व्यंग्य : राजेंद्र शर्मा
अब ये अमृतकाल में कैसी उल्टी गंगा बहने लगी। बताइए, पप्पू फिर पास हो गया। पप्पू कर्नाटक में भी पास हो गया। जैसे-तैसे कर के नहीं, रो-पीटकर नहीं, बाकायदा फर्स्ट डिवीजन में पास हो गया। और बेचारा गप्पू, फिर फेल हो गया। वही गप्पू, जिसने लंबी-लंबी गप्पें हांककर और अखबार-टीवी सब के जरिए, लोगों को अपनी कहानियों से बांधकर, अपने अच्छे-भले कम्पटीटर को सबसे पप्पू-पप्पू कहलवाया था; अगले का नाम बदलकर पप्पू धराया था। अब अगले का नाम तो पप्पू रह गया, पर अपने गप्पू जी का दांव तो हार गया। पप्पू, पास होने लग गया। जिस पप्पू को हर बार फेल होना था, बार-बार पास होने लग गया — पहले हिमाचल, अब कर्नाटक। और बेचारा गप्पू, उससे भी ज्यादा बार फेल होने लग गया, पप्पू से मुकाबले में भी और दूसरों से मुकाबले में भी। यही हाल रहा, तो कहीं नाम ही बदलने की नौबत नहीं आ जाए; गप्पू का ही नाम बदलकर पप्पू-द्वितीय टाइप, कुछ और नहीं रखना पड़ जाए।
लेकिन, पप्पू अगर पास भी हो गया और पप्पू बार-बार भी पास हो जाए, तो भी इसे गप्पू का फेल होना कैसे कह सकते हैं? अब ये क्या बात हुई कि पास हो पप्पू और सब गप्पू को फेल-फेल कहने लगें। पप्पू पास भी हो गया हो तो भी, गप्पू कोई फेल-वेल नहीं हुआ। बस पप्पू के नंबर, गप्पू से ज्यादा आ गए हैं! कर्नाटक का ही मामला ले लो। माना कि गप्पू के सवा दो सौ में से पेंसठ नंबर ही आए हैं, फिर भी हम यह कैसे मान लें कि गप्पू बिल्कुल चला ही नहीं; गप्पू फेल ही हो गया है? इसकी कोई गारंटी है क्या कि गप्पू ने मेहनत नहीं की होती, तो इम्तहान में नंबर पेंसठ से भी कम नहीं रह जाते। 40 परसेंट वाली सरकार के लिए, पब्लिक अगर 40 फीसद भी नहीं, सिर्फ 40 सीटें देने पर अड़ जाती, तो क्या होता? गप्पू ने अपने प्रचार के आखिरी दौर में जिन 14 सीटों पर सभाएं की या रोड शो किए, उनमें से 12 पर गप्पू के संगी हार ही गए, तो उससे क्या? बंगलूरु में दो दिन गप्पू के अपनी फूलों वाली गाड़ी की सवारी निकालने के बाद, उसकी पार्टी का नंबर पिछले इम्तहान से एक बढ़ भी तो गया। फिर भी अगर पप्पू के पास होने के बदले में दूसरी तरफ से किसी को फेल घोषित करना ही जरूरी हो, तो नड्डा को फेल कह सकते हैं, बोम्मई को फेल कह सकते हैं, आरएसएस को फेल कह सकते हैं, नफरत को फेल कह सकते हैं, गुजरात मॉडल को या विश्व गुरु को फेल कह सकते हैं, पर गप्पू को फेल नहीं कह सकते, गप्पू को फेल नहीं कर सकते। 2024 अभी दूर है!
और हां! बजरंग बली को फेल तो हर्गिज-हर्गिज नहीं कह सकते हैं। और यह तो सरासर अफवाह है कि पप्पू का पास होना और गप्पू का बहुत पीछे रह जाना, सब बजरंग बली की करनी है। वोट के लिए तंग किए जाने से, कपीश इतने नाराज हुए — इतने नाराज हुए कि खुल्लमखुल्ला अपने स्वार्थ के लिए, जैकारा लगाने का स्वांग भरने वालों पर ही, उन्होंने अपनी भारी-भरकम गदा चला दी। फिर क्या था, गप्पू जी की पार्टी वाले चोट सहलाते ही रह गए, जबकि पप्पू पार्टी वाले शानदार नंबरों से पास होने तक आगे बढ़ गए। ऐसा कुछ नहीं है। बजरंग बली, राम लला का मंदिर बनवाने वालों से नाराज कैसे हो सकते हैं? और नाराज भी हो जाएं, गदा भी चला दें, तब भी बजरंग बली फेल कैसे हो सकते हैं, चुनाव में भी। रामू रट ले — न गप्पू फेल हुआ है, न बजरंग बली; बस पप्पू पास हो गया है।
*श(व्यंग्यकार वरिष्ठ पत्रकार और साप्ताहिक ‘लोकलहर’ के संपादक हैं।)