पिछले दिनों रेल मंत्री अश्विनी वैष्णव ने रेलवे को बेचने के इल्ज़ामों का जवाब देते हुए कहा कि सरकार का रेलवे का निजीकरण करने का कोई इरादा नहीं है। पिछले साल पीयूष गोयल जो उस समय रेल मंत्री था, का भी ऐसा बयान आया था कि रेलवे भारत सरकार के लिए बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र है और सरकार इसका निजीकरण नहीं करेगी। इस लेख का मक़सद इन बयानों की जाँच पड़ताल करके यह जानना है कि हमारे “माननीय” मंत्री जी पर, रेलवे को बेचने जैसे “बेबुनियाद” इलज़ाम क्यों लगाए जा रहे हैं। निजीकरण की बात करें तो यह बात किसी से भी छिपी हुई नहीं है कि भारतीय जनता पार्टी जब से सत्ता में आई है, इसने निजीकरण के रथ को और तेज़ किया है। सरकारी संस्थानों को घाटे का सौदा बताकर सस्ते दामों में धड़ाधड़ धनवानों को बेचा जा रहा है।
रेलवे का क्षेत्र भी सरकार के इस “पूँजीपतियों की सेवा करो” अभियान का हिस्सा बन चुका है। सरकार की रेल नीतियों पर नज़र डालें, तो पता चलता है कि पिछले समय में रेलवे के बहुत सारे काम निजी कंपनियों से ठेके पर करवाए जा रहे हैं। जैसे स्टेशनों की सफ़ाई, भुगतान और उपयोग, पाखानों, आराम कमरों, पार्किंग, प्लेटफ़ार्म का रखरखाव आदि-आदि सेवाएँ निजी कंपनियों को सौंपी गई हैं। पर इन नीतियों के ख़िलाफ़ समय-समय पर सरकार को देश के बड़े तबक़े से आलोचना और जनाक्रोश का सामना करना पड़ा है। इसलिए लोगों की आवाज़ से डरते हुए सरकार निजीकरण के नए-नए तरीक़े ढूँढ़ती है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमन ने अगस्त महीने में राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन की घोषणा की। इसके अधीन सरकार 2022 से 2025 के बीच दर्जनों सरकारी विभागों के अंतर्गत आने वाली जायदादों को निजी कंपनियों को ठेके पर देकर 6 लाख करोड़ से भी ज़्यादा मुद्रा इकट्ठा करेगी। इसमें आने वाले क्षेत्र हैं – सड़कें (27%), रेलवे (25%), बिजली पैदावार (15%), क़ुदरती गैस और पाइपलाइन (8%), दूर संचार (6%) आदि।
रेलवे द्वारा इस नीति के अधीन 1,52,496 करोड़ रुपए कमाने का लक्ष्य रखा गया है, जिसके अधीन 400 रेलवे स्टेशन, 90 मुसाफ़िऱ गाड़ियाँ 265 रेलवे शेड, 15 रेलवे स्टेडियम और कुछ चुनिंदा कॉलोनियाँ निजी मालिकों को ठेके पर दी जाएँगी। चाहे इस नीति का ऐलान 2021 में हुआ था, पर इसको 2016 से ही लागू किया जा रहा है। साल 2017 में 400 रेलवे स्टेशनों को 45 सालों के लिए ठेके पर देने के लिए मंज़ूरी दे दी गई है। यह और कुछ नहीं, बल्कि इन संस्थानों का आंशिक निजीकरण है, जिससे आगे बढ़कर आने वाले समय में इनका पूरी तरह से निजीकरण किया जाएगा। सरकार लगातार अलग-अलग नामों तले निजीकरण पर तुली हुई है कभी सार्वजनिक-निजी साझेदारी के नाम पर किया जाता है और अब मुद्रीकरण के नाम पर किया जा रहा है। पहले भी सरकार का यह तर्क था कि निजी हाथों में जाने के बाद इन क्षेत्रों का विकास होगा, रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे। लेकिन हुआ इससे बिलकुल उलट, रोज़गार बड़े स्तर पर कम हुआ, कामगारों की आर्थिक सुरक्षा कम हुई, और नए श्रम क़ानूनों के तहत मज़दूर-विरोधी संशोधन करते हुए कामगारों के बचे-खुचे अधिकारों पर भी हमला किया गया। एक तरफ़ सरकार लोगों से सरकारी सुविधाएँ छीन रही है, दूसरी तरफ़ ठेके पर भर्तियाँ हो रही हैं। जिससे रोज़गार का संकट भी खड़ा हो गया है।
दूसरी तरफ़ गोदी मीडिया, जिसका काम ही अब सरकार की हर नीति के पक्ष में विचारधारात्मक आधार तैयार करना है, लगातार इस नीति के पक्ष में दलीलें पेश करता नहीं थकता। इसकी तरफ़ से दो मुख्य तर्क, जो लोगों के मनों में बसाए गए हैं, वे हैं :
1) बिना सरकारी जायदादों की मालिकी गवाए यह सरकार को पैसे कमाने में मदद करेगा, जिससे सरकार नुक़सान झेल रहे इन सरकारी संस्थानों की मदद कर सकती है।
2) निजी कंपनियाँ सरकारी संस्थानों से अधिक कुशल और उपजाऊ होने के कारण इन संपतियों का बेहतर इस्तेमाल कर सकती है।
आइए एक-एक करके देखें कि ये तर्क कितने सही हैं।
पहले तर्क की बात करें तो यह बात आम सुनने को मिलती है कि भारतीय रेल के नुक़सान में चलने का बड़ा कारण इसका सस्ता होना है, क्योंकि मुसाफ़ि़र गाड़ियों के किराए पर सरकार लागत का सिर्फ़ 57% वसूलती है। इसलिए इस संस्थान को नुक़सान से निकालने के लिए यह संस्थान के लिए मददगार साबित होगा। लेकिन यह बात प्रचारित करने वाले लोग इस तथ्य को भूल जाते हैं कि सरकार का काम मुनाफ़ा कमाना नहीं, बल्कि लोगों की सेवा करना है और उनको सुविधाएँ मुहैया करवाना है।
वैसे भी सरकार टैक्स के रूप में लोगों से करोड़ों रुपए वसूलती है, जिसका मक़सद लोगों को संचार, शिक्षा, सेहत जैसी सुविधाएँ मुहैया करवाना होना चाहिए। पर मीडिया हमेशा सरकार के चरित्र पर सवाल उठाने की बजाए लोगों को ही मुफ़्तखोर बताकर कलंकित करता है। यह बात भी स्पष्ट है कि यह पूँजीपति जब भी बुनियादी ढाँचे पर ख़र्च करने की बारी आती है तो बहुत बार पीछे हट जाते हैं, क्योंकि इस क्षेत्र में मुनाफ़े बहुत लंबे समय बाद मिलने शुरू होते हैं। पूँजीपति उन क्षेत्रों में ही निवेश करने को पहल देते हैं, जहाँ से जल्दी से जल्दी ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमाया जा सके। पर रेलवे बुनियादी क्षेत्र होने की वजह से सरकार इस पर निवेश करती है। अब इन धनवानों से पैसे लेकर इस ढाँचे को इस्तेमाल करने की मंजूरी देने का सीधा-सीधा मतलब है कि इस ढाँचे को बनाने और देख-रेख का सारा बोझ सरकार यानी आम लोगों के कंधों पर आएगा और ये धनवान, लोगों के सर पर चढ़कर मोटे मुनाफ़े लूटेंगे।
दूसरे तर्क की बात करें तो यह विचार कि ‘निजी मालिकी वाले संस्थान सरकारी संस्थानों से बेहतर होते हैं’ भी समाज के पोर-पोर में बसा हुआ है या यह कहना सही होगा कि शासक वर्ग के लगातार प्रचार द्वारा बसाया गया है। असल में जिस कुशलता की बात की जाती है, वो कुछ नहीं, बल्कि इन संस्थानों के मज़दूरों और कर्मचारियों की ज़ालिम और बर्बर लूट होती है। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि निजी कंपनियाँ कैसे श्रम क़ानूनों की धज्जियाँ उड़ाकर अपने कर्मचारियों से नाममात्र की तनख़्वाहों पर कितने-कितने घंटे काम करवाती हैं, ना ही रोज़गार की सुरक्षा ना ही कोई और सुविधा उन्हें दी जाती है। इसीलिए बहुत से नौजवानों का सपना भी हमेशा निजी क्षेत्र की जगह सरकारी क्षेत्र में नौकरी लेने का ही होता है। दूसरी तरफ़ इनकी कुशलता का बड़ा राज़ यह भी है कि ये कंपनियाँ अपनी सेवाएँ और जिंसों के ऐसे भाव वसूलती हैं, जिनसे ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा हो सके।
रेलवे के मामले में मुनाफ़े को केंद्र में रखने वाली ‘कुशलता’ के साथ देश की आबादी का बड़ा हिस्सा बड़ी कुशलता के साथ रेल सेवाओं से ही वंचित हो जाएगा। इस मुनाफ़ा आधारित ढाँचे की नैतिकता सिर्फ़ और सिर्फ़ मुनाफ़ा कमाना है, इसकी कुशलता भी मुनाफ़े से नापी जाती है ना कि इससे कि आबादी के कितने बड़े हिस्से को कोई सेवा उपलब्ध करवाई जा सकी। बाक़ी अगर नफे़ नुक़सान से ही कुशलता नापनी है, तो सरकारी संस्थानों से कई गुना ज़्यादा निजी संस्थान घाटे में जाते हैं और बंद होते हैं और देश के बड़े से बड़े पूँजीपतियों के सिर भी सैकड़ो करोड़ों का क़र्ज़ है। वास्तव में कुशलता का जो भी पैमाना हमारे ऊपर थोपने की कोशिश की जा रही है, वो पूँजीपतियों को लाभ पहुँचाता है पर देश की बहुसंख्यक मेहनतकश जनता के लिए यह बड़ी बदहाली की दस्तक है।
अंत में…
साल 1991 में उस समय वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने भारत में संसारीकरण-उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों की शुरुआत की थी। पिछले 3 दशकों के दौरान केंद्र और राज्यों में रही पार्टियों की सरकारों ने पूँजीपतियों को सार्वजनिक संस्थानों को इस्तेमाल करके बेहिसाब मुनाफ़ा कमाने और फिर इन संस्थानों को ही हड़प लेने में पूँजीपतियों की मदद की है, पर हिंदू सांप्रदायिक फ़ाशीवादी पार्टी भाजपा की सरकार इस खेल को बेशर्म ढंग से खेल रही है। बजट के घाटे को पूरा करने के लिए पूँजीपतियों पर टैक्स बढ़ाने की बजाय सरकार मेहनतकश लोगों पर तरह-तरह के टैक्स बढ़ा कर, सुविधाएँ वापिस लेकर, सार्वजनिक संस्थानों को बेचने के रास्ते पर निकली हुई है। निजीकरण की नीति के कारण जहाँ देशी-विदेशी पूँजीपतियों ने बेहिसाब धन-दौलत हासिल की है, वहाँ बड़े स्तर पर मेहनतकशों को रोज़गार से हाथ धोना पड़ा है, नए रोज़गार पैदा होने की जगह रोज़गार में कमी आई है, ग़रीब लोगों को सरकारी सुविधाओं से हाथ धोना पड़ा है, लोगों की ज़िंदगी और बदतर हुई है। जनाक्रोश को शांत करने के लिए, लोगों का ध्यान इस मुद्दे से हटाने के लिए सांप्रदायिकता की आंधी चलाई गई है, लोक-ताक़त को कुचलने के लिए जालिम सत्ता के दाँत और तीखे किए गए हैं। इसके बारे में कोई भ्रम नहीं रह गया है कि निजीकरण की नीति जनविरोधी है और इसका डटकर ज़ोरदार विरोध किया जाना चाहिए। यह आज के समय की ज़रूरत है कि हर क्षेत्र की मेहनतकश जनता संगठित हो और इन जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ संघर्ष करें।
– सिमरन
मुक्ति संग्राम – बुलेटिन 18 ♦ मई 2022 में प्रकाशित