क्लास और कास्ट की आपसी अंतरक्रिया बहुत जटिल है. किसी एक छोर से देखने पर तस्वीर अधूरी और भ्रामक दिखने की पूरी आशंका रहती है. कास्ट ग्रुप का क्लास में तब्दील हो जाना और क्लास ग्रुप का कास्ट असर्शन अजीब अप्रत्याशित परिघटनाएं हैं जिनकी पहचान एकबारगी कर पाना मुश्किल होता है.
इसलिए किसी घटना विशेष के संदर्भ में कोई सामान्य निष्कर्ष बहुत भ्रामक साबित हो सकता है.
बुनियादी मूल्यों को लेकर अपना खूंटा अगर सही जगह गड़ा हो, तो ऐसे निष्कर्षों पर संदेह होना स्वाभाविक है.
तात्कालिक संदर्भ दिल्ली यूनिवर्सिटी के शिक्षक रतन लाल के ऊपर हुआ केस है, जिसमें चौबीस घंटे के भीतर एक ट्विटर स्टॉर्म खड़ा हुआ और कोर्ट से उन्हें जमानत मिल गई.
उधर बंबई में पूर्व पत्रकार और फिल्मकार अविनाश दास हैं जो गिरफ्तारी की तलवार का वार जोह रहे हैं. दोनों अपने जानने वाले हैं.
अविनाश थोड़ा पुराने, रतन लाल थोड़ा नए. दोनों के साथ बराबर गलत हुआ है. दोनों ही घटनाएं लोकतंत्र के हित में नहीं हैं.
कल दिलीप मंडल ने बहुत सही लिखा था:
‘जो हुआ सो हुआ. अब एक ज़रूरी बात. प्रोफ़ेसर रतन लाल से जिन्हें मतभेद है, वह सब ठीक है. लोकतंत्र में मतभेद ज़रूरी है. लेकिन पिछले तीन दिनों में जिन लोगों ने उन्हें लेकर जातिवादी या नस्लवादी टिप्पणियाँ की हैं, वे डिलीट बटन का इस्तेमाल कर लें. ये “लोकतंत्र के लिए अच्छा कदम” होगा.’
दिलीप जी के यहाँ से जब लोकतंत्र की आवाज आई तो मुझे 2017 की जनवरी में उनकी लिखी एक पोस्ट याद आ गई. उस समय बेला भाटिया के खिलाफ बस्तर में एक केस हुआ था, तब दिलीप मण्डल ने ये लिखा था:
“और अब बेला भाटिया बचाओ. इससे पहले नंदिनी सुंदर बचाओ. उससे पहले जेएनयू बचाओ. संदीप पांडे बचाओ..कन्हैया बचाओ. NDTV बचाओ. विनायक सेन बचाओ.
आप इन्हें बचाएँगे? आपकी औक़ात क्या है? इनके सामाजिक जातीय नेटवर्क का आपको अंदाज़ा है? इनके लोग कहाँ नहीं हैं? इनका कभी कुछ बिगड़ा है? लक्ष्मणपुर बाथे करके ये कोर्ट से बेदाग़ छूटने वाले लोग है. कॉमनवेल्थ घोटाला करके साफ़ निकल गए. इन्हें आप बचाएँगे? अपनी सूरत देखी है कभी आईने में?”
बेशक यह अपने अनुयायियों को संबोधित पोस्ट है, लेकिन जिस ‘सामाजिक जातीय नेटवर्क’ की बात यहां कही गई है, वह इस देश में आंशिक रूप से एक हकीकत है.
सत्ता प्रतिष्ठान के भीतर कहीं क्लास काम करता है, कहीं कास्ट, तो कहीं दोनों. कभी-कभी दोनों मिलकर भी काम नहीं करते.
भीमा कोरेगाँव केस में बंद पत्रकार गौतम नवलखा उपयुक्त उदाहरण हैं, जहां क्लास (जो खानदानी है, उदारीकरण का फल नहीं) और कास्ट दोनों का प्रिविलेज काम नहीं आया.
यही डबल प्रिविलेज तीस्ता सीतलवाड़ के मामले में तत्काल काम आया था, जब कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट की कार्रवाई को रुकवाकर उनके यहाँ पड़े छापे पर रियल टाइम में स्टे ले लिया था.
रतन लाल की भी जमानत उनकी कास्ट प्रोफाइल के मद्देनजर सामान्य अपेक्षा से बहुत जल्द हुई.
जाहिर है, जज लोग ट्विटर स्टॉर्म से प्रभावित होकर तो फैसले देते नहीं हैं. निश्चित तौर पर उनका वकील सक्षम रहा होगा, बाकी दिल्ली में एसोसिएट प्रोफेसर होना एक रसूख की बात तो है ही.
इसके उलट अविनाश दास को देख लीजिए. कास्ट और क्लास दोनों का लाभ उन्हें है, लेकिन नौ दिन हो गया एफआइआर को, बमुश्किल पांच लोगों ने पोस्ट लिखी है!
कहां तो बंबई में स्टॉर्म आ जाना चाहिए था, यहाँ ट्विटर पर भी सन्नाटा है!
शायद रतन लाल के लिए तूफान उठाने वालों ने दिलीप जी का कहा मान लिया होगा कि इनका तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, ये तो ‘सामाजिक जातीय नेटवर्क’ वाले हैं.
दिलीप जी जिस नेटवर्क की बात कहते हैं बेला भाटिया इत्यादि के संदर्भ में, उसके मुताबिक रतन लाल के केस में जाति एक नेगेटिव पक्ष था.
इस नेगेटिव पक्ष के बावजूद उनकी तुरंत ज़मानत हुई लेकिन इसी जातिगत प्रोफाइल और कहीं बेहतर क्लास प्रोफाइल वाले आनंद तेलतुंबडे जेल में सड़ रहे हैं!
आप कह सकते हैं कि दोनों मामलों में आरोपों और धाराओं की गंभीरता का फर्क है, लेकिन दिलीप जी का खूंटा सत्ता प्रतिष्ठान में ‘सामाजिक जातीय नेटवर्क’ था. यानी क्लास और कास्ट प्रोफाइल के हिसाब से आरोपितों को देखकर 2017 में उनके समर्थन या विरोध को तय किया जा रहा था- मूलतः कास्ट ही, जिसने क्लास प्रिविलेज पैदा किया.
तो क्या इस तर्क से हम भी यह मान लें कि रतन लाल का केस शहरी शिक्षित दलितों के बदलते क्लास प्रोफाइल की नजीर है और इनका भी ‘सामाजिक जातीय नेटवर्क’ अब इतना तगड़ा हो चुका है कि हम जैसे अभागों (क्लास और कास्ट दोनों के लिहाज से, चूंकि क्लास प्रिविलेज है नहीं और कास्ट जन्मना शोषक वाली है) की कोई औकात नहीं है रतन लाल या रविकांत जैसों के मामले में बोलने की?
अपनी सूरत आईने में देखने पर ऐसा ही लगना चाहिए मुझे भी! और निश्चिंत हो जाना चाहिए कि आगे से कोई शहरी शिक्षित अपवर्डली मोबाइल दलित पिछड़ा पकड़ा जाए तो मैं ये सोच कर चैन से बैठ जाऊं कि इनके लोग तो हर जगह हैं और इनका कुछ नहीं बिगड़ेगा!
जैसे दिलीप मंडल बेला भाटिया, बिनायक सेन आदि के मामले में खुद बैठ गए थे और अपने लाखों अनुयायियों को भी बैठने को कह रहे थे?
ये तो रिएक्शन होगा!
मुझे नहीं लगता कि ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचना रैशनल पद्धति होगी. ये सरासर गलत बात है.
सवाल किसी बोलने वाले की औकात का और पीड़ित के नेटवर्क का नहीं, बल्कि न्याय और लोकतंत्र के तकाजे का है कि आदमी किसी के साथ भी अन्याय होने पर बोलता है.
आपका खूंटा यदि बुनियादी संवैधानिक मूल्यों पर टिका है- आजादी, भाईचारा, इंसाफ और बराबरी- तो आप हर एक के लिए बोलेंगे.
बेशक हमारे-आपके स्वर में केस दर केस तीव्रता का फ़र्क हो सकता है क्योंकि हर केस की नैतिक अपील बराबर नहीं होती.
अविनाश द्वारा इंस्टा पर पोस्ट की हुई जिस तस्वीर पर केस हुआ है या रतन लाल के जिस वाक्य पर, दोनों के कंटेन्ट का बचाव नैतिक दृष्टि से नहीं किया जा सकता लेकिन दोनों पर केस और गिरफ्तारी का विरोध जरूर किया जाना चाहिए क्योंकि यह लोकतंत्र का तकाजा है.
इसी तरह रतन लाल को उल्टा सीधा लिखने वालों को भी लताड़ा जाना चाहिए.
जिन्हें ऐन केस के मौके पर रतन लाल से असहमति थी उनके पास उस वक्त चुप रहने का विकल्प भी था, जरूरी नहीं कि मौत के दिन ही किसी को गाली दी जाय.
बिलकुल इसी तर्ज पर पांच साल पुराना दिलीप मंडल का विभाजनकारी स्टेटस भी भर्त्सना के योग्य माना जाना चाहिए.
अब पता नहीं यह कथित ‘सामाजिक जातीय नेटवर्क’ वालों की सहिष्णुता है या भीड़ का भय, कि कोई उस समय खुलकर दिलीप जी से लोकतंत्र के हित में यह क्यों नहीं बोल पाया कि आपके बेला भाटिया आदि से मतभेद हैं तो ठीक है, लेकिन वो वाली पोस्ट डिलीट कर दीजिए महाराज- ‘लोकतंत्र के लिए अच्छा कदम होगा’!
और आज वही दिलीप जी दूसरों से पोस्ट डिलीट करने की अपील कर रहे हैं, तो किस नैतिक बल से?
क्या सामूहिक स्मृति वाकई इतनी कमजोर है कि उन्हें इस बात की बिल्कुल आश्वस्ति है कि किसी और की गिरफ़्तारी पर उन्होंने जो कहा था वो भुला दिया जाएगा?
समाज में बहुत जहर पहले से घुला है। अब और जहर मत घोलिए। बोलना है तो सबके लिए बोलिए। और गैर-जिम्मेदारियों का अहसास भी दिलाइए उन्हें, जो हल्के कृत्यों की वजह से धरा जा रहे हैं। इतिहासकार से कहिए सही इतिहास बांचे। फिल्मकार से कहिए अच्छी फिल्म बनावे। पत्रकार को बोलिए सही तथ्य रखे। लेखक को बोलिए प्रेरणा देने वाला गद्य-पद्य लिखे। सब अपना-अपना काम सही ढंग से करें तो सामूहिक प्रतिरोध की गुंजाइश बन सकती है। गाली-गलौज करना, लिहाड़ी लेना, अश्लील शब्द लिखना, ये सब अभिव्यक्ति के संकटग्रस्त होने के संकेत हैं। नहीं समझ आ रहा है क्या लिखें तो मत लिखिए। अनावश्यक लिखेंगे तो आपको बचाने का कोई नैतिक आधार किसी के पास नहीं होगा, बस पॉलिटिकल कंपल्शन होगी। ऐसे में सबको पता होता है कि किसी की कोई औकात नहीं है स्टेट के सामने, फिर भी आदमी बोलता है क्योंकि और कोई विकल्प नहीं। ऐसी घुटी हुई आवाज़ें बदलाव नहीं लाती हैं, बस औपचारिकता बरत कर निकल लेती हैं! आजकल यही हो रहा है। नैतिक अपील से वंचित कुकृत्यों का आइडेंटिटी के आधार पर औपचारिक बचाव और इस बचाव को सत्ता का प्रतिरोध बताने की झूठी कवायद!
फिलहाल, रतन लाल जी को शुभकामनाएं जमानत की। उनके बौद्ध बनने की भी अग्रिम शुभकामनाएं। अब भी समय है। अविनाश दास के लिए बोलिए, लिखिए। बंबई जाने से पहले अविनाश ने मोहल्ला से और उससे पहले बिहार में अपनी पत्रकारिता से जितना और जो भी सामाजिक हस्तक्षेप किया था, उसे भूलिएगा नहीं। हर किसी की सांस इसी हवा में शामिल है, अब भी। हवा एक ही है। सांस आगे भी लेनी है। हवाओं को मत बाँटिए!