6 मई को ‘लल्लन टॉप’ द्वारा प्रसारित एक इंटरव्यू में फ़िल्मी दुनिया से जुड़े श्री पीयूष मिश्रा ने काफी कुछ अनर्गल दावे और टिप्पणियाँ की हैं । हमें लगता है इन्हें नव-दरबार का दरबारी बनने को आतुर किसी महत्वाकांक्षी का, अपने नव-आराध्यों को प्रसन्न करने का कातर प्रलाप भर मानकर अनदेखा करना ठीक नहीं होगा। इसलिए एक टीप संलग्न है, कहने की जरूरत नहीं कि इसमें लिखे-कहे की जिम्मेदारी हमारी है ।
पहली कैविएट तो यह कि ऊपर लिखी भाषा हमारी नहीं है। हम इस तरह की भाषा इस्तेमाल नहीं करते क्योंकि :
(अ) हमारी तरबियत और परवरिश अच्छी माँ और बेहतर पिता की छाया वाले परिवार और कम्युनिस्ट कुनबे की ठीक-ठाक संगत में हुयी है। इन सबने ऐसा संस्कारित किया कि हम उन्हें भी “आप” कहकर पुकारते हैं, जो अपने लिए यह संबोधन सुनते ही हाथ जोड़कर गुजारिश करते हैं कि :
“आप हमको आप कहके मत बुलाया कीजिये
लोग कहते हैं कि तू तो, तू के काबिल भी नहीं!!”
(ब) पीयूष मिश्रा के बारे में तो और भी नहीं कर सकते, क्योंकि एक तो वे उन कुछ एक्टर्स में से हैं, जिनका नाम देखकर हम फिल्म देख सकते हैं : गैंग्स ऑफ वासेपुर, मकबूल और पिंक ही नहीं “हैप्पी भाग जायेगी” भी देख लेते हैं। उनकी संवाद अदायगी का देशज भदेसपन भाता है। उनका “एक बगल में चाँद होगा, एक बगल में रोटियां” गीत पसंद है, “हुस्ना” नज़्म कुछ ज्यादा ही पसंद है, फैज़ साहब की “कुछ इश्क किया कुछ काम किया” की पैरोडी भी मजेदार लगती है। दूसरे ये कि बन्दा हमारे शहर ग्वालियर का है, इस शहर की चंद बुराइयों के बाद भी एक अच्छाई यह है कि इस शहर से निकले घटिया लोग भी बाकी नस्लों के घटियाओं की तुलना में कम घटिया होते हैं। बहरहाल यह नियम है, अपवाद तो अच्छे अच्छे नियमों के भी होते ही हैं।
हम भाई जी के हालिया पतित स्खलन पर टिप्पणी लिखने के लिए किसी चुस्त हैडिंग की तलाश में थे, कि अचानक खुद उन्ही की कथित आत्मकथात्मक किताब का शीर्षक देखा, ज्यादा मुफीद लगा, सो “तेरा तुझको अर्पण” भाव के साथ उठाकर चिपका दिया ।
अब मुद्दे पर आयें ।
‘लल्लन टॉप’ के एक इंटरव्यू में भाई ने “कम्युनिस्टों ने मेरी ज़िंदगी बर्बाद कर दी, कॉमरेड ने ही तो मेरी ऐसी-तैसी कर दी, 20 साल तक काम करवाते रहे, जो भी कमाता था, वह मुझको उन्हें देना पड़ता था, इनके चक्करों में पड़कर अपना सब कुछ गँवा दिया” वगैरा-वगैरा के विलाप का आर्तनाद सुना, तो सहज ही चिंता हुयी और कम्युनिस्ट आन्दोलन के एक कार्यकर्ता के नाते लगा कि भाई के इस बेहिसाब “खतरनाक शोषण” के जिम्मेदारों का पता लगाया जाए — देखा जाए कि ये खुद थे, तो कहाँ कम्युनिस्ट थे और किन-किन को कॉमरेड माने बैठे थे। उन मुजरिमों की शिनाख्त की जाए,जिनने इन्हें मां-बाप, बीबी और बेटे को न मानने की हिदायतें दी और दोनों किडनियों को छोड़कर (मानकर चल रहे हैं, क्योंकि किडनियों के बारे में इन्होने कुछ बताया नहीं) बाकी सब छीन लिया।
पहले ग्वालियर में देखा। जिस जमाने में यह बड़े हुए, उस जमाने में इस शहर में स्कूल, कालेज से लेकर कला, संस्कृति की बिरादरी में चहुँ ओर लेफ्ट ही था, भाई जिस स्कूल में पढ़े उस स्कूल में भी स्टूडेंट्स और कर्मचारियों के बीच उसकी मौजूदगी थी। बड़े बड़े जनांदोलन थे। उनमें भाई कहीं पीछे खड़े भी नजर नहीं आये। इसके बाद यूपी, बिहार, उत्तराखण्ड सब जगह पूछाताछी की। कॉमरेडों के किसी भी धड़े ने इनकी अपने साथ किसी भी तरह की संबद्धता से साफ़ इनकार किया। ज्यादातर ने ताज्जुब भी जताया कि अरे ये ऐसे भी थे कभी!! दिल्ली में भी तलाश की — वहां भी किसी पार्टी में वे नहीं मिले। कौतुक बना हुआ है कि भाई कहाँ के कम्युनिस्टों की बात कर रहे हैं? सांस्कृतिक जगत के हमारे सबसे भरोसेमंद स्रोत सुधीर सिंह का कयास ठीक लगा कि “जरूर ये मंगल ग्रह की कम्युनिस्ट पार्टी में रहे होंगे!!” अब मंगल ग्रह में हमारा कोई परिचित नहीं है, इसलिए साधिकार कुछ कह नहीं सकते।
तो पीयूष भाई से, पहली इल्तजा तो ये है कि “हमे तो लूट लिया मिलके कॉमरेडों ने” की कव्वाली सुनाने के साथ यह तो बतायें कि जिन्हें कोस रहे हैं, उनके साथ वे थे कहाँ? अपने ग्वालियर की वह कहावत तो इनने सुनी ही होगी कि “या तो …. का नाम बता, या तेरहवीं कर।”
इन पंक्तियों के लेखक को आधी सदी से ज्यादा वक़्त से इस कुनबे में रहने का अवसर मिला है। दिल्ली (जहां इनके दावों के मुताबिक़ इन्हें बर्बाद किया गया) के ज्यादातर कॉमरेडों को व्यक्तिगत रूप से भी जानने-पहचानने का मौक़ा मिला है, सबके दाम्पत्य जीवन सही सलामत हैं। जिनके बेटे-बेटियाँ हैं, वे उनसे बेइंतहा प्यार करते हैं, अपनी सामर्थ्य के मुताबिक़ उनकी बेहतरीन परवरिश भी करते हैं। “परिवार गंदी चीज है, मां गंदी चीज है, बाप गंदी चीज है।” ये कहीं शाम के बाद हुआ इलहाम तो नहीं था प्रभु? काहे कि जब “मां-बाप, अपनी बीवी सबको साइड करवाने” “एक खराब बाप और बेटा बना देने” जैसे आपके क्रिएटिव आरोपों के बारे में दरियाफ्त की, तो दिल्ली के आपको जानने वाले कुछ दिलजले नामुरादों ने हमें आपकी “क्या-क्या किया है उनने, जुनूं में न पूछिए” कहकर जो सच्ची कहानियां सुनाई हैं, उन्हें तीन वजहों से हम लिख भी नहीं सकते : एक तो वे कुछ ज्यादा ही प्रयोगधर्मिता वाली हैं, दूसरे वे इतनी सारी हैं कि पूरी किताब भर जायेगी, तीसरे यह भी डर है कि अनुराग कश्यप उन्हें ले उड़ेंगे और “एक्ट्स ऑफ झांसेपुर” की त्रयी पेल देंगे। जानने की उत्सुकता तीव्र हो, तो कभी दोपहर-शाम नहीं, दोपहर ही — में बैठें, तो बतायेंगे ।
पीयूष मिश्रा ने अपने जीवन परिचय में एन के शर्मा के सान्निध्य का जिक्र किया है। हम भी एन के को तब से जानते हैं, जब एक्ट-वन नहीं बना था और वे और सफ़दर एक साथ काम करते थे। एन के की नर्सरी में ढेर फूल उगे हैं, उग रहे हैं, देश में खुशबू बिखेर रहे हैं, संभव है इनके बीच कुछ खार भी उग आये होंगे, लेकिन जहां तक हमारी जानकारी हैं, उनकी बगिया में धतूरा कभी नहीं दिखा। वैसे भी मीर के मुशायरे में बैठने या बल्लीमारान में रहने भर से कोई मीर तकी मीर या मिर्ज़ा ग़ालिब नहीं हो जाता। हालांकि इस इंटरव्यू में तो सुना कि पीयूष उन्हें भी गरिया रहे थे!! कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूं कोई बेवफा नहीं होता। क्या मजबूरियां हैं, यह तो वे ही बता पायेंगे, तभी उनके इस नए अवतार की वजह साफ़ हो पायेगी ।
एक बात तो इन्होने भी कही है कि “कीचड़ में रहना है, तो कीचड़ में रहकर ही निबटेंगे।” रहिये न कीचड़ में – मगर इसलिए यह जरूरी थोड़ी है कि जो साफ़ स्वच्छ रहते हैं, उन्हें कीचड़ में न रहने के लिए गरियाया जाए ।
वैसे तो उनके नव-आराध्य सर ने डार्विन को कोर्स निकाला दे दिया है, मगर उन्होंने भी थ्योरी ऑफ इवोल्यूशन पर रोक लगाई है, इसलिए आका के नाराज होने की फ़िक्र में दुबले होना छोड़कर पीयूष मिश्रा अपने इस “विकास” की ‘थ्योरी ऑफ डिवोल्युशन’ तो बता ही सकते हैं। बता सकते हैं कि जेएनयू के छात्र-छात्राओं पर गुंडों के हमलों के वक़्त वे 14 जनवरी 2020 को जिस मोदी सरकार को उसकी “नीच हरकत, बदतमीजी, बेहयाई” के लिए कोस रहे थे, जिसे “70-80 साल से बोतल में बंद ऐसा जिन्न” बता रहे थे, जो जनता की गलती से बाहर आ गया है, जिस पर “भारत को सीरिया बना देने” का आरोप लगा रहे थे, जिनके द्वारा 2014 के चुनाव में फिल्म गुलाल के गाने के इस्तेमाल को दुरुपयोग बता रहे थे और उसका इस्तेमाल रोकने की गुहार लगा रहे थे ; ऐसा क्या हुआ कि वे ही मोदी उन्हें 2022 तक पसंद आने लगे, इतने भाने लगे कि मोदी की पार्टी के चुनाव में पीयूष उत्तर प्रदेश के चक्कर लगाने लगे और 2023 में “चाणक्य, इंदिरा गांधी के बाद सबसे बेहतर राजनेता”, नायक और न जाने क्या क्या लगने लगे।
अगर आने भी लगे तो ऐसी कोई ख़ास बात नहीं है — इनसे भी बड़े वाले पड़े हैं। मगर उनमें से मालिकों के पसंदीदाओं की फेहरिश्त में ऊपर आने के लिए वे जो उनको हो, पसंद वही बात करने के लिए अक्षय कुमार नहीं बनते। लगता है, पीयूष भाई में ब्रह्मा जी का अगला इंटरव्यू लेने की इच्छा बलवती हो गयी है — आम के बारे में पूछा जा चुका, इन दिनों तरबूजों की बहार है, उन्हें फांक हाथ में पकड़कर खाते हैं या कांटे से उठाकर, यह नया सवाल पूछा जा सकता है। पूछो न, मगर इसके लिए भूतपूर्व कम्युनिस्ट होने के सुर्खाब के परों की तलाश करने से ज्यादा आसान होगा अपने नाप की नेकर — इन दिनों पैंट भी पहनने की इजाजत मिल गयी है — सिलवाना और पीतल के एक त्रिशूल के साथ कंगना बेन के साथ सेल्फी लेना। गिरे हुए पैसे उठाने के लिए झुको – मगर गिरो, तो थोड़ा सलीके से गिरो!! अग्रज कवि नरेश सक्सेना ने कहा तो है : “चीजों के गिरने के नियम होते हैं, मनुष्यों के गिरने के कोई नियम नहीं होते/ लेकिन चीजें कुछ भी तय नहीं कर सकतीं अपने गिरने के बारे में/ मनुष्य कर सकते हैं।” सिर्फ ‘लल्लन टॉप’ में बताने भर से काम नहीं चलेगा, इन्हें गिरने की गति और गर्त दोनों के बारे में खुद ही तय करना होगा।
और हाँ, चलते-चलते इन्हें एक मित्रवत सलाह और पहुंचे कि भैय्ये विपश्यना कर रहे हो, अच्छी बात है। मगर विशेषज्ञ कहते हैं किसी भी डिप्सोमेनियक के लिए इतना भर काफी नहीं। जो दरिया झूम के सांटे हैं, वे सांस की निगहबानी और अनुलोम-विलोम से ना निकाले जायेंगे। बहुत ही खतरनाक होता है डिप्सोमेनिया, जिसे alcoholic paranoia या अल्कोहली व्यामोह के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी भारी मनोवैज्ञानिक विकृतियाँ पैदा कर देता है ; घर-परिवार तोड़ देता है, समझ-बूझ और विवेक छीन लेता है, उत्पीड़क और जलकुक्कड़ बना देता है। लग कर इसका इलाज ही करवाना होता है। यूं तो आजकल हर जगह उपलब्ध है, वरना फिर अपना ग्वालियर तो है ही है ; जेल के एकदम करीब ही है वही पुराना अस्पताल। इनके लिए इत्ता तो किया ही जा सकता है।
इस टिप्पणी में फिलहाल उतना ही समेटा है, जितना उन्होंने ‘लल्लन टॉप’ में बगराय था। पता चला कि भाई जी दूर अमरीका में कम्युनिस्टों के बारे में क्या सोचा जाता है, यह भी पता करके आये हैं, फिलहाल वे इसका दही जमाकर रायता बना लें। कहते हैं कि उसे फैलाने से पुण्य कुछ ज्यादा मिलते हैं ।
सनद के लिए : पीयूष मिश्रा के उस इंटरव्यू के संदर्भित अंश की लिंक नीचे दी जा रही है। साहित्य के पाठ में इसका पतित रस के उदाहरण के रूप में प्रयोग किया जा सकता है, एक्टिंग कोर्स में इसे डेल्यूजन के रूपों की क्लिप के रूप में दिखाया जा सकता है। राजनीति विज्ञान में एक मनुष्य बनने की संभावनाओं वाले प्राणी के भेडियों के दल में शामिल होने की उत्कंठा में किये जाने वाले रूपांतरण के साइड इफेक्ट्स के रूप में पढ़ाया जा सकता है ।
(लेखक पाक्षिक ‘लोकजतन’ के संपादक और अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)