व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा
लीजिए, अब इन विरोधियों को राजा जी की सवारी निकलने पर ही आब्जेक्शन है। और कुछ नहीं मिला, तो लगे मणिपुर में आग लगने का बहाना बनाने। कह रहे हैं कि कहां तो मणिपुर जल रहा है और कहां राजा जी बंगलुरु में अपनी सवारी निकलवा रहे हैं। यानी मणिपुर जल रहा है, इसलिए राजा जी अपनी सवारी भी नहीं निकालें! मोदी जी के विरोधी हैं, तो क्या इसका मतलब है कि कुछ भी कहेंगे? सोचने की बात है कि मणिपुर वाकई जल रहा है और प्रेस स्वतंत्रता के मामले में कुल एक सौ अस्सी देशों में एक सौ इकसठवें नंबर पर पहुंचने के बाद भी हमारा मीडिया दिखा रहा है, तो जरूर वहां कुछ तो चल रहा होगा; तो भी इसमें राजा जी क्या कर सकते हैं?
वह देश के राजा हैं, मणिपुर-वणिपुर के थोड़े ही हैं। वैसे भी राजाजी को बखूबी पता है कि विरोधियों के मणिपुर-मणिपुर करने में, मणिपुर के जलने की चिंता-विंता बिल्कुल नहीं है। ये तो यही चाहते हैं कि बंगलुरु में सवारी निकालना छोडक़र, राजा जी मणिपुर चले जाएं और बाद में इन्हें इसका शोर मचाने के लिए वीडियो वगैरह मिल जाएं कि जब मणिपुर जल रहा था, तब राजा जी ढोल बजा रहे थे। समझते हैं कि राजा जी बाकी सब छोड़-छाडक़र, इतना खर्चा कर के जब मणिपुर तक जाएंगे, तो और कुछ तो शायद नहीं कर पाएं, पर शहरों को जलता देखकर, कम से कम ढोल तो जरूर बजाएंगे! नीरो की तरह वाइलन जैसा विदेश साज बजाने की, हमारे स्वदेशवादी राजा जी से उम्मीद तो विरोधी भी नहीं करते हैं।
लेकिन, इससे कोई यह नहीं सोचे कि राजा जी नीरो कहलाने से डरकर, मणिपुर जाने की जगह, बंगलुरु की सडक़ों पर ही अपनी सवारी निकाल रहे हैं। अपने राजा जी डर कर कुछ भी करने वालों में से नहीं हैं। न नीरो कहलाने से डरते हैं और न हिटलर-विटलर कहलाने से। छप्पन इंच की छाती दिखाने को थोड़े ही रखायी है। पर इसका मतलब यह हर्गिज नहीं है कि वह चुनाव की सोचकर बंगलुरु में अपनी सवारी निकाल रहे हैं। बेशक, राजा जी सवारी निकाल रहे हैं। घंटों-घंटों की सवारी निकाल रहे हैं। एक नहीं, दो-दो दिन सवारी निकाल रहे हैं। शहर में बाकी सब कुछ ठप्प कर के सवारी निकाल रहे हैं। हाउसिंग सोसाइटी वालों को तालों में बंद कर के, छतों और बालकनियों वगैरह से दर्शन करने की मनाही कर के, शहर में अपनी सवारी के अलावा बाकी सब का चलना बंद कर के भव्य सवारी निकाल रहे हैं। पर इसलिए नहीं कि उन्हें चुनाव की परवाह है। डैमोक्रेसी के राजा हुए तो क्या हुआ, अपने राजा जी किसी चुनाव-वुनाव की परवाह नहीं करते। राजा होकर भी फकीर हैं। किसी भी दिन झोला उठाकर चलने को तैयार। बस पब्लिक ही है कि उनका झोला छोड़ती नहीं है और राजा जी भी पब्लिक का दिल नहीं तोड़ सकते हैं। दिल बड़ा मोम वाला है जी!
जी हां, बंगलुरु की पब्लिक का दिल रखने के लिए ही राजा जी, दिन-दिन भर सवारी निकाल रहे हैं। घंटों-घंटों, हंस-हंसकर, कभी हाथ हिलाकर, तो कभी हाथ जोडक़र सवारी निकाल रहे हैं। पर बंगलुरु में तो सिर्फ उनका तन है, मन तो सैकड़ों किलोमीटर दूर मणिपुर में है। पर तन के मन से बिछुडऩे की दारुण पीड़ा सहन कर रहे हैं, तो किस की खातिर — बंगलुरु वाली प्रजा की खातिर। राजा जी की सवारी नहीं निकलती या मणिपुर के जलने के चक्कर में कैंसल हो जाती, तो बंगलुरु की प्रजा को कितना दु:ख होता। राजा जी की तस्वीर सिर्फ टीवी पर देखकर, उनके बोल-बचन सिर्फ रेडियो-वेडियो पर सुनकर, प्रजा कब तक काम चलाती। आखिर, प्रजा को अपने राजा जी का प्रत्यक्ष रूप से दर्शन करने का भी तो अधिकार है। और जब कर्नाटक में ही बाकी सब जगह की प्रजा को राजा जी के दर्शन कर के धन्य होने का मौका मिला हो तो, बंगलुरु वालों को ही कैसे इस कृपा से वंचित किया जा सकता है। उनके साथ क्या यह भेदभाव नहीं होता? कहते हैं कि भेदभाव की आशंकाओं के ही चक्कर में तो मणिपुर जल रहा है।
और बंगलुरु वालों की निराशा तो देखी भी जाती, पर उन फूल वालों की रोजी-रोटी का क्या होता, जिनके टनों फूल राजा जी की सवारी पर बरसाए जाते हैं। सवारी नहीं, तो फूलों की बिक्री नहीं। फूलों की बिक्री नहीं, तो फूल कारोबारियों से लेकर, फूल उगाने वालों तक के घर में रोटी या चावल नहीं। खरीददार नहीं होते तो फूल तोड़े तक नहीं जाते, यूं ही खेतों-क्यारियों में खड़े-खड़े सूख जाते। और फूल भी ऐसे-वैसे नहीं, गेंदे के फूल। गेंदे के फूल जो, हर शुभ कार्य में लगते हैं। गेंदे के फूल जो देवी-देवताओं की पूजा में लगते हैं। गेंदे के फूल जो सबसे ज्यादा बजरंग बली की मूर्ति पर चढ़ते हैं। उस समय जब बजरंग दल पर रोक लगाने की बात कहकर, सेकुलरिस्ट बजरंग बली का अपमान कर रहे हैं, बजरंग बली के प्रिय गेंदा फूल का अपमान, राजा जी कैसे हो जाने देते। इसीलिए, राजा जी ने अपने मन को यह कहकर समझा लिया कि — बजरंग बली के गेंदे का अपमान, नहीं सहेगा हिंदुस्तान; और सवारी की अपनी गाड़ी में तन के पीछे वाली सीट पर मन को भी बैठा लिया। मणिपुर का भी देखा जाएगा, पर कर्नाटक के चुनाव के बाद।
(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और सप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)