पुष्पा गुप्ता
संघ और बीजेपी के लोग कह रहे हैं- मुसलमानों ने सैकड़ों साल में हिन्दू धर्म का जितना नुकसान पहुंचाया है, उन सबका हिसाब लेंगे और हिन्दू अस्मिता को वापस लाएंगे, चाहे जितनी मस्जिदें तोड़नी पड़े, जितने मजार उखाड़ने हों, जितने स्मारक ध्वस्त करने पड़ें, जितनी सड़कों- भवनों के नाम बदलने हों, सब करेंगे गुलामी का एक प्रतीक नहीं छोड़ेंगे। हालांकि ये सब समाज में जबरन वैमन्यस्यता खड़ी करने का घटिया प्रयास है। गौरव निर्माण से बनता है, विध्वंस से नहीं।
गांधी-नेहरू ने निर्माण में ही गौरव समझा था, इसलिए विवादों और दुश्मनी के भाव को दफन कर आजादी के दिन से ही निर्माण और भाईचारे -प्रेम का मार्ग चुना था। संघ को तब बदला लेने का मौका नहीं मिला था। आजादी के 70 साल बाद मौका मिला है।
सत्ता पर कब्जा उनके पोषित पुत्रों का है। इसलिए हर कोने से सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने वाला खेल शुरू किया जा रहा है। संघ को लग रहा है वह इस तरह भारत वर्ष को हिन्दू राष्ट्र बना देगा और उसके पिताओं का स्वप्न पूरा होगा।
पिताओं के स्वप्न पूरा करना बेशक पुत्रों का धर्म होना चाहिए, लेकिन पिता दुश्मनी और बदले का स्वप्न देकर जाए, तो उसे पूरा करना लायक पुत्रों का धर्म नहीं हो सकता। धर्म हमेशा सत्य और प्रेम की डगर पर चलता है। जो धर्म हमें सत्य और प्रेम की राह से दूर ले जाए, वो धर्म नहीं, कुंठाओं का नाला है। कुंठायें महाभारत करा सकती हैं- सर्वनाश करा सकती हैं।
कौरव वंश कुंठा में ही खत्म हुए। राम कैकेयी की कुंठा की वजह से बनवास गए, रावण कुंठा ही वजह से ही सीता को हरकर लंका ले गया और सर्वनाश साथ गया।
विडंबना ये है संघ हिन्दू धर्म और भारतीय आख्यानों का प्रवक्ता होने का दावा तो करता है, लेकिन वह धर्म को कितना समझता है और समाज को किस दिशा में ले जाना चाहता है, यह उसके कृत्यों से स्पष्ट हो जाता है। कौरव, कैकेयी और रावण हमारे हिन्दू धर्म के नायक नहीं हैं, ये विलेन माने गए, विडंबना है संघ उनके जैसा ही व्यवहार कर रहा है और उनके जैसे सपनों को ही पूरा करना चाहता है।
मान लीजिए संघ ने भारत को हिन्दू राष्ट्र बना लिया, सारे मुसलमानों और ईसाइयों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया, लेकिन उन हिंदुओं का क्या करेंगे जो आदिवासी हैं, दलित हैं, पिछड़े हैं? क्या मनुस्मृति को भी बदलेंगे और कहेंगे कि कोई जाति ऊंची और नीची नहीं है? या क्या सभी ब्राह्मण हो जाएंगे ?
संघ यहाँ मौन है। मौन है ये इस बात से भी पता चलता है कि जब ऊंची जाति के लोग दलितों को मंदिर में घुसने या घोड़ी पर चढ़ने के आरोप में मार देते हैं, तब संघ के लोग चुप्पी साध जाते हैं। संघ इस बात पर भी चुप है कि अगर दलित सैकड़ो हज़ारों सालों के अत्याचार का हिसाब मांगेंगे तो क्या होगा? दलितों के पूर्वजों के साथ हुए अत्याचार की भरपाई कैसे करेगा संघ?
क्या जैसे पीढ़ियों दलितों को ऊंची जातियों द्वारा मारा पीटा गया, उसका बदला दलित ऊंची जातियों की आने वाली पीढ़ियों को पीट पीट कर लेंगे? क्या अब दलितों को शासन करने का अधिकार देगा संघ कि हजारों साल ब्राह्मणों राजपूतों ने शासन किए, अब कुछ सौ साल सिर्फ दलित ही शासन में होंगे?
संघ का दोगलापन हर वक़्त जाहिर होता है। हिन्दू धर्म की आलोचना करने वाले को तो देशद्रोही और हिन्दू धर्म का दुश्मन करार देता है, लेकिन अंबेडकर की मूर्तियों के तलवे चाटता है। संविधान की तो धज्जियां उड़ाता है, लेकिन अंबेडकर की जय बोलता है। क्यों ?
क्योंकि उसे मुसलमानों से निबटने के लिए दलितों का साथ चाहिए। संघ को पता है कि अगर दलित मुस्लिम गठजोड़ बन गया तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। हालांकि संघ को यह भी पता है कि दलित- मुस्लिम गठजोड़ संभव नहीं है। दलितों के मसीहा अंबेडकर भी मुसलमानों के विरोधी थे। यही वजह है कि दलित राजनीति का सबसे बड़ा चेहरा मायावती भी संघ के अंगोछे में समा गई।
पासवान, आठवले बीजेपी की जय करने में लगे हैं। राष्ट्रपति खुश हैं कि संघ ने उन्हें शिखर पर बिठा दिया, बाकी देश में दलितों की दशा भले बदतर है। वे कुछ दिन पहले ही यह सवाल उठा चुके हैं कि न्यायालय में दलितों की उपस्थिति बेहद कम है। लेकिन ये कहने भर से क्या होता है? क्या राष्ट्रपति ने कोई कोशिश की कि दलित आगे आयें?
संघ का एजेंडा देश के नागरिकों को समझना होगा। संविधान ही सबको बचा सकता है। और संघ जो संविधान की धज्जियां उड़ाकर मुसलमानों से बदला लेने का दुष्चक्र रच रहा है, उससे निबटना होगा। रोकना होगा।
ये सवाल पूछना होगा कि दलितों के गौरव को जो हजारों साल से लेकर आजतक रौंदा जा रहा है उसका क्या ? क्या उसका भी हिसाब किया जाएगा?
[चेतना विकास मिशन]