प्राथमिक और विशेष कर ग्रामीण क्षेत्र की शिक्षा की स्तर को बढ़ाने बढ़ाने पर बल दिया गया तो उसके परिणाम अच्छे आयेंगे। अगर शिक्षा ग्रामीण परिवेश के अनुरूप दी जाए तो ग्रामीण क्षेत्रों का विकास हो सकेगा और देश सामाजिक-आर्थिक रूप से संपन्न हो सकेगा।

            शिक्षा सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक बदलाव का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम है और समतामूलक समाज के निर्माण में इसकी अहम भूमिका होती है। 21वीं सदी में आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए सुशिक्षित नागरिक का सुसंगत ज्ञान, विचार और कौशल से युक्त होना अत्यंत आवश्यक है। भारत के लिए यह तो और अत्यंत आवश्यक है, जहाँ 10 से 24 आयु वर्ग के लोगों की संख्या दुनिया में सबसे अधिक है। यही वे लोग हैं, जो देश की बुनियाद रखते हैं। इतना ही नहीं, भारत की 70 प्रतिशत जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, इसलिए शिक्षा संबंधी किसी भी नीति का केंद्र बिंदु ग्रामीण क्षेत्रों को बनाना चाहिए। 

            राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के लागू होने के बाद से अब तक भारत में प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के विकास के लिए अनेक कार्यक्रम प्रारंभ किए गए हैं। 1980 और 1990 के दशकों में प्राथमिक शिक्षा के सुधार के क्षेत्र में, ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड, शिक्षाकर्मी परियोजन, आंध्र प्रदेश प्रथामिक शिक्षा परियोजना, बिहार शिक्षा परियोजना, उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परियोजना, जुंबिश परियोजना, जिला प्राथमिक शिक्षा परियोजना और सर्व शिक्षा अभियान आदि योजनाएं प्रारंभ की गई है। सर्व शिक्षा अभियान देशभर में प्राथमिक शिक्षा को सर्वसुलभ बनाने के लिए राज्य सरकारों की भागीदारी से संचालित और केंद्र द्वारा प्रायोजित एक प्रमुख कार्यक्रम है।

            वर्ष 2009 में बच्चों के निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार संबंधी अधिनियम के पारित होने से सर्व शिक्षा अभियान को अधिक बल मिला। यह अधिनियम 1 अप्रैल 2010 से लागू हुआ और इससे देश में 14 वर्ष तक के आयु के बच्चे को निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा प्राप्त करने का क़ानूनी अधिकार प्राप्त हो गया।

            भारतीय संविधान के 86वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम 2002 के तहत संविधान में अनुच्छेद 21क जोड़ा गया और इस अनुच्छेद के अंतर्गत 6 से 14 वर्ष के आयु के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया। यह संशोधन सर्व शिक्षा के लक्ष्य में एक मील का पठार साबित हुआ। इस संशोधन के पूर्व भी संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 45 में बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था थी; तथापि निदेशक सिद्धांत होने के कारण यह न्यायालय द्वारा जरुरी नहीं ठहराया जा सकता था। इसके साथ ही मूल कर्त्तव्य के अनुच्छेद 51क में वर्णित किया गया है कि प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य होगा कि वह 6 से 14 वर्ष तक के अपने बच्चों को शिक्षा का अधिकार प्रदान कराएगा।

            शिक्षित समाज किसी राष्ट्र के विकास की अनिवार्य पूर्व-शर्त है। जैसे-जैसे नौजवान भारत की प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हो रहे है भावी पीढ़ी के लिए उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा के माध्यम से एक मजबूत बुनियाद रखे जाने की जरुरत है। सरकार द्वारा की गई विभिन्न पहल निश्चय ही ग्रामीण भारत को अधिकार संपन्न बनाने के लिए सही दिशा में महत्वपूर्ण कदम है।

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