विडंबना है कि ओबीसी आंदोलन का मक़सद अब केवल आरक्षण लागू करवाने तक रह गया है। जरा विचार कीजिए, जब देश का अर्थतंत्र ही पूंजीपतियों के हिसाब से संचालित होगा तब न तो श्रमकानून के दायरे में कोई रोज़गार बचेगा और न ही उद्योग धंधे बचेंगे। शिक्षा व स्वास्थ्य व्यवस्था का संचालन केवल पूंजीपतियों के हक में होगा। जब देश के तमाम कल- कारखाने, सड़कें, रेलें, जहाजरानी, और मानव श्रम के अतिरिक्त उत्पादन के तमाम संसाधनों पर पूंजीपतियों का कब्जा होगा तब उनका ध्यान केवल मुनाफों पर होगा। आम लोगों के लिए स्थायी नौकरियों के रास्ते पूरी तरह बंद हो जाएंगे तब कोई आरक्षण भी काम नहीं आएगा। लोग तमाम तरह की शिक्षाओं से वंचित होकर सब के सब बंधुआ मजदूर की स्थिति में होंगे।
ओबीसी के लिए 27 नहीं, 30% आरक्षण होनी चाहिए, बल्कि जिसकी जितनी संख्या, उसके लिए समानुपातिक रूप से आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। लेकिन इसका फायदा मिलना तभी संभव होगा जब देश की अर्थव्यवस्था आम लोगों के हक में होगी, जब देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट पर रोक लगेगी, जब शिक्षा और स्वास्थ्य आम जनता के पक्ष में होंगे और जब देश के उद्योग धंधे या कल-कारखाने निजी स्वामित्व में जाने से बचा लिए जाएंगे। अन्यथा स्थायी तौर पर रोजगार किसी के लिए बचेंगे ही नहीं। वैसे भी सरकार और पूंजीपतियों को श्रमकानून हमेशा खटकते रहे हैं और अब तो मोदी सरकार तानाशाही रवैय्या अख़्तियार करते हुए कार्पोरेट लूट के लिए श्रमकानूनों को पूरी तरह खत्म कर देने पर ही आमादा है।
विडंबना है कि जिस तरह हिंदूवादी संगठनों द्वारा जातीय व सांप्रदायिक ज़हर घोलकर समाज में वैमनस्य फैलाया जा रहा है और वोटों के ध्रूवीकरण की राजनीति की जा रही है, ठीक उसी सुर-ताल में कुछ तथाकथित ओबीसी आंदोलनकारियों, तथाकथित अंबेडकरवादियों और दलित हितचिंतकों द्वारा भी मात्र जातीय वैमनस्य फैलाने की कोशिश की जा रही है। इसकी पुष्टि इस बात से और भी अधिक होती है कि इन तमाम आंदोलनों के नेतृत्व में बैठे ज्यादातर लोगों को सरकार की जनविरोधी नीतियों से ज्यादा चिढ़ सर्वहारा आंदोलनों, वामपंथियों, बुद्धजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, जनवादी लेखकों व पत्रकारों से होती है। वे देश की गिरती अर्थव्यवस्था, चौपट होती जा रही और पूंजीपतियों के व्यापार में तब्दील होती जा रही शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था, देश में बढ़ती बेतहाशा महंगाई, बेरोजगारी और अमीरों व ग़रीबों के बीच तेजी से बढ़ती खाई को लेकर कम ही चिंतित दिखाई देते हैं।
उनमें से ज्यादातर लोगों को देश की विभाजनकारी, शोषण व दमनकारी सामंती व फासिस्ट ताकतों से ज्यादा दोष वामपंथियों और बुद्धिजीवियों में दिखाई देता है। घोर विडंबना है कि उन्हें वामपंथियों में ब्राह्मणवाद भी दिखाई देता है, लेकिन उनमें से बहुतों को ब्राम्हणवाद की परिभाषा भी नहीं मालूम। दरअसल वे ब्राह्मणवाद के बजाय महज़ जाति के ब्राम्हणों के खिलाफ ज़हर उगलने, उन्हें कोसने और उनके खिलाफ भद्दी टिप्पणियों को ही ब्राह्मणवाद के खिलाफ लड़ाई समझते हैं।
पहले तो हमें ब्राह्मणवाद क्या है, इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। दरअसल ब्राह्मणवाद खुद को श्रेष्ठ और दूसरों को कमतर समझने, अपने सुख-सुविधाओं और मौज़-मस्ती के लिए तथा अपनी चरणवंदना के लिए पूरे समाज को नतमस्तक कराने की प्रवृत्ति है। ब्राह्मणवाद पूर्णतः एक सामंती विचार है जिसका महज़ जाति के ब्राम्हणों से कोई वास्ता नहीं। यह सोच दुनिया की तमाम जातियों और तमाम संप्रदायों में व्याप्त है जिसके खात्मे के लिए जातीयता का अंत ज़रूरी है और इसके लिए हमें तमाम जातीय बंधनों को तोड़ना होगा, हमें मानवीय पक्ष को मजबूत करना होगा और इसके लिए वर्ग-संघर्ष के सिवाय कोई रास्ता नहीं। हमें यह अच्छी तरह समझना होगा कि हमारा वर्ग-दुश्मन कौन है और वर्ग-मित्र कौन? जोंक और खटमल दुनिया की तमाम जातियों में पैदा हो गये हैं जिन्होंने आपस में मैत्री कर रखी है और उन्होंने जनसाधारण को हर तरह से अंधेरे में रखकर उनके श्रम से उपजे हीरे-मोती को हड़पने की योजना बना रखी है और इस योजना को अमलीजामा पहनाने के लिए हमें जातियों और मज़हबों में बॉट रखा है। दरअसल ये तमाम लोग जाने-अनजाने पूंजीपतियों के एजेंटों के बतौर काम कर रहे हैं। वे अपनी शोषणकारी व्यवस्था को बनाये रखने व पोषित करने के लिए जाति और मज़हबों का बेहतर इस्तेमाल करना अच्छी तरह जानते हैं। वे यही चाहते हैं कि लोग खुद को सर्वहारा मानने के बजाय जाति और धर्मों के हिमायती बने रहें ताकि उनका लूट, झूठ, शोषण, दमन का खेल निर्बाध चलता रहे। मुंशी प्रेमचंद ने बहुत ही आसान ढंग से कह दिया है कि “शोषणकारी फासिस्ट ताकतें अपने असली रूप में सामने आने से डरती हैं और चेहरा बदलने में माहिर होती हैं।”
भारतीय राजनीति का इतिहास गवाह है कि तमाम तरह के शोषण-दमन-उत्पीड़न के खिलाफ संघर्षों में संसाधनों में सबसे कमजोर होने के बावजूद वामपंथी सबसे आगे रहे हैं। जहाँ भी पिछड़ी जातियों या वंचित तबकों पर अगड़ों या दबंगों द्वारा अत्याचार हुआ है, वामपंथियों ने वहाँ मोर्चा सम्हालने में देर नहीं की। यह कभी नहीं सोचा कि सितमगर कोई सवर्ण, दबंग या पहुँच वाला है। यही नहीं, अपने जान को जोखिम में रखकर सितमगरों के खिलाफ आर-पार की कई लड़ाइयाँ भी लड़ी हैं और कई बार इन लड़ाइयों में अपनी शहादतें दी हैं।
फासिस्टों और शोषणकारी ताकतों द्वारा वामपंथियों पर बंगाल को तबाह करने का आरोप लगाया जाता है और परिपक्व राजनीतिक समझ के अभाव में जनसाधारण में भी यही धारणा बना दी गई है जो दरअसल सरासर गलत आरोप है। यह सही है कि वामपंथियों की कुछ कमजोरियाँ रही हैं वे कांग्रेसियों की तरह गलत लोगों पर नियंत्रण नहीं रख पाये और लंबी पारी मिलने के बावजूद वामपंथ को एक मॉडल के रूप में पेश करने में नाकाम रहे। लेकिन इसका यह मतलब कत्तई नहीं कि वामपंथ ही गलत है। बंगाल की तथाकथित तबाही के पीछे पूंजीपतियों की शोषणकारी नीतियों की विफलता और वामपंथियों के कुछ गलत निर्णय मुख्य कारण रहे हैं।
एससी, एसटी, ओबीसी के सच्चे हितचिंतकों को वामपंथियों के योगदान को समझ लेना चाहिए और उन पर गंभीर चिंतन करना चाहिए। यही नहीं, तथाकथित हितचिंतक बनकर एक तरफ सत्ता की मलाई खाने और दूसरी तरफ एससी, एसटी, ओबीसी के हितचिंतक बनकर उन्हीं की आँखों में धूल झोंकने वालों की प्रोफाइल अच्छी तरह खंगाल लेना चाहिए। दर ये वे लोग हैं जो अपने निहित स्वार्थों को साधने के लिए आज ऐसे मंचों का बेधड़क इस्तेमाल कर रहे हैं। इनके चरित्र और संघ-संचालकों के चरित्र में कोई फर्क नहीं। जिस तरह मनुवादी विचारधारा के समर्थक और पोषक हिंदुत्व का मुखौटा लगाकर केवल वोटों का ध्रुवीकरण कर बहुसंख्यक हिंदुओं को मात्र सत्ता की सीढ़ी की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं, उसी तरह कुछ कमल छाप, पंजा छाप, हाथी छाप लोग भी एससी, एसटी,ओबीसी आंदोलन में घुस आये हैं और छलपूर्वक नेतृत्वकारी टीम तक जा पहुँचे हैं। एससी, एसटी, ओबीसी के सच्चे हितचिंतकों को ऐसे घोड़ा करायतों से सतर्क रहने और अपनी दशा-दिशा ठीक करने की ज़रूरत है, क्योंकि शोषणकारी व्यवस्था को खत्म कर जातिविहीन, वर्गविहीन और समतामूलक समाज बनाने अर्थात् वैज्ञानिक समाजवाद के लिए जाति-धर्म के आधार पर लड़ने के बजाय सर्वहारा आंदोलन को मजबूत करने और आगे बढ़ाने की ज़रूरत है।
एससी, एसटी ओबीसी और तमाम वंचितों के सच्चे हितचिंतकों को हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
श्याम लाल साहू